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सूर का वात्सल्य वर्णन हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है।” इस कथन के औचित्य पर प्रकाश डालिए।
अथवा
वात्सल्य के क्षेत्र का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया है, उतना किसी और कवि ने नहीं। वे इसका कोना-कोना झाँक आये हैं। इस उक्ति से आप कहाँ तक सहमत हैं?
अथवा
“सूरदास का वात्सल्य वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।” कथन की समीक्षा कीजिए।
अथवा
सूर के वात्सल्य और शृंगार वर्णन की विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
जीवन का मूल आधार प्रेम है। यह प्रेम संसार में पशु, पक्षी, मानव आदि सभी प्राणियों में पाया जाता है और जीवन में इसके विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। कहीं पर समवयस्कों में मैत्री या सखा-भाव के रूप में दृष्टिगोचर होता है, तो कहीं पति और पत्नी के मध्य दाम्पत्य-भाव के रूप में दिखायी पड़ता है। इसी प्रकार कहीं यह गुरुजनों एवं महापुरुषों के प्रति श्रद्धा भाव के रूप में सामने आता है, तो कहीं पुत्र पुत्री, लघु भ्राता आदि अपने से छोटे व्यक्ति के प्रति वात्सल्य-भाव के रूप में दिखायी देता है। इस तरह वात्सल्य भाव प्रेम का एक ऐसा प्रकार है जिसमें किसी छोटे व्यक्ति के प्रति निश्छल एवं निष्कपट प्रेम की भावना रहती है या जिसमें किसी भोले-भाले शिशु को देखकर हमारा हृदय प्रेम-तरंगों से आकुल हो उठता है तथा हम अनायास उसकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं। वात्सल्य ही प्रेम की अत्यन्त निर्मल एवं पवित्र स्थिति है। इसमें सहज सुकुमार बालक की चेष्टाओं, क्रीड़ा-कौतुक एवं अटपटे कार्यों की ही प्रधानता रहती है तथा इसके अन्तर्गत एक स्वर्गिक एवं नैसर्गिक प्रेम की ऐसी धारा प्रवाहित रहती है जिसके परिणामस्वरूप उस बालक के माता-पिता ही क्या, अन्य परिजन भी उसकी चेष्टाओं, क्रीड़ा-कौतुकों को देख-देखकर आनन्दविभोर हो जाते हैं।
वात्सल्य का संयोग पक्ष
सूर का वात्सल्य वर्णन हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है सूर ने बालकों की सहज मनोवृत्तियों का स्वाभाविक अंकन करते हुए वात्सल्य के संयोग पक्ष का बड़ा ही मार्मिक एवं मनोहारी चित्रण उपस्थित किया है, जो निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
1. बालोचित वेश-भूषा का वर्णन- सूर ने बालक कृष्ण की रूप-माधुरी को दिव्य एवं अलौकिक चित्रों द्वारा बड़ी ही सजीवता के साथ अंकित किया है। सूर के बाल-छवि वर्णन बड़े ही सरस, स्वाभाविक एवं चित्ताकर्षक हैं। उदाहरणार्थ-
(अ) हरिजू की बाल छवि कहाँ बरनि ।
सकल सुख की सींव कोटि मनोज सोभा हरनि ।
(ब) सोभा कहत नहिं आवै।
अँचवत अति आतुर लोचनपुट मन न तृप्ति कौं पावै॥
इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्रीकृष्ण की बाल-छवि अद्वितीय एवं अनुपम है, जिसे देखकर यदि अमर मुनिगन’ चकित रह जाते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। देखि री देखि आनन्दकन्द’ या ‘सखी री नन्दनन्दन देख’ अथवा ‘बरनों बाल वेष मुरारि’ आदि पदों में सूर ने कृष्ण के अलौकिक एवं अद्भुत रूप की जो रमणीय झाँकी प्रस्तुत की है, उसे देखते ही मन बाल कृष्ण के सहज सौन्दर्य में लीन होकर उनकी रूप-माधुरी का पान करने लगता है।
(2) बालोचित क्रीड़ाओं एवं चेष्टाओं का वर्णन- सूर ने कृष्ण की बाल-छवि के रमणीय चित्रों के अतिरिक्त श्रीकृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाओं आदि के भी अत्यन्त मनोमुग्धकारी एवं स्वाभाविक चित्र अंकित किये हैं, जिनमें कहीं कृष्ण घुटनों के बल आँगन में चल रहे हैं, कहीं मुख पर दधि लेप करके दौड़ रहे हैं, कहीं अपने पैर का अंगूठा चूस रहे हैं, कहीं अपने प्रतिबिम्ब को मणि-खम्भों में निहार रहे हैं और कहीं हँसते हुए किलकारी भर रहे हैं। माता यशोदा बालक कृष्ण को चलना सिखा रही हैं, वे बाल सुलभ स्वभाववश कैसे अपना हाथ माता को पकड़ाते हैं एवं किस प्रकार डगमगाते हुए पैर आगे बढ़ाते हैं, इसे सूर ने बड़ी स्वाभाविकता के साथ चित्रित किया है-
सिखवत चलन जसोदा मैया|
अरबराई कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरै पैंया॥
इसी तरह का एक दूसरा चित्र मक्खन खाते हुए शिशु कृष्ण की उन चेष्टाओं का है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें मक्खन के साथ ब्रज-रज में भी समोया हुआ देखा जा सकता है-
सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुन चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किये।
सूर ने बालक कृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाओं के अनेक चित्र अंकित किये हैं। पालने में शयन करते समय श्रीकृष्ण की स्वाभाविक बाल चेष्टा का यह चित्र कितना चित्ताकर्षक है-
कर पग गहि, अंगूठा मुख मेलत।
प्रभु पौढ़े पालने अकेले, हरषि-हरषि अपने रंग खेलत।
(3) बाल-मनोभावों एवं अन्तःप्रकृति का स्वाभाविक चित्रण- सूर ने बालकों के हृदयस्थ मनोभावों, बुद्धि चातुर्य, खीझ स्पर्द्धा, प्रतिद्वन्द्विता अपराध करके उसे छिपाने एवं उसके बारे में कुशलता के साथ सफाई देने की प्रवृत्ति आदि के बड़े चित्ताकर्षक चित्र प्रस्तुत किये हैं। कृष्ण को तो मक्खन रुचिकर लगता है, किन्तु माता यशोदा उन्हें दूध पिलाना चाहती हैं। बच्चे प्रायः दूध पीने में आनाकानी किया करते हैं और माताएँ उन्हें येन-केन-प्रकारेण फुसलाकर दूध पिलाया करती हैं। यहाँ माता यशोदा ने कृष्ण को यह कहकर फुसलाया है कि दूध पीने से तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी और वह बलराम की तरह लम्बी होकर भूमि पर लोटने लगेगी। इसी समय कृष्ण की स्पर्द्धा मिश्रित बाल-सुलभ कुशलता दृष्टिगोचर होती है; क्योंकि वे एक हाथ में दूध का कटोरा लिये हुए हैं, दूसरा हाथ अपनी चोटी पर रखे हुए हैं और देखते जा रहे हैं कि दूध पीते ही चोटी बढ़ रही है या नहीं। जब चोटी बढ़ती हुई दिखायी नहीं देती, तब माता यशोदा से पूछ बैठते हैं-
मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी।
किती बार मोहिं दूध पिवत भइ, यह अजहूँ है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों, है है लाँबी मोटी।
काँचौ दूध पिवावत पचिपचि देत न माखन रोटी ॥
दूसरा प्रसंग कृष्ण की बाल सुलभ सफाई का है। कृष्ण ने मक्खन चुराकर खा लिया है। वे रंगे हाथों पकड़े भी गये हैं, क्योंकि उनके मुख पर मक्खन लगा हुआ है परन्तु माता यशोदा के क्रोधित होने पर कैसी मधुर सफाई दे रहे हैं-
मैया मैं नहिं माखन खायौ।
ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लिपटायौ ॥
देखि तुही सीकें पै भाजन ऊँचे धरि लटकायौ ॥
तुही निरखि नान्हे कर अपने मैं कैसे करि पायौ ॥
(4) बालकों के संस्कारों, उत्सवों एवं समारोहों का वर्णन- सूर ने बालकों से सम्बन्धित संस्कारों, उत्सवों एवं समारोहों का वर्णन करते हुए भी वात्सल्य भाव की सहज अभिव्यक्ति की है, क्योंकि बालकों के कर्णछेदन, नामकरण, वर्षगाँठ आदि के अवसरों पर माता-पिता के हृदय में जो सहज उत्साह एवं स्वाभाविक प्रेम उमड़ने लगता है तथा वे कैसी-कैसी तैयारी करते हैं, सूर की आँखों से वह भी छिपा की दशा देखिए नहीं है। जैसे-कृष्ण के अन्न-प्राशन के अवसर पर नन्द के घर की दशा देखिए-
आजु कान्ह करिहैं अनुप्रासन।
मनि कंचन के थार भराए, भाँति-भाँति के बासन॥
नन्द घरनि ब्रजवधू बुलाई, जे सब अपनी पाँति।
(5) गो-दोहन तथा गो-चारण का वर्णन- सूर ने उक्त वर्णनों के अतिरिक्त कृष्ण के गो-दोहन के लिए मचलने, गौओं को दुहने, गो-चारण के लिए वन में जाने की हठ करने, गौ-चराने के लिए वन में न जाने, वन में माता द्वारा छाक भिजवाने आदि का वर्णन करके वात्सल्य भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति की है। जैसे-गो-दोहन के लिए हठ करते हुए बालक कृष्ण का वर्णन देखिए-
तनक- तनक भोप दोहिनी दै दै री मैया।
तात दुहन सीखन कह्यो मोहि धौरी गैया।
अटपटे आसन बैठिके गोधन कर लीनो।
धार अनत की देखिके ब्रजपति हँस दीनो॥
घर-घर ते आई सबै देखन ब्रज नारी।
चितै चोर चित हरि लियो हँसि गोप-बिहारी॥
वात्सल्य का वियोग पक्ष
जिस प्रकार सूर ने अत्यन्त तन्मय होकर श्रीकृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं की मनोरम झाँकियाँ प्रस्तुत करते हुए वात्सल्य के संयोग पक्ष का अत्यधिक मर्मस्पर्शी वर्णन किया है एवं बालकों की प्रवृत्तियों के मनोवैज्ञानिक एवं चित्ताकर्षक चित्र अंकित किये हैं, उसी प्रकार वात्सल्य के वियोग पक्ष का भी अत्यन्त हृदयद्रावक चित्रण किया है जो निम्न शीर्षकों में प्रस्तुत किये जा सकते हैं-
(1) श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन पर- वियोग वात्सल्य की सबसे सुन्दर झलक श्रीकृष्ण के मथुरा गमन पर अंकित की गयी है। उस क्षण ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सूर स्वयं यशोदा के रूप में अपनी आँखों में आँसू बहाते हुए रो रहे हैं और उनके प्रत्येक शब्द से वात्सल्य का अजस्र स्रोत उमड़ रहा है, क्योंकि श्रीकृष्ण के मथुरा जाने का समाचार पाते ही माता यशोदा के हृदय से वात्सल्य का स्रोत इस तरह उमड़ पड़ता है—
जसोदा बार-बार यों भाखै।
है बज में कोउ हितू हमारौ, चलत गोपालहिं राखै ॥
कहा करै मेरे छगन मगन को, नृप मधुपुरी बुलायौ।
सुफलक सुत मेरे प्रान हनन की काल रूप होई आयौ ॥
इतने रोने-पीटने पर भी जब माँ यशोदा की बात कोई नहीं सुनता और कृष्ण जी मथुरा जाने से नहीं रुकते, तब यशोदा का हृदय वियोगजन्य वात्सल्य के प्रबल वेग को सहन नहीं कर पाता और वे विलाप करती हुई कटे वृक्ष की तरह भूमि पर पछाड़ खाकर गिर पड़ती हैं।
(2) मथुरा से नन्द के अकेले लौटने पर -सूर ने यशोदा के मातृ-हृदय की वात्सल्यमयी झाँकी उस समय भी बड़ी तन्मयता के साथ अंकित की है, जिस समय नन्द अकेले ही मथुरा से लौटते हैं और माता यशोदा उन्हें द्वार पर अकेले खड़ा देखकर क्षोभ के मारे आकुल हो उठती हैं। उस क्षण माता यशोदा का हृदय वात्सल्य रस की अनेक धाराओं में फूट पड़ता है और वे अपने प्रिय पुत्र के अभाव में एक सहज टीस, स्वाभाविक आकुलता एवं नैसर्गिक व्यथा से परिपूर्ण होकर अपने पति नन्द को फटकार उठती हैं-
जसुदा कान्ह-कान्ह करि बुझे।
फूटि न गयीं तुम्हारी चारों कैसे मारग सू॥
(3) श्रीकृष्ण के मथुरा में ही निवास करने पर- सूर ने वात्सल्यजन्य वियोग का वर्णन करते हुए वात्सल्य भाव को रस की स्थिति तक पहुंचा दिया है। इसका मूल कारण यह है कि शृंगार की ही तरह वात्सल्य के भी संयोग एवं वियोग पक्ष का ही हृदयग्राही वर्णन किया गया है। इस वियोग-वात्सल्य की हृदयद्रावक झाँकी सूर ने उस समय अंकित की है, जिस समय श्रीकृष्ण अनेक बुलावा भेजने पर भी मथुरा से गोकुल नहीं आते और माता अपने पुत्र के योग्य रुचिकर वस्तुओं को नित्य अपने सामने रखी हुई देखती हैं क्योंकि न तो उसमें विरक्ति होती हैं और न तो इन्द्रिय-सुखों की लालसा, अपितु उसमें अपने आलम्बन के प्रति मातृ-हृदय की सहज एवं स्वाभाविक परिणति रहती है तथा अन्य सभी प्रकार की भक्तियों की अपेक्षा उसमें स्नेहाधिक्य के भी दर्शन होते हैं। सूर ने भी यहाँ ऐसी ही निश्छल ‘वात्सल्य भक्ति’ का वर्णन किया है, जिसमें स्नेहातिरेक के साथ-साथ माता के हृदय की सहज एवं स्वाभाविक परिणति के दर्शन होते हैं। यही नहीं, सूर के इस वात्सल्य वर्णन में तन्मयता है, मनोवैज्ञानिकता है, स्वाभाविकता है, सरलता है, सहज आकर्षण है, हृदय को आकृष्ट करने की पूर्ण क्षमता है और इसमें शिशु जीवन की एक उल्लास एवं उमंगभरी शाश्वत झाँकी अंकित है। यही कारण है कि सूर वात्सल्य के सम्राट कहे जाते हैं, बाल-मनोविज्ञान के सच्चे पारखी कहे जाते हैं और बाल-प्रकृति एवं बाल-मनोवृत्तियों के कुशल चितेरे के रूप में प्रसिद्ध हैं।
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