समावेशी शिक्षा की अवधारणा क्या है ? समावेशी शिक्षा के ऐतिहासिक विकास का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
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समावेशी शिक्षा की अवधारणा (Concept of Inclusive Education)
समावेशी शिक्षा अपंग बालकों की शिक्षा सामान्य स्कूल तथा सामान्य बालकों के साथ कुछ अधिक सहायता प्रदान करने की ओर इंगित करती है। यह शारीरिक तथा मानसिक रूप से बाधित बालकों को सामान्य बालकों के साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा प्राप्त करना विशिष्ट सेवाएँ देकर विशिष्ट आवश्यकताओं के प्राप्त करने के लिये सहायता करती है।
समावेशी अथवा समावेशी शिक्षा में प्रतिभाशाली बालक तथा सामान्य बालक एक साथ कक्षाओं में पूर्ण समय या अर्द्धकालिक समय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। इस प्रकार मिलना, समायोजन, सामाजिक या शैक्षिक अथवा दोनों को समन्वित करता है।
(1) समावेशी शिक्षा ऐसी शिक्षा है जिसके अन्तर्गत शारीरिक रूप से बाधित बालक तथा सामान्य बालक साथ-साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा ग्रहण करते हैं। अपंग बालकों को कुछ अधिक सहायता प्रदान की जाती है। इस प्रकार समावेशी शिक्षा अपंग बालकों के पृथक्कीकरण के विरोधी व्यावहारिक समाधान है।
(2) समावेशी शिक्षा विशिष्ट शिक्षा का विकल्प नहीं है। समावेशी शिक्षा तो विशिष्ट शिक्षा का पूरक है। कभी-कभी बहुत कम शारीरिक रूप से बाधित बालकों को समावेशी शिक्षा संस्था में प्रवेश कराया जा सकता है। गम्भीर रूप से अपंग बालक को जो विशिष्ट शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण करते हैं, सम्प्रेषण व अन्य प्रतिभा ग्रहण करने के पश्चात् वे समन्वित विद्यालयों में भी प्रवेश पा सकते है।
(3) यह समाज में अपंग तथा सामान्य बालकों के मध्य स्वस्थ सामाजिक वातावरण तथा सम्बन्ध बनाने में समाज के प्रत्येक स्तर पर सहायक है। समाज में एक-दूसरे के मध्य दूरी कम तथा आपसी सहयोग की भावना को प्रदान करती है। .
समावेशी शिक्षा का इतिहास एवं विकास (History and Development of Inclusive Education)
समाज तथा सभ्यता के विकास में हुए परिवर्तन के कारण शारीरिक रूप से बाधित बालकों की शिक्षा के प्रति समाज की स्थिति तथा विशेषतः माता-पिताओं की स्थिति तथा व्यवहार में परिवर्तन हुआ। प्रथम अवस्था में तो अपंगों के साथ दुर्व्यवहार किया गया तथा उन पर ध्यान नहीं दिया गया। उन्हें ईश्वर का अभिशाप तथा माता-पिता पर बोझ समझा गया। दूसरे चरण में बाधित बालकों को माता-पिता या अन्य का संरक्षण दिया गया। शारीरिक रूप से बाधितों के बारे में सामान्यतः ऐसा कहा जाता था कि अपंग पूर्णतः बेकार हैं, ये स्वयं कुछ भी करने में असमर्थ हैं, ये ऐसे जीव हैं जो कृपा के पात्र हैं तथा जब तक ये जीवित हैं तब तक इनकी देखभाल करनी होगी।
इसलिए उनकी शिक्षा, प्रशिक्षण, आजीविका तथा पुनर्वासन के बारे में प्रयास नहीं किये गये। अगली अवस्था में, उनकी शिक्षा के लिये एक प्रयास किया गया, लेकिन बाधित बालकों को अन्य बालकों से पूर्णतः भिन्न समझा गया। उनके बारे में विचार पैदा हुआ है कि ये सामान्य शिक्षा केन्द्रों से शिक्षा ग्रहण करने के योग्य नहीं हैं। इसलिए देश में पहली बार विशिष्ट शिक्षा देने के लिये विद्यालय तथा शिक्षण संस्थाएँ स्थापित हुई। इन संस्थाओं का मुख्य उद्देश्य बाधित बालकों को शिक्षा तथा प्रशिक्षण देना था। शारीरिक रूप से बाधित बालकों की शिक्षा का कार्य उनके माता-पिताओं से तथा सामान्य बालकों से अलग विशिष्ट शिक्षा केन्द्रों में रखकर किया गया।
20वीं शताब्दी को उत्तरार्द्ध में नवीन विचारों तथा धारणाओं ने बाधित बालकों की शिक्षा के लिये नई दिशाओं में द्वार खोल दिये। अब यह समझा जाने लगा कि अपंग बालक सामान्य बालक से भिन्न नहीं है। अपंग बालक एक ऐसा बालक है जिसकी आवश्यकताएँ विशिष्ट प्रकार की हैं। उनकी विशिष्ट आवश्यकताएँ हैं। समाज के अन्य सदस्यों की तरह, अपंगों को भी शिक्षा प्राप्त करने के कार्य करने तथा समाज में भागीदारी अथवा सहयोग का समान अधिकार होना चाहिए, जो पूर्ण रूप से बाधित नहीं हैं, जिनका बाधित स्तर कम है अथवा अस्थि-बाधित है, ऐसे बालकों का शिक्षण सामान्य शिक्षण संस्था में सामान्य बालकों के साथ कुछ अतिरिक्त सहायता देकर किया जाना चाहिए।
अन्य देशों में समावेशी शिक्षा का इतिहास (History of Inclusive Education in Other Countries)
19वीं शताब्दी में अमेरिका तथा यूरोप में अपंग बालकों की समावेशी शिक्षा हेतु क्रमबद्ध प्रयास प्रारम्भ हुए। विशिष्ट शिक्षा के जन्मदाता अधिकांश यूरोप के चिकित्सक थे, लेकिन अमेरिकावासियों ने समय-समय पर यूरोप में शारीरिक रूप से बाधित बालकों के लिये विशिष्ट शिक्षा के विकास से सम्बन्धित ज्ञान ग्रहण करते रहे। यहाँ तक कि कुछ अमेरिका के विशेषज्ञ अपंग बालकों के शिक्षण के बारे में ज्ञान प्राप्त करने यूरोप जाया करते थे। यह वास्तविकता है कि यूरोप के विशेष मानसिक मन्दित बालकों के बारे में अधिक विचारशील थे। इस प्रकार अधिकांश प्रारम्भिक कार्य बधिर तथा अन्धे बालकों की विशिष्ट शिक्षा के लिये अमेरिका ने भी अनेक क्षेत्र स्थापित किये।
समावेशी शिक्षा के इतिहास में यूरोप के प्रयास अच्छे तथा अमेरिका के प्रयास (Europe Good America Bad) करने के संकेत मिलते हैं, लेकिन यह सत्य है कि महत्त्वपूर्ण विचार विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में यूरोप से अमेरिका गये। अधिकांश यूरोप तथा अमेरिका के चिकित्सक (Physician) विशेषज्ञ तथा शिक्षाविदों ने समावेशी शिक्षा के विकास हेतु अपना-अपना सहयोग दिया। ऐसे व्यक्तियों में से कुछ प्रसिद्ध विद्वान निम्नलिखित हैं-
- जे०एम०जी० इटार्ड (J.M.G. Itard, Physician)
- ई० सेंग्विन (E. Seguin, Teacher of MR)
- सिगमण्ड फ्राइड (Sigmund Frud)
- एन सुलिवन (Ann Sullivan)
- सेम्यूल ग्रिडले होव ( Samule Gridely Howe)
- टी०एच० गेलोडट (T.H. Gallaudet)
- फिलिप पाइने (Philope Pine)
(1) समावेशी शिक्षा का यूरोप में विकास (Development of Inclusive Education in Europe)
समावेशी शिक्षा हेतु यूरोप में प्रमुख शिक्षाविदों के योगदान निम्न हैं-
इटार्ड का योगदान- फ्रांस के (Physician) इटार्ड को समावेशी शिक्षा के इतिहास का अग्रणी मानते हैं। इटार्ड प्रथम व्यक्ति था जिन्होंने समावेशी शिक्षा अपंग बालकों के लिये प्रारम्भ की। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में विकटर नामक 11 या 12 वर्षीय जंगली बालक की शिक्षा के बारे में इटार्ड ने निश्चय कर लिया। 3 या 4 वर्ष की अवस्था में इस बालक को जंगल में छोड़ दिया गया था। जिस समय इस बालक को पकड़ा तो उसका व्यवहार तथा उसका रूप, आकृति पशुओं के समान थी। वह भद्दा, नंगा तथा भावयुक्त बोलने में असमर्थ था। वह खाने को गन्ध द्वारा सूँघकर चुनता था। इटार्ड उसे सामान्य नहीं बना सका, लेकिन उसने बालक के व्यवहार को नाटकीय विधि से व्यवस्थित शिक्षण के आधार पर सुधार दिया, विकास कर दिया।
इटार्ड अनुदेशानात्मक विधियों का जन्मदाता था। वह प्रथम वाणी विशेषज्ञ (Speech Specilist) बाधिरों के चेहरे के भाव से समावेशी शिक्षा को देने वाला तथा मानसिक मन्दित और शारीरिक रूप से बाधितों की समावेशी शिक्षा का जन्मदाता समझा जाता था। विकटर के साथ उसके द्वारा किये गये प्रयोगों से वह निश्चित हो गया कि मानसिक मन्दित बालक भी सीख सकते हैं तथा उनमें सुधार भी लाया जा सकता है।
सेंग्विन का योगदान- सेंग्विन मानसिक मन्दित बालकों के महान शिक्षक के रूप में जाना जाता है। इटार्ड के कार्यों से प्रेरणा पाकर, उसने 1837 में पेरिस में मानसिक मन्दितों के लिये एक शिक्षण संस्था की स्थापना की। 1846 में उसने एक महान पुस्तक का विमोचन किया जिसका शीर्षक ‘मूर्खता’ और इसका शारीरिक विज्ञान की विधियों द्वारा उपचार (Idiocy and its treatment by the physiological method) किया जाता था। बालक के समान रूप से शारीरिक, आत्मिक तथा नैतिक विकास को उन्नतिशील बनाना मुख्य रूप से उसके शिक्षण का प्रत्यय था। उसके द्वारा विकसित प्रविधियाँ तथा संसाधन मॉण्टेसरी विधि के आधार बन गये। मानसिक मन्दितों की शिक्षा के लिये सेम्यूल होवे के साथ कार्य करने के लिये सेंग्विन अमेरिका चला गया।
19वीं शताब्दी के मध्य इटार्ड, सेंग्विन तथा उनके उत्तराधिकारियों के द्वारा ज्ञान सम्बन्ध शोध अध्ययन तथा विचारों ने समावेशी शिक्षा के क्षेत्र को आज तक की परिस्थितियों में पहुँचा दिया। आज की समावेशी शिक्षा का स्वरूप उन्हीं विशेषज्ञों के कार्यों पर आधारित है, जो निम्नलिखित हैं-
- मानसिक मन्दित बालकों के लिये वैयक्तिक अनुदेशन।
- मानसिक मन्दित बालकों के लिये सावधानीपूर्वक बनाई गई विशिष्ट कार्यों की रूपरेखा।
- प्रोत्साहन पर बल देना।
- बालक के वातावरण की व्यवस्था |
- ठीक कार्य के लिये तुरन्त पुनर्बलन देना ।
- विभिन्न कार्यक्षेत्र की प्रतिभाओं का विकास करना।
- प्रत्येक के शिक्षण में जितना सम्भव हो अधिक-से-अधिक विश्वास की भावना का विकास करना।
- इस स्तर तक के बालक में सुधार की सम्भावना के प्रति प्रयास करना।
(2) समावेशी शिक्षा का अमेरिका में विकास (Development of Inclusive Education in America)
ऐसा माना जाता है कि पर्याप्त सीमा तक समावेशी शिक्षा के क्षेत्र के प्रारम्भिक कार्यों का विकास यूरोप में हुआ, लेकिन उन वर्षों में बहुत से अमेरिका के विशेषज्ञों ने भी अपना-अपना अथक सहयोग समावेशी शिक्षा हेतु दिया।
लुइस ब्रेल का योगदान – अन्धे बालकों की शिक्षा के इतिहास में लुइस ब्रेल का महान योगदान है। बचपन में दुर्घटना होने के कारण दृष्टिविहीन हो गया। उसके दृष्टिबाधित बालको की पढ़ाई व लिखाई के लिये एक क्रान्तिकारी आयाम का विकास किया। ब्रेल विधि दृष्टिबाधितों के लिये वरदान है तथा शिक्षण के क्षेत्र में यह आज भी सभी से प्रभावशाली विधि के रूप में प्रचलित है।
होवे का योगदान- सम्यूल ग्रिडले होवे अमेरिका का प्रथम Physician था जिसने दृष्टिहीन तथा बधिरों की शिक्षा में पर्याप्त रूचि ली। उसके शिष्यों में लोरा क्रिडेग मैन नामक बालक भी था जो मूक-बधिर एवं दृष्टिविहीन था। लोरा को शिक्षित करने में होवे का प्रयास सराहनीय रहा था। देश-विदेश में होवे प्रसिद्ध हो गया।
ऐन सुलिवन का योगदान- ऐन सुलिवन होवे की छात्रा थी। ऐन को होवे के द्वारा दी गई शिक्षा तथा उसके द्वारा प्रयुक्त की गई विशिष्ट विधियों का अधिक प्रभाव पड़ा। यद्यपि यह दृष्टिबाधित थी, फिर भी उसने हेलन कौलर की शिक्षा के रूप में कार्य किया। हेलन कौलर मूक-बधिर दृष्टिविहीन थी। सुलिवन के द्वारा अथक प्रयासों के कारण आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त हुए। हेलन ने शीघ्र ही वस्तुओं के नाम तथा उसके वातावरण की घटनाओं के बारे में सीख लिया। लगभग दस वर्ष की आयु में उसने जोर से बोलना सीख लिया, “मैं…. अब… ..नहीं……हूँ।” बाद में हेलन ने स्नातक की उपाधि प्राप्त की तथा बहुत-सी पुस्तकें भी मूक….. लिखीं।
ग्रैलोडेर का योगदान- थोमस हापकिन गैलोडेर की बधिरों की शिक्षा में अधिक रुचि थी। उसने बधिरों के लिये प्रथम आवासीय शिक्षा संस्था की स्थापना सन् 1817 में हार्ट फोर्ड नामक शहर, अमेरिका में की थी। बधिरों की शिक्षा के लिये गैलोडेर कॉलेज वाशिंगटन में स्थापित किया गया जिसका नाम गैलोडेर के सम्मान में रखा गया।
3. समावेशी शिक्षा का विकास क्रम (Fall and Rise of Inclusive Education)
समावेशी शिक्षा को नया स्वरूप देने में यूरोप एवं अमेरिका अग्रणी है। अमेरिका व यूरोप के अनेक शिक्षाविदों व चिकित्सकों की सहायता तथा प्रयासों से समावेशी शिक्षा को नया रूप मिला। वास्तव में समावेशी शिक्षा के प्रारम्भिक वर्षों में शिक्षाविदों व चिकित्सकों के नये-नये विचारों के कारण स्थायित्व नहीं आ सका परन्तु शारीरिक रूप से बाधित बालकों के शिक्षा क्षेत्र में वास्तव में अद्भुत परिणाम प्राप्त हुए। इन शिक्षाविदों, विशेषज्ञों की कार्यक्षमता, प्रगतिशील विचार तथा सन्तोषजनक परिणाम मिलने के बावजूद भी 19वीं शताब्दी के अन्त में, विशिष्ट शिक्षा में गतिरोध हो गया। निराशावादी विचारों के कारण मानवीय तथा प्रभावशाली उपचार प्रभावहीन संस्थाओं में परिवर्तित हो गये तथा आशाएँ निराशा में बदल गईं। विशिष्ट शिक्षा के लिये संस्थाओं का प्रारम्भ जो सन् 1800 के अन्त में हुआ था धीरे-धीरे बस होता गया। समावेशी शिक्षा में गतिरोध के निम्नलिखित कारण थे-
(1) अपंग बालकों के माता-पिताओं की आशाएँ पर्याप्त रूप से बढ़ गईं। वे शिक्षाविदों तथा अन्य विशेषज्ञों से बालकों के शिक्षण क्षेत्र में चमत्कारिक विकास की आशाएँ करते थे।
(2) कुछ क्षेत्रों में समावेशी शिक्षा देने वाले शिक्षाशास्त्री असफल रहे।
(3) शिक्षण क्षेत्र में उपयुक्त विधियों को लेकर शिक्षाविदों में विवाद रहा, वे आपस में अपंग बालकों की शिक्षा में अपनायी जानी वाली विधियों पर सहमत नहीं हो पाये।
(4) अधिक संख्या में अपंग बालकों की विशिष्ट शिक्षा के लिये साधनों की कमी थी।
(5) गृह युद्ध के कारण सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक उथल-पुथल प्रभाव पड़ा।
(6) शारीरिक रूप से बाधितों के बारे में प्राचीन धारणा कि अपंग बालक होना तुच्छ है तथा कुछ भी नहीं कर सकते हैं। उनकी उन्नति के लिये समुचित विचारों का न होना।
(7) चार्ल्स डारविन के “जीवों के जीवन का विकास” के सम्बन्ध में सिद्धान्त का प्रभाव द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् विशिष्ट शिक्षा में प्रगति हुई। इसका मुख्य कारण कुछ धनवान एवं शक्तिशाली व्यक्तियों जैसे राष्ट्रपति कैनेडी तथा राष्ट्रपति जोनसन आदि का रुचि लेना था। शारीरिक रूप से बाधित बालकों की शिक्षा के लिये इन व्यक्तियों की भागीदारी से शिक्षण क्षेत्र को बल मिला । विभिन्न देशों में आजादी तथा सामाजिक विकास के साथ-साथ, शिक्षा को सम्पूर्ण विश्व में बालकों का मूल अधिकार समझा गया। इस विचार ने बाधित बालकों की शिक्षा की मुख्य धारा के लिये एक मार्ग बना दिया।
4. समावेशी शिक्षा हेतु वैधानिक प्रावधान (Provisions in Legislation for Inclusive Education)
अभी हाल के वर्षों में, जीवन से जूझने के लिये उद्देश्यों में परिवर्तन हुए हैं। डार्विन के ” अनुसार, “केवल उन्हीं जीवों को संसार में जीवित रहने का अधिकार था जो अन्य जीवों से शक्तिशाली है” लेकिन अब समानता का अधिकार है। समानता के प्रत्यय में बाधित बालकों के अधिकार भी सम्मिलित हैं जो अमेरिका में 1975 में कानूनी रूप से संविधान के अन्तर्गत लाया गया। इस पर भी लाखों बाधितों के अधिकारों को विकासशील देशों में व्यावहारिक व वास्तविक रूप में नहीं अपनाया गया।
भारत को पिछड़े हुए नागरिकों का सामाजिक स्तर ऊँचा उठाने तथा उनकी भलाई के लिये समर्पण है। भारत के संविधान में पिछड़े समुदाय की देखभाल तथा सुरक्षा के लिये बहुत-से प्रावधान किये गये हैं, जिससे इस लक्ष्य की पूर्ति हो सके। 1980 में विस्तृत कानून बनाने के बारे में प्रयास प्रारम्भ हुए। 1981 के वे लक्ष्य जिनकी बाधितों के लिये अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में घोषणा की गई समानता तथा पूर्ण सहयोग के लिये समर्पित है। 1989 में बहरूल इस्लाम कमेटी ने अनुभव किया कि शारीरिक रूप से बाधितों के अधिकारों की सुरक्षा की जाये। भारत के संविधान की धारा 16 तथा 46 के अन्तर्गत बाधितों की शारीरिक, मानसिक कल्याण एवं प्रतिष्ठा से सफल जीवन बिताने के लिये प्रावधान है।
इस विधान के अनुसार, राज्य सरकार शारीरिक व मानसिक बाधितों एवं उनकी चिकित्सा सम्बन्धी आवश्यकता को पूरा करने के लिए उत्तरदायी है। इस उत्तरदायित्व में अपंगों की शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, मनोरंजन, सामाजिक सुरक्षा, नौकरी के अवसर, उनका पुनर्वासन आदि भी सम्मिलित हैं। भारतीय पुनर्वासन परिषद् कानून, 1992 (Rehabiliation Council of India Act, 1992) बनाया गया है जिसमें विशिष्ट शिक्षा के कार्यों के नियंत्रण हेतु परिषद् को अधिकार दिये गये हैं।
विभिन्न पश्चिमी देशों ने संवैधानिक प्रावधान में अपंगों की समन्वित शिक्षा के पक्ष में दिया है। भारत में यद्यपि ऐसा कोई कानून नहीं है, फिर भी 1964 के पश्चात् आने वाले वर्षों में बाधित बालकों की नियमित शिक्षण एवं शिक्षा संस्थाओं में स्थापन हेतु पर्याप्त व्यवस्था को सहयोग मिला है। सन् 1970 के दशक के प्रारम्भ में शारीरिक रूप से बाधित बालकों के लिये समन्वित शिक्षा के लिये समान कार्यक्रम के आरम्भ में भारत सरकार द्वारा विभिन्न राज्यों में की गई इस योजना का नवीनीकरण किया गया तथा अब इसके कार्यक्षेत्र में निम्नलिखित प्रकार के अपंग सम्मिलित हैं-
- मानसिक मन्दित
- अधिगम असमर्थी
- दृष्टिबाधित
- श्रवणबाधित
- वाणीबाधित
- मानसिक दोष
प्रतिभाशाली बालकों की शिक्षा, प्रशिक्षण, देखभाल एवं पुनर्वासन का इतिहास पुराना है लेकिन विज्ञान सम्बन्धी स्वरूप का इतिहास बहुत नया है। विशिष्ट शिक्षा का जन्म और इसके विकास के बारे में समझना अति आवश्यक है जिसकी सहायता से अनुमान लगाया जा सके कि इस क्षेत्र में भारत कहाँ पर पहुँचा है, भारत की क्या स्थिति है ? शारीरिक, मानसिक दोषयुक्त बालक समाज में उपेक्षणीय थे। मानसिक बीमारियाँ प्राचीन समय में किसी श्राप का परिणाम समझा जाता था। ऐसी बीमारियों से प्रभावित बालकों को या तो दण्ड, प्रताड़ना दी जाती थी या मार दिया जाता था। प्राचीन यूनान एवं रोम के विद्वानों का चिकित्सकों ने अपंगों के जीवन को संरक्षण देने के लिये कुछ प्रयास किये एवं उनके लिए विशेष स्थान (पागलखाना), बनाये। इससे लोगों के पुराने विचारों में परिवर्तन आया। इस प्रकार की स्थिति एवं कार्य-कलाप *18वीं शताब्दी के अन्त तथा 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुए थे।
विशिष्ट शिक्षा का इतिहास 1955 में श्रवणबाधित छात्रों की शिक्षा से आरम्भ हुआ। स्पेन के महात्मा पैड्रो पोन्स डी लीओन (1520-1584) कुछ बाधित बालकों को पढ़ाना-लिखाना तथा बोलना सिखाया। इसके साथ उसने कुछ शिक्षा के लिये कुछ विषय चुने तथा बधिर बालकों को शिक्षण दिया गया। महात्मा पैड्रो का कार्यकाल 1520 से 1584 तक रहा। पाबलो रोनेट ने 1620 में एक पुस्तक बधिरों की शिक्षा पर लिखी तथा उसने अक्षरों का विकास किया, संगृहीत किये, जिनका आज भी प्रयोग किया जा रहा है।
इंग्लैण्ड में सन् 1644 में जॉन बुलवर ने बधिरों की शिक्षा पर एक पुस्तक प्रकाशित की। ने इसके पश्चात् 1680 में जॉन बुलवर ने बधिरों की शिक्षा पर एक पुस्तक प्रकाशित की। इसके पश्चात् 1680 में जॉर्ज डालगारनो ने मूक व बधिर, लोगों का अध्यापक (Deaf and Dum men Tutor) नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें शिक्षा हेतु अनुदेशात्मक विधियों का विकास किया गया।
थोम्स ब्रेडवुड (1767) के द्वारा श्रवण बाधित बालकों की शिक्षा के लिए प्रथम शिक्षण संस्था ब्रिटेन में स्थापित की गई। ब्रेडवुड की विधियों में अक्षर एवं चिन्हों को समझाने के लिए मौखिक तथा शारीरिक रूप से किये जाने वाले कार्य की विधियों का मिश्रण था। शारीरिक भाषा का अधिक प्रयोग किया गया।
लगभग उसी समय सेम्यूल हीनकी (1929-1784) ने मौखिक विधियों का विकास किया जिसमें बालकों द्वारा होठों को पढ़ना (Lip Reading) तथा बोलने की विशिष्ट निपुणता का प्रशिक्षण दिया गया। इस शिक्षा में किसी बोलते हुए व्यक्ति के होठों तथा चेहरे को ध्यानपूर्वक देखा जाता है तथा बालक को उस व्यक्ति द्वारा बोले जा रहे शब्दों को समझने का प्रशिक्षण दिया जाता है। सेम्यूल ने 1778 में जर्मन में लिपजिग (Lipzig, Germany) नामक स्थान पर बालकों की शिक्षा का प्रयास प्रारम्भ किया तथा इस शिक्षा का विकास एफ० एम० हिल (1874) ने किया।
माइकल डेल (1712-1789) ने 1755 में सर्वप्रथम पेरिस में बाधितों की शिक्षा केन्द्र का शुभारम्भ किया और इसके साथ-साथ एम्ब्रोइज सिआर्ड (1742-1882) सांकेतिक भाषा का विकास कर रहे थे। फ्रांस की व्यवस्था में भी इन्द्रिय ज्ञान अर्थात् किसी वस्तु को छूकर और देखकर जानकारी लेने का प्रशिक्षण का भी विकास हुआ जो मॉण्टेसरी प्रशिक्षण आयाम में प्रचलित हो गई।
गैलेण्डट (1787-1851) ने फ्रांस की विधि द्वारा श्रवणबाधित बालकों की शिक्षा का प्रारम्भ किया। 1847 में गैलेण्डट ने बधिरों की शिक्षा के लिये सर्वप्रथम संस्था की स्थापना की। इसे आजकल अमेरिकन स्कूल के नाम से जाना जाता है। आगामी वर्ष में बधिरों के लिये न्यूयॉर्क में विद्यालय का प्रारम्भ किया गया। 1863 तक अमेरिका में 22 स्कूल स्थापित हो चुके थे। मासाधुसेटस ने प्रथम मौखिक स्कूल की स्थापना 1867 में बधिरों के लिए की । बोस्टन में बधिरों के लिये शिक्षण (1821) में प्रारम्भ हुआ। 1870 में न्यूयार्क शहर में युवकों के लिये शिक्षण कार्य प्रारम्भ हुआ।
इसके पश्चात् ग्राहमबेल (1847-1922) ने श्रवणबाधितों की शिक्षा के लिये अधिक कार्य किया। हेलन केलर (1880-1957) विशिष्ट शिक्षा के क्षेत्र में एक ज्वलन्त उदाहरण है जो स्वयं अन्धा तथा बधिर था, उसने विशिष्ट शिक्षा द्वारा शारीरिक दोषों पर विजय प्राप्त की थी।
बधिरों की शिक्षण सेवा के क्षेत्र में समुचित विकास नहीं हो पाये जिसका मुख्य कारण मौखिक और लिखित विधियों के अनुदेशन में सामंजस्य का न होना था लेकिन आगामी कुछ वर्षों में इस प्रकार का सामंजस्य स्थापित हो गया था। 1880 में मिलन, इटली में बधिरों की शिक्षा के लिये अन्तर्राष्ट्रीय कांग्रेस की गोष्ठी हुई। इसने निम्नलिखित दो संस्तुतियाँ कीं-
- लिखित विधि की अपेक्षा मौखिक विधि को प्राथमिकता दी जाये।
- होठों को पढ़ना (Lip Reading) या सांकेतिक भाषा अथवा शारीरिक भाषा की अपेक्षा मौखिक विधि को प्राथमिक दी जाये।
दृष्टिबाधित बालकों की शिक्षा यूरोप वेलेण्टिन हैनी (1745-1822) एक फ्रांस के सामाजिक उत्थान के कार्यकर्त्ता द्वारा प्रारम्भ हुई। इन्होंने 1784 में दृष्टिबाधितों के लिये एक राष्ट्रीय संस्था की स्थापना पेरिस में की। यह एक समन्वित स्कूल है और इसकी सफलता ने आगामी 15 वर्षों में इसी प्रकार के 7 स्कूलों को यूरोप में स्थापित कर दिया। दृष्टिबाधितों के लिये सैम्यूल ग्रिनडले होवे (1801-1876) ने 1829 में प्रथम स्कूल की स्थापना वाटरटाउन, मैसाचुसेट में हुई। इसने दृष्टिबाधितों के लिये आवासीय संस्थाओं की स्थापना हेतु प्रेरणा दी। शिकागो में विशिष्ट कक्षाओं का सामान्य शिक्षण संस्थाओं में विकास हुआ। बोस्टन में इसके 13 वर्ष पश्चात् विशिष्ट कक्षाएँ दृष्टिबाधितों के लिये प्रारम्भ हुई। हेनी ने उभरे हुए अक्षरों का विकास किया, जो अँगुलियों के द्वारा पढ़े जा सकते थे। उसने दृष्टिविहीनों के लिये सर्वप्रथम पुस्तक प्रकाशित की । लुइस (1809-1852) ने जो बचपन से ही अन्धा था ब्रेल लिपि की व्यवस्था का विकास किया। इसके लिये उसने उभरे हुए बिन्दुओं का प्रयोग किया जिसके द्वारा अक्षर तथा शब्द बनाये जा सकते थे। यह कार्य उसने अपने हाथों से किया जिसमें उसे कई वर्ष लगे। फ्रेंक हाल (1911-1943 ) ने ब्रेल लिपि के लिये टंकण मशीन विकसित की तथा 1932 से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रेल लिपि की छपाई के कार्य को प्रामाणिक कर दिया गया।
मानसिक मन्दित बालकों को शिक्षा फ्रांस के डॉक्टर इदार्ड (1775-1835) के प्रयासों से प्रारम्भ हुई। उसने 11 वर्षीय बालक, जो जंगल में किसी ने लावारिस छोड़ दिया था, की शिक्षा से शिक्षण का आरम्भ किया। इसकी कहानी ‘एवर्न का जंगली लड़का’ नामक पुस्तक में लिपिबद्ध है। एडवर्ड ऐगिवन ने (1880-1912) फ्रांस में एवं मेरिया मॉण्टेसरी (1870-1952) ने इटली में ने इस प्रविधि का अनुसरण किया। सेंग्विन ने ‘मूर्खता तथा इसका शारीरिक विज्ञान की विधियों द्वारा उपचार’ (Idioey and its Treatment by Physiological Method) नामक पुस्तक सन् 1866 में प्रकाशित की। इस पुस्तक में लिखे हुए विचार आज भी बाधितों की शिक्षा में क्रियान्वित है; जैसे- अनुदेशनों का वैयक्तिकरण, बालक के स्तर के अनुसार अनुदेशनों की शुरुआत तथा अध्यापक व शिष्य के बीच सम्बन्ध आदि। इनको मॉण्टेसरी की प्रसिद्ध विधियों में शारीरिक रूप से बाधित बालक व सामान्य बालकों की शिक्षा में सम्मिलित किया गया।
डेकरोल (1871-1932) ने 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मानसिक मन्दित बालकों की शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम बनाया तथा सम्पूर्ण यूरोप में शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की। ‘ब्रिनेट’ (1857-1911) ने बुद्धि परीक्षण की विधियों की खोज की तथा शिक्षण क्षेत्र में पर्याप्त योगदान दिया। अमेरिका में सन् (1839) में पहला दृष्टिविहीन व मानसिक मन्दित बालक ने पार्किन इन्स्टीट्यूट में प्रवेश लिया। (1848) में सर्वप्रथम आवासीय स्कूल मैसाचुसेट में खोला गया। 1917 तक अमेरिका के 4 राज्यों के अतिरिक्त अन्य सभी में मानसिक मन्दित बालकों की अनुदेशनात्मक देखभाल का कार्य लागू हो चुका था।
जर्मन में मानसिक मन्दित बालकों की विशिष्ट शिक्षा के लिये विशिष्ट कक्षा सहित (1859) में सर्वप्रथम पब्लिक स्कूल की स्थापना हुई। इसके पश्चात् आगामी कुछ वर्षों में यूरोप के अन्य देशों में विशिष्ट शिक्षा हेतु शिक्षा संस्थाएँ स्थापित हुई। अमेरिका में विशिष्ट कक्षाओं सहित प्रथम पब्लिक स्कूल मानसिक मन्द्रित बालकों के लिये 1896 में प्रोविडेन्स नामक स्थान पर रोडस टापू (Provodence Rhodes Islands) पर खोला गया।
20वीं शताब्दी से पहले अस्थि-अपंगों तथा शारीरिक बाधित बालकों के लिये विशिष्ट उपचार सुविधा अल्प मात्रा में उपलब्ध थी। अल्प जीवन शक्तियुक्त बालकों की शिक्षा हेतु विशिष्ट कक्षाओं के माध्यम से 1908 में प्रोविडेन्स, रोडस टापू मिर्गी (Epilepsy) रोग से पीड़ित बालकों की शिक्षा बाल्री मोर, मेरीलैण्ड तथा (1899) में प्रथम विशिष्ट कक्षा शिकागो शहर, अमेरिका में स्थापना हुई। मानसिक बीमारियों का वैज्ञानिक उपचार पर बालकों की मानसिकता से सम्बन्धित सर्वप्रथम एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका श्रेय एसक्वीरोल को जाता है।
इसके अतिरिक्त 1970 के दशक ने शिक्षा की मुख्य धारा तथा कम प्रतिबन्धित वातावरण को देखा तो विशिष्ट शिक्षा में सर्वोपरि प्रत्यय था। विशिष्ट कक्षाओं की सामर्थ्य पर सन्देह होने लगा जिसके कारण शिक्षण कार्य विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं और आवासीय स्कूलों से हटकर सामान्य कक्षाओं में जाने लगा अर्थात् विशिष्ट शिक्षा संस्थाओं की अपेक्षा सामान्य शिक्षा संस्थाओं के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ने लगा। अब बाधित बालकों और सामान्य बालकों के शिक्षण को साथ-साथ देने पर बल दिया जाने लगा। अलग शिक्षण को कम अथवा निरस्त किया जा रहा है जब तक कोई बालक किसी गम्भीर बाधित से ग्रस्त न हो।
समावेशी शिक्षा के मुख्य सिद्धान्त (Main Principles of Inclusive Education)
समावेशी शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्त निम्न हैं-
(1) विशिष्ट प्रक्रिया ( Special Process )- यह प्रक्रिया प्रदर्शित करती है कि शारीरिक रूप से बाधित बालकों के माता-पिताओं को विद्यालय की व्यवस्था का निर्धारण तथा विश्लेषण करने का पूर्ण अधिकार है जहाँ पर बालकों को उनकी आवश्यकतानुसार शिक्षा दी जा सके। यदि माता-पिता शिक्षण संस्था की कार्य प्रणाली से असन्तुष्ट हैं तो वह बालकों को उस संस्था से निकालकर किसी अन्य उपयुक्त शिक्षा संस्था में प्रवेश दिला सकते हैं। जहाँ पहली संस्था की अपेक्षा शिक्षा के कार्यक्रम उपयुक्त तथा बालकों की आवश्यकता के अनुरूप हों।
(2) वैयक्तिक शिक्षा कार्यक्रम (Individualized Education Programmes ) जिन विद्यार्थियों को विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता है उन्हें व्यक्तिगत शिक्षा कार्यक्रम या तो विशिष्ट कक्षाओं में दिया जाये या उनसे सम्बन्धित संसाधनयुक्त कक्षों में इस प्रकार की शिक्षा उन बालकों की वर्तमान कार्य प्रणाली और विशेष आवश्यकताओं के अनुरूप होनी चाहिए। अभिक्रमित अनुदेश को भी प्रयुक्त किया जा सकता है।
(3) माता-पिता का सहयोग (Parental Participation)- यदि शारीरिक रूप से बाधित बालकों के माता-पिता भी शिक्षण कार्यक्रमों में रुचि लेते हैं तो विशिष्ट शिक्षण कार्यक्रमों को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
(4) कोई भी निरस्त नहीं (No one is Rejected)- शारीरिक रूप से बाधित सभी बालकों को निःशुल्क उपयुक्त शिक्षा मिलनी चाहिए। सामान्य शिक्षा संस्थाओं में किसी बालक को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का विकल्प किसी विद्यालय की व्यवस्था में नहीं है।
(5) व्यक्तिगत भिन्नता दो प्रकार की होती है- (अ) दो व्यक्तियों में अन्तर, (ब) मनुष्य का स्वयं से भेद होना। दूसरे शब्दों में, कुछ छात्र अन्य छात्रों से अधिकांश गुणों में सर्वथा भिन्न होते हैं, जो शिक्षा की ओर विशेष झुकाव रखते हैं। ऐसे छात्रों को विशेष शिक्षण आवश्यकताएँ विशिष्ट शिक्षा के माध्यम से पूरी करनी चाहिए।
(6) नियंत्रित वातावरण (Restrictive Environment)- शारीरिक रूप से बाधित बालकों तथा सामान्य बालकों की शिक्षा एक ही कक्ष में साथ-साथ होनी चाहिए। यह कक्षा सामान्य हो सकती है। सामान्य कक्ष बाधित छात्रों को न्यूनतम विघ्न डालने वाला वातावरण प्रदान करता है।
(7) अविभेदी शिक्षा (Non-discriminatory Education)- समावेशन हेतु अविभेदी शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसे विद्यार्थियों की पहचान करनी चाहिए जो विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता का अनुभव करते हैं जिससे उन्हें दी जाने वाली शिक्षा का उपयुक्त स्वरूप सुनिश्चित किया जा सके। प्रत्येक छात्र की व्यक्तिगत रूप से परीक्षा होनी चाहिए। इसके पश्चात् सभी छात्रों को विशिष्ट शिक्षा के कार्यक्रम में रखा जाना चाहिए। समय-समय पर ऐसे बालकों की कठिनाइयों, समस्याओं तथा उनकी प्रगति का परीक्षण भी किया जाना चाहिए।
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