शिक्षा पद्धति की असमानता एवं प्रमुख चुनौतियों की विवेचना कीजिए।
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शैक्षिक पद्धति में शैक्षिक अवसरों की असमानता एवं चुनौतियाँ (Inequality and Challenges of Educational Opportunity in Education System)
जब हम स्वतन्त्र भारत के आर्थिक विकास पर शैक्षिक दृष्टि से विचार करते हैं तब आर्थिक विकास में अनेक समस्याओं के साथ शिक्षा के समान अवसर की समस्या में आकर बुरी तरह उलझ जाते हैं। संविधान की धारा 45, जिसके अनुसार, संविधान लागू होने पर दस वर्ष के अन्दर तथा 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने की व्यवस्था दी गयी थी और जो धारा 46 जिसके अनुसार सम्पूर्ण देश में समाज के दुर्बल अर्थात् पिछड़े वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के शैक्षणिक तथा आर्थिक हितों की सुरक्षा, सामाजिक अन्याय एवं सब प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा की बात कही गयी थी, उसका पालन देश के शासन वर्ग द्वारा आज तक नहीं हो पाया और यही कारण है कि लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के विपरीत देश में समानता के स्थान पर विषमता का फैलाव होता जा रहा है।
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि 70 वर्ष की सुदीर्घ आजादी के बाद भी हम पूरे देश के लिए शिक्षा की एक राष्ट्रीय नीति का निर्माण नहीं कर पाये हैं जिसके कारण शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में विषमता ही विषमता दिखलाई पड़ रही है। सभी स्तरों पर लड़के और लड़कियों की शिक्षा में आश्चर्यजनक असमानताएँ हैं। शिक्षा में असमानता का भयंकर स्वरूप सवर्ण और निम्नवर्ग, बड़े नगर और छोटे नगर, बड़े गाँव, छोटे गाँव, घरेलू वातावरण, अमीर और गरीब उन्नत वर्ग और पिछड़े वर्ग में प्रत्यक्षतः दिखायी पड़ता है जो भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्रीय राष्ट्र के लिए कलंक का विषय है।
‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986′ के “शिक्षा की चुनौती : नीति सम्बन्धी परिप्रेक्ष्य” में शिक्षा के अवसरों की विषमताओं के निम्नलिखित रूपों का उल्लेख किया गया है-
1. ग्रामीण और नगरीय विभिन्नता- “बुद्धि, नैतिक, न्याय और घनिष्ठता की दृष्टि से शिक्षा की व्यवस्था में बहुत अधिक असमानता है। यद्यपि जनसंख्या का तीन-चौथाई भाग ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है फिर भी उन्हें शिक्षा के लिए बहुत कम संसाधन प्राप्त हो रहे हैं। समृद्ध लोग शहरों में निजी रूप से चलायी जाने वाली अच्छी शिक्षण संस्थाओं का लाभ लेते हैं तथा ये ही व्यावसायिक शिक्षा-संस्थाओं में अनारक्षित स्थानों के बहुत बड़े हिस्से पर अधिकार कर लेते हैं जबकि ग्रामीण स्कूलों की अपेक्षाकृत दयनीय दशा के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ती है।”
2. लिंग और जाति पर आधारित विषमता- इसी प्रपत्र (Document) के बिन्दु पर 7.2 में लिंग पर आधारित असमानता तथा जातिगत असमानता के बिन्दुओं की विवेचना निम्नलिखित रूप में की गई है- “लड़कियों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों ने पिछले दशक के दौरान उल्लेखनीय प्रगति की है। इसके उपरान्त भी वे शैक्षिक उपलब्धि के अन्तिम सोपान पर हैं। बालिकाएँ तो घर-गृहस्थी के कार्यों में अपनी दत्तचिन्तता तथा सामाजिक कुरीतियों की शिकार होती हैं, जबकि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चे ऐसी अयोग्यताओं, जो स्थानों के आरक्षा से नहीं दूर की जा सकती हैं, के कारण उन्नति नहीं कर सकते। इनमें से अधिकांशतः पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी होने के कारण बाल्यकाल के कुपोषण, सामाजिक अकेलेपन की भावना, कार्य करने की खराब आदतें तथा अपनी बौद्धिक क्षमताओं के प्रति आत्मविश्वास के अभाव के कारण समुचित विकास नहीं कर सकते। वे अपने को सामान्य धारा के छात्रों से सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई अनुभव करते हैं। इन मनोवैज्ञानिक दबावों के कुप्रभाव को समाप्त करने के लिए तथा उनकी योग्यताओं में बढ़ोत्तरी करने हेतु एवं समाज की प्रमुख धारा में उन्हें समन्वित करने के लिए विशेष कार्यक्रम की आवश्यकता है।”
3. डॉ० त्यागी एवं पाठक का मत- इन्होंने इन शैक्षिक विषमताओं का उल्लेख क्रमबद्ध ढंग से निम्नलिखित रूप में किया है-
(i) जिन स्थानों पर प्राथमिक, माध्यमिक या कॉलेज की शिक्षा देने वाली संस्थाएँ नहीं हैं, वहाँ के बच्चों को वैसा अवसर नहीं मिल पाता, जैसा उन बच्चों को मिल पाता है, जिनकी बस्तियों में ये संस्थाएँ उपलब्ध हैं।
(ii) इस देश के विभिन्न भागों में शैक्षिक विकासों में भारी असन्तुलन देखने को मिलता है- एक राज्य और दूसरे राज्य के शैक्षिक विकासों में बहुत बड़ा अन्तर मौजूद है और एक जिले तथा दूसरे जिले के विकास में और भी बड़ा अन्तर देखने को मिला है।
(iii) शिक्षा के अवसरों की विषमता का एक और कारण यह है कि जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग गरीब है और बहुत थोड़ा भाग धनी। किसी शिक्षा संस्था के समीप होते हुए भी गरीब परिवारों के बच्चों को वह अवसर नहीं मिलता, जो धनी परिवारों के बच्चों को मिल जाता है।
(iv) शिक्षा के अवसरों की विषमता का एक और बड़ा दुःसाध्य रूप विद्यालयों तथा कॉलेजों के अपने-अपने भिन्न स्तरों के कारण पैदा होता है। जब किसी विश्वविद्यालय या वृत्तिक कॉलेज जैसी संस्था में प्रवेश उन अंकों के आधार पर दिया जाता है, जो माध्यमिक स्तर की समाप्ति पर दी गयी सार्वजनिक परीक्षा में प्राप्त हुए हों और प्रवेश साधारणतया इसी आधार पर होता है, तब देहाती क्षेत्र के साधनहीन ग्रामीण विद्यालय में पढ़े छात्र के लिए यह कसौटी या मापदण्ड एक समान नहीं रहता।
(v) घरेलू पर्यावरणों के भिन्न-भिन्न होने के कारण भी भारी विषमताएँ उत्पन्न होती हैं। देहात के घर या शहरी गन्दी बस्तियों में रहने वाले और अनपढ़ माता-पिता की सन्तान को शिक्षा पाने का वह अवसर नहीं मिलता, जो उच्चतर शिक्षा पाये हुए माता-पिता के साथ रहने वाली उनकी सन्तान को मिलता है। “
(vi) भारतीय परिस्थितियों ने निम्नलिखित दो प्रकार की शैक्षिक विषमताओं को प्रमुख रूप से जन्म दिया है- (i) शिक्षा के सभी स्तरों पर तथा क्षेत्रों में लड़कों तथा लड़कियों की शिक्षा में भारी अन्तर । (ii) उन्नत वर्गों तथा पिछड़े वर्गों- अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के बीच शैक्षिक विकास का अन्तर ।
4. भारतीय शिक्षा नीति- 1986 के खण्ड (iv) में शैक्षिक विषमताओं को निम्नलिखित क्रम में वर्गीकृत किया गया है
(i) महिलाओं की समानता हेतु शिक्षा (Education for Women’s Equality),
(ii) अनुसूचित जातियों के लिए शिक्षा (The Education for Scheduled castes),
(iii) अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा (The education for scheduled Tribes),
(iv) शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े हुए अन्य वर्ग और क्षेत्र (Other educationally Backward sections and Areas)- अल्पसंख्यक (Minorities), विकलांग (Handicapped), प्रौढ़ शिक्षा (Adult Education) आदि।
संक्षेप में, जिन अनेक कारणों से शिक्षा में अवसरों की समानता उत्पन्न नहीं हो पा रही है उनमें मुख्य कारण हैं-
- शिक्षा की सुविधाओं का विद्यमान न होना,
- समाज में गरीब तथा साधारण लोगों की अधिक जनसंख्या,
- शिक्षण संस्थाओं के स्तरों में विभिन्नता,
- उन्नत संस्थाओं में प्रवेश की कठिन शर्ते,
- घर के वातावरण में विभिन्नता,
- छात्र छात्राओं को उपलब्ध शिक्षा की सुविधा में असमानता।
- अनुसूचित तथा आदिम जातियों में शिक्षा का कम विकास। (8) शिक्षा का महँगा होना।
- अंशकालिक एवं अविधिक शिक्षा की कमी।
- निजी संस्थाओं तथा ट्यूशन-व्यवस्था।
- विद्यालयों के भौतिक स्वरूप में विभिन्नता ।
- अध्यापकों का पक्षपातपूर्ण व्यवहार ।
- शैक्षिक प्रशासन एवं व्यवस्था में कार्यरत अधिकारियों के कार्य के गलत तरीके।
इन कारणों का विवेचन करने पर दो-तीन कारण ऐसी दिखलायी पड़ते हैं जिनके चलते शिक्षा में अवसरों का समकरण कभी भी उत्पन्न नहीं हो सकता। वे कारण हैं- देश की बहुत बड़ी जनसंख्या का गरीब होना, शिक्षा की सुविधाओं का न होना, घर का अनुपयुक्त वातावरण, शैक्षिक प्रशासन और व्यवस्था में कार्यरत अधिकारियों के कार्य के गलत तरीके तथा उन्नत संस्थाओं में प्रवेश की कठिन शर्तें ।
शैक्षिक अवसरों में समानता उत्पन्न करने के उपाय (Measures to Promote Equality in Educational Opportunity)
शैक्षिक अवसरों में समानता उत्पन्न करने की दृष्टि से निम्नलिखित उपाय प्रभावशाली सिद्ध होंगे-
1. निःशुल्क शिक्षा- शिक्षा आयोग का विचार है कि देश को उस स्थिति पर पहुँचने के लिए कार्य करना चाहिए जिसमें सम्पूर्ण शिक्षा निःशुल्क हो ।
2. प्रवेश के समतामूलक तरीके- देश की उच्च शिक्षा की संस्थाओं और पब्लिक स्कूलों में प्रवेश पाना एक दुष्कर कार्य है। ग्रामीण अंचलों में स्थित विद्यालयों के कितने छात्र ऐसी संस्थाओं में प्रवेश पाते हैं यह सर्वविदित है। प्रवेश परीक्षा इसमें सबसे बड़ी है। जब तक विशेष प्रकार की शिक्षा संस्थाओं में विशेष ढंग से प्रवेश का रास्ता बन्द नहीं किया जायेगा तब तक शिक्षा में समान अवसर की बात बेकार होगी। इसलिए इस समय पर विचार करते समय शिक्षा आयोग ने चुनाव के अधिक भरोसे योग्य समतामूलक तरीके निकालने की आवश्यकता पर बल दिया है।
3. शिक्षा-व्यवस्था सम्बन्धी ठोस कार्यक्रम- एक तरफ भारत की विषम परिस्थिति है और दूसरी ओर शिक्षा में समान अवसर उत्पन्न करने की बात। सर्वप्रथम समाज के गरीब एवं कमजोर वर्ग की शिक्षा व्यवस्था सम्बन्धी ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन करना होगा जिनसे उन्हें तुरन्त लाभ हो सके। इसके लिए कार्यक्रम ठोस और सबल होना चाहिए। पिछड़े एवं गरीब वर्ग के बच्चों को प्रत्येक स्तर पर मध्याह्न भोजन, मुफ्त पुस्तकें एवं अन्य शिक्षण सामग्री उपलब्ध कराना, शिक्षण में व्यक्तिगत ध्यान देना तथा निःशुल्क ट्यूशन की व्यवस्था आदि करके आगे बढ़ाया जा सकता है। पिछड़े एवं गरीब विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा संस्थाओं में स्थान सुरक्षित करना होगा और उनके प्रवेश के बाद उन पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान इसलिए देना होगा कि उनमें अनेक प्रकार की वातावरण सम्बन्धी न्यूनताएँ होती हैं।
गरीब विद्यार्थियों के घरों का वातावरण उत्प्रेरक नहीं होता है इसलिए शिक्षा संस्थाओं में उनके लिए निजी ट्यूशन की व्यवस्था अलग से करनी होगी। जो गरीब विद्यार्थी दूरी के कारण विद्यालयों तक नहीं पहुँच पाते हैं उन्हें यथासम्भव स्थानीय परिस्थिति के अनुसार यातायात की सुविधा प्रदान करनी होगी। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बच्चों को सुविधाएँ अवश्य प्रदान की जाती हैं परन्तु अभी तक उनकी शिक्षा का स्तर वैसा नहीं हे पाया है जैसा कि सम्पन्न व्यक्तियों के बच्चों का है। सर्वाधिक और अविधिक साधनों का प्रयोग करके उनके लिए इस प्रकार के वातावरण का निर्माण करना होगा जिससे कि उनके अन्तर्गत उनकी कुशलताओं का पूरा-पूरा विकास हो सके।
4. निःशुल्क पाठ्यपुस्तकें तथा लेखन सामग्री- प्राथमिक स्तर पर निःशुल्क पाठ्य-पुस्तकें और लिखने की सामग्री बालकों को दी जाय।
5. प्रौढ़ साक्षरता का क्रियान्वयन- प्रौढ़ साक्षरता के क्रियान्वयन से गरीब और पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन दृष्टिकोण में तेजी से परिवर्तन उनके जीवन स्तर को उन्नत बनायेगा और वे उपलब्ध शिक्षा सुविधाओं का अधिकतम लाभ उठाने के लिए प्रयत्नशील होंगे। प्रौढ़ों के जीवन दर्शन का सीधा प्रभाव स्कूल जाने वाले बच्चों पर पड़ता है। प्रौढ़ों के नियोजित और नियमित शिक्षण के द्वारा धर के वातावरण में तेजी से सुधार आता है इसलिए प्रौढ़ शिक्षा के ठोस और समयबद्ध कार्यक्रमों की आवश्यकता शिक्षा में समान अवसर की दृष्टि से बहुत अधिक है।
6. छात्रों की शिक्षा पर विशेष बल- प्रत्येक स्तर पर लड़कों और लड़कियों की शिक्षा में बहुत असमानता है। इस असमानता को दूर करने के लिए लड़कियों की शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है। केन्द्र और राज्यों में दोनों ही जगह लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा पर नजर रखने के लिए शिक्षा आयोग ने एक विशेष तन्त्र की स्थापना का सुझाव दिया है।
7. विकलांग बच्चों की अलग से शिक्षा- शिक्षा आयोग ने विकलांग बच्चों की शिक्षा को नियमित स्कूल कार्यक्रमों के अन्तर्गत समेकित करने का सुझाव दिया है परन्तु ऐसे बच्चों का शिक्षण अलग से विशेष कुशलता प्राप्त अध्यापकों द्वारा ही किया जाना चाहिए।
8. छात्रवृत्तियों की योजना- शिक्षा आयोग का सुझाव है कि छात्रवृत्तियों की योजना को खुले तौर से बढ़ावा दिया जाय। भारत में शिक्षा की असमानता केन्द्र और राज्यों के बीच, राज्यों और राज्यों के बीच, जनपदों और जनपदों के बीच तथा गाँवों और गाँवों के बीच है। यह अन्तर एक सीमा तक बराबर बना रहेगा, परन्तु इस अन्तर को समाप्त करने का जब तक सम्पूर्ण देश में समन्वित प्रयास नहीं किया जायेगा तब तक शिक्षा में समान अवसर की बात व्यर्थ ही मानी जायेगी।
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