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सामाजिक असमानता का अर्थ एंव कारण | Meaning and Causes of Social Inequality in Hindi

सामाजिक असमानता का अर्थ एंव कारण | Meaning and Causes of Social Inequality in Hindi
सामाजिक असमानता का अर्थ एंव कारण | Meaning and Causes of Social Inequality in Hindi

असमानता का आशय स्पष्ट कीजिए। असमानता के प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिए।

असमानता (Inequality)

आन्द्रे बेते का कथन है कि, “आधुनिक जगत का महान विरोधाभास यह है कि हर स्थान पर मनुष्य अपने आपको समानता के सिद्धान्त का समर्थक मानते हैं और हर स्थान पर वे अपने जीवन में तथा दूसरों के जीवन में भी असमानता की उपस्थिति का सामना करते हैं।” स्पष्ट है कि समानता जहाँ एक उत्तम आदर्श है, वहाँ असमानता एक प्रत्यक्ष यथार्थ है। सभी समाज व्यवस्थाओं में असमानताएँ विद्यमान रही हैं। राजेन्द्र पाण्डे के अनुसार, ‘समस्त सामाजिक व्यवस्थाएँ दुहरे मानदण्ड रखती हैं। एक ओर समानतावादी विचारधारा का प्रतिपादन और दूसरी ओर असमानताओं का उत्पादन।” इस प्रकार सामाजिक असमानता संसार के सभी समाजों का सामान्य लक्षण है। यद्यपि सभी आधुनिक समाज सामाजिक असमानता को समाप्त करने की घोषणा करते हैं, लेकिन असमानताओं की समाप्ति आज भी एक कल्पना है। विषमता एक ऐतिहासिक घटना है। लेकिन असमानताओं की समाप्ति आज भी एक कल्पना है। विषमता एक ऐतिहासिक घटना है और यह समाजों की अनिवार्य प्रघटना भी है। सामाजिक असमानता आज मानवीय चेतना का अंग बन गई है। इस सामाजिक असमानता के लिए एक हद तक तो मनुष्य की प्राकृतिक असमानता उत्तरदायी है लेकिन मुख्य रूप से सामाजिक दशाएँ ही इसके लिए उत्तरदायी हैं। अतः सामाजिक असमानता की अवधारणा को सामाजिक दशाओं के सन्दर्भ में ही समझना अधिक यथार्थपरक होगा।

सामाजिक असमानता का अर्थ (Meaning of Social Inequality)

विद्वानों ने सामाजिक असमानता की अवधारणा का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया है। ऑक्सफोर्ड के शब्दकोष में असमानता के निम्नलिखित अर्थ बताये गये हैं-

(1) व्यक्तियों या वस्तुओं के बीच समानता का अभाव- इसे निम्न रूपों में व्यक्त किया गया है.-

  • (अ) विस्तार, मात्रा, संख्या, गहनता अथवा अन्य भौतिक गुणों से सम्बन्धित समानता का अभाव।
  • (ब) प्रतिष्ठा, स्तर या परिस्थितियों से सम्बन्धित असमानता, अर्थात् सामजिक समानता का अभाव।
  • (स) श्रेष्ठता, शक्ति या उपयुक्तता से सम्बन्धित अधिक या कम लाभप्रद स्थिति की प्राप्ति का तथ्य।

(2) असमानता व्यवहार की स्थिति- इसके अन्तर्गत निम्न रूपों को रखा जा सकता है-

  • (अ) कुछ व्यक्तियों के द्वारा दूसरे व्यक्तियों के साथ असमान व्यवहार, अनुचित व्यवहार, पक्षपातपूर्ण व्यवहार आदि।
  • (ब) वस्तुओं के उचित अंश की कमी, असमान वितरण के कारण असमान व्यवहार।

(3) वस्तु, व्यक्ति या प्रक्रिया में अनुरूपता का अभाव, असमानता तथा अनियमितता- इसके अन्तर्गत धरातल या रूपरेखा में, गतिक्रिया या दिशा में, अवधि या आवृत्ति, अनुपात में पद्धति, गुण अंश या वस्तु की अन्य बात में परिवर्तन को सम्मिलित किया जाता है।

(4) किसी आकाशीय तत्त्व की गति में अनुरूपता से विचलन।

(5) गणितीय असमानता, जैसे मूल्य या मात्रा में असमान मात्राओं के बीच सम्बन्ध या विषमता के चिह्न, दो असमान मात्राओं के सम्बन्ध में अभिव्यक्ति आदि।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि सामाजिक असमानता का अर्थ समानता का अभाव है। जब किसी समाज के सदस्य द्वारा दूसरों की तुलना में अधिक या कम लाभप्रद स्थितियों पर होते हैं तो इस सामाजिक दशा को सामाजिक विषमता (असमानता) कहा जाता है। कम या अधिक लाभप्रद स्थितियों का निर्धारण धन, वस्तुओं, पदों या शक्ति के आधार पर होता है और सामाजिक संस्तरण या सामाजिक वर्ग की अवधारणाएँ इसके परिणाम को व्यक्त करती हैं। इस प्रकार सामाजिक असमानता की अवधारणा धन-सम्पत्ति तथा आय की असमान उपलब्धि की ओर संकेत करती है, साथ ही यह प्रतिष्ठा और सम्मान की विषमता और शक्ति के असमानता वितरण की ओर भी संकेत करती है।

असमानताओं के कारण (Causes of Social Inequality)

भारत में असमानताओं के कारणों का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

(1) भूमि और पूँजी के स्वामित्व में अन्तर- भारत में आर्थिक असमानता का सबसे प्रमुख कारण भूमि और पूँजी की असमानता है। अधिक भूमि और पूँजी वालों को बिना विशेष परिश्रम किये ही लगान, ब्याज, लाभ आदि के रूप में आमदनी प्राप्त होती है और उनकी आय भी अच्छी होती है। जमींदारी प्रथा के उन्मूलन से पूर्व कृषक क्षेत्र में कितना विषम भवितरण था। एक ओर तो हजारों एकड़ भूमि का स्वामित्व जागीरदार रखता था और दूसरी तरफ भूमिहीन श्रमिक खेत में खून-पसीना एक कर देने पर भी इतना भी प्राप्त नहीं कर पाता था कि कुछ आराम का जीवन बसर कर सके। इसी प्रकार दूसरा वर्ग है सेठ साहूकारों और महाजनों का। इनका काम रुपया उधार देना, डटकर ब्याज लेना और निर्धनों का शोषण करना। इसी प्रकार उद्योग के क्षेत्र में हम देखते हैं कि देश के प्रमुख उद्योगों पर कुछ ही लोगों का अधिकार है जो प्रतिवर्ष करोड़ों रुपयों का लाभ अर्जित करते हैं अतः जब तक भूमि और पूँजी के स्वामित्व में इतना अधिक अन्तर रहेगा तब तक आय की समानता की बात करना व्यर्थ है।

(2) उत्तराधिकार- यह आर्थिक असमानता का एक प्रमुख कारण है। प्रायः धनिक पुत्र पैतृक सम्पत्ति बिना किसी परिश्रम के उत्तराधिकार में प्राप्त कर लेते हैं और धनी बन जाते हैं। इस प्रकार उत्तरदायित्व के माध्यम से आय की विषमता फलती-फूलती जाती है। धनिकपुत्र एक तो वैसे ही लाभ में रहते हैं क्योंकि उन्हें उच्च शिक्षा तथा श्रेष्ठ प्रशिक्षण सुलभ होता है और दूसरे अपने धन-बल के फलस्वरूप ये ऐसे उत्पादन क्षेत्रों में सरलता से प्रवेश पा लेते हैं जहाँ काफी लाभ होता है। दूसरी ओर बेचारे गरीबों के बच्चों को न तो सचमुच शिक्षा ही मिल पाती है और न उनके लिए कमाई के लाभकारी उत्पादन क्षेत्र ही सुलभ होते हैं।

(3) बचत-क्षमता- भारत में आय की असमानता का एक बड़ा कारण धनी व्यक्तियों के बचत क्षमता का अधिक होना है। यह बचत आय-विषमता को बढ़ाती है। यह बचत विभिन्न उत्पादन क्षेत्रों में पूँजी का रूप धारण करती है तथा किराये, ब्याज या लाभ के रूप में आय को और अधिक बढ़ाता है। दूसरी ओर निर्धन शोषण की चक्की में पिसते रहे हैं; अतः उनकी बचत क्षमता नहीं के बराबर होती है।

(4) मूल्य वृद्धि- स्थिर आय-समूहों की मूल्य वृद्धि के अनुपात में नहीं बढ़ सकी है। उत्तरोत्तर मूल्य वृद्धि के साथ आय और धन की असमानताएँ बढ़ रही हैं क्योंकि मुद्रास्फीति के कारण बड़े भूमिपति, व्यापारी, सटोरिए, उद्योगपित, चोर बाजारिए आदि अधिकाधिक आय अर्जन और धन-संग्रह करते रहते हैं।

(5) एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ- आय वितरण की समानता में एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ भी मुख्य बाधक हैं। पूँजीपति एकत्र होकर प्रायः उत्पादन क्षेत्र पर एकाधिकार जमा लेते हैं और वस्तुओं का मूल्य बढ़ा देते हैं। इसके परिणामस्वरूप जहाँ पूँजीपतियों को काफी लाभ होता है वहाँ उपभोक्ताओं को वस्तुओं पर अतिरिक्त मूल्य चुकना पड़ता है जिससे उनकी वास्तविक आय और घट जाती है। इस प्रकार धनी और निर्धन का आर्थिक अन्तर बढ़ता चला जाता है।

(6) आर्थिक शोषण की प्रवृत्ति- भारत में आर्थिक शोषण की प्रवृत्ति आर्थिक असमानता का एक प्रबल कारण है। श्रमिकों की सौदाकारी शक्ति कम है। अतः पूँजीपति उनको उनकी सीमान्त उत्पादकता से कम मजदूरी देकर उनका आर्थिक शोषण करते हैं। फलस्वरूप पूंजीपतियों का लाभ दिन-प्रतिदिन बढ़ता है जबकि श्रमिकों की हालत प्रायः दीन-हीन बनी रहती है। इस प्रकार आय की असमानता निरन्तर बढ़ती जाती हैं।

(7) आर्थिक संकेन्द्रण- देश के बड़े औद्योगिक घरानों के हाथों में आर्थिक शक्ति के अधिकाधिक संकेन्द्रण ने आर्थिक असमानता को बढ़ाया है। इसके फलस्वरूप धनिक पहले से अधिक धनवान और गरीब पहले से अधिक गरीब बन गये हैं।

(8) जातिवाद- भारत में जातिवाद ने प्रजातन्त्र के स्वस्थ विकास में बाधा उपस्थित की है। प्रजातन्त्र समानता और बन्धुत्व पर आधारित है, जबकि जातिवाद ऊँच-नीच, संकुचित निष्ठाओं एवं पक्षपात पर इस धारा में बताया गया है कि किसी के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं करेगा वास्तविकता तो यह है कि अनेक राजनेता और बड़े-से-बड़े अधिकारी भी जातिवाद की संकुचित मनोवृत्ति के शिकार हैं जो उन्हें राष्ट्रीय हितों की कीमत पर संकुचित जातिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रेरित करती है। जातिवाद व्यक्ति से व्यक्ति के बीच भेद-भाव की दीवार खड़ी कर देता है। व्यक्ति अपनी जाति के ऊपर उठकर समाज, गाँव, राष्ट्र और मानवता के दृष्टिकोण से सोच नहीं पाता। जातिवाद के कारण विभिन्न जातियों में संघर्ष होते हैं।

(9) अस्पृश्यता- यद्यपि अस्पृश्यता कानूनी रूप से समाप्त कर दी गई है किन्तु व्यवहार में अब भी जमी हुई है, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक असमानताओं का एक नग्न दृश्य देखने को मिलते हैं। धर्म के नाम पर लोगों का आर्थिक शोषण होता है।

(10) साधनों का अभाव- साधनों का अभाव भी गरीबी और असमानता को बढ़ाने में सहायक रहा है। योजना बनाते समय साधन एकत्र करने के सम्बन्ध में बढ़ा-चढ़ाकर अनुमान लगाये जाते हैं। अनेक प्रशासकीय और राजनीतिक बाधाओं का ध्यान नहीं रखा जाता। परिणामस्वरूप प्रस्तावित कार्यक्रमों का एक भाग कार्यान्वित नहीं हो पाता और कार्यक्रम लागू होते भी हैं, उनका यह प्रभाव और परिणाम नहीं हो पाता जो अधिक नियन्त्रित और सतर्क दृष्टिकोण अपनाने से होता है।

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Anjali Yadav

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