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महादेवी वर्मा मूलतः विरह की गायिका हैं। इस कथन की सोदाहरण समीक्षा कीजिए।
अथवा
महादेवी वर्मा विरह एवं पीड़ा की कवयित्री हैं- सिद्ध कीजिए।
अथवा
महादेवी वर्मा के विरह-वर्णन की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
विरह प्रेम का आवश्यक अंग है। प्रेम का अंकन विरह द्वारा ही होता है। वेदना की आग में तपकर प्रेम की मलीनता गल जाती है और इस तपन के पश्चात् बचता है एकान्त व शुद्ध व निर्मल प्रेम विरह प्रेम को और अधिक दृढ़ बनाता है। विरह द्वारा प्रेम अपने उचित रूप में प्रकट होता है। प्रेम में इसी के द्वारा ही गम्भीरता व स्थिरता आती है। विरह के कारण व मन की अतृप्ति के कारण व उत्सुकता के कारण अत्यधिक रस की अनुभूति होती है। प्रेम में विरह का महत्त्व है। प्रेम को ही विरह-रूपी आँच में तपकर शुद्ध प्रेम की प्राप्ति होती है और इसी विरह का निखरा हुआ रूप महादेवी वर्मा जी के काव्य में मिलता है।
महादेवी जी के जीवन में विरह- महादेवी जी के काव्य में विरह कब व कैसे उत्पन्न हुआ, यह उनके काव्य में अथवा गीतों में बार-बार कहा गया है। उनके गीत उनके विरह के सुदृढ़ रूप को प्रस्तुत करते हैं। उसी वेदना से चूर अपने क्षणिक यौवन को भूलकर भौरों की भीड़ लिये फूलों में भी उनके लिये आकर्षण न रहा। एक किशोरी बाला कवयित्री महादेवी को किसी चितवन ने तभी वेदना का साम्राज्य दे डाला था जब उनकी पलकों पर लज्जा विद्यमान थी, तभी वे कह उठी-
“इन ललचाई पलकों पर
पहरा था जब क्रीड़ा का
साम्राज्य मुझे दे डाला
उस चितवन ने पीड़ा का।”
महादेवी जी की विरह की विशेषताएँ
विरह प्रेम की पराकाष्ठा है। जिस प्रकार सोने को आग में तपाकर शुद्ध बनाया जाता है उसी प्रकार विरह की तपन से तपकर प्रेम अपने सात्विक रूप को प्राप्त करता है। महादेवी जी का विरह तपकर शुद्ध चुका है। उनके विरह-वर्णन में कल्पना की प्राचुर्यता है तो आध्यात्मिकता भी है। नारी सुलभ सात्विकता हो है तो स्वाभाविकता और सजीवता भी है। इनकी विरहानुभव व्यापक है। इनके विरह में प्रेम का आवेग, काव्य की हलचल, पीड़ा का आन्दोलन व व्यथित चित्त की पुनीत पीड़ा है। इनकी विरहानुभूति की विशेषताएँ निम्न हैं-
1. करुणा का प्राचुर्य- “इस करुणा के आधिक्य का कारण बौद्ध दर्शन का प्रभाव हो सकता है। और साथ ही छायावादी सामान्य वेदना का भी प्रभाव हो सकता है। परन्तु इस करुणा के आधिक्य का तत्कालीन कारण निराशावाद है, जिसमें सभी छायावादी कवियों के ‘करुणाकलित हृदय में विकल रागिनी’ को बजा दिया था।”
2. नारी सुलभ सात्विकता- महादेवी जी को कोमल नारी हृदय भी प्राप्त है तभी इन्होंने अपने काव्य में नारी सुलभ क्रियाओं का सुन्दर व मार्मिक चित्रण किया है। महादेवी जी के काव्य में कुछ स्थल ऐसे हैं जहाँ अनुभूति की तीव्रता तन्मयता, गहराई व व्यापकता असीम हो उठी है और कोई भी पाठक उसकी मार्मिकता से बच नहीं सकता। हृदय की ऐसी मार्मिक अनुभूतियाँ कम ही होती हैं जो दिल पर इतनी गहराई तक पहुँच पाती हैं। नारी की हर क्रिया-प्रतिक्रिया को महादेवी जी ने साकार रूप में चित्रित कर दिया है। महादेवी जी का नारी हृदय अपने प्रिय के विरह में एक साधारण नारी की भाँति ही वेदना को ही महसूस करता है। उनका प्रेम एक साधारण नारी की ही भाँति अपनी मंजिल की ओर बढ़ता है। उनका नारी हृदय जिस बाह्य प्रेम का वर्णन करता है उसी भाँति विरह की इतनी मार्मिक व सच्ची अनुभूति एक नारी के हृदय की ही हो सकती है-
“जो तुम आ जाते एक बार।
कितनी करुणा कितनी सन्देश पथ में जाते वन पराग
गाता प्राणों का तार अनुराग भरा उत्माद राग
आँसू लेते वे पद पखार।”
3. आध्यात्मिकता– आध्यात्मिकता भी महादेवी जी के विरह में है और प्रचुर मात्रा में है। वैसे भी ये छायावाद का सम्बन्ध लौकिक व अलौकिक दोनों से ही मानने वाले कवियों में आती हैं। इसलिये इनमें आध्यात्मिकता का होना आवश्यक है। रहस्यवाद की अनुभूति की अधिकता के कारण आध्यात्मिकता का भी समावेश हो गया है। महादेवी जी के काव्य के विरह को कुछ लोग लौकिक धरातल पर ही मानते हैं लेकिन वास्तविक रूप में इनका विरह लौकिकता से ऊपर उठकर अलौकिकता तक पहुँच गया है। अलौकिकता का स्पर्श ही नहीं अपितु उसके शिखर पर पहुँचने में इन्होंने सफलता प्राप्त की है। वे कह उठी हैं-
मैं फूलों में रोती
वे बालारूप में मुस्काते।
मैं पथ में बिछ जाती हूँ
वे सौरभ बन उड़ जाते हैं।
इन पंक्तियों को पढ़ कर उनका आध्यात्मिक रूप स्पष्ट हो जाता है।
4. स्वाभाविकता व सहजता- स्वाभाविकता और सहजता इनके विरह का साधारण अंग है। इनके विरह में कृत्रिमता नहीं है। उनके विरह-वर्णन को पढ़ने के पश्चात् महादेवी जी की वास्तविक अनुभूतियों का स्वाभाविक व सहज चित्र हमारे समक्ष उपस्थित होता है। उनकी वेदना में एक कसक है, पीड़ा है व वास्तविकता है। इसी कारण ये विशेषता उनके विरह-वर्णन में देखने के लिये मिलती है और उच्च कोटि के काव्य के लिये यह गुण अति आवश्यक है। उनकी इन पंक्तियों में हम स्वाभाविकता और सहजता दोनों ही गुण देख सकते हैं-
“मैं नीर भरी दुःख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली।”
5. व्यापकता- महादेवी जी के काव्य में विरह-वर्णन की व्यापकता भी अपना विशेष महत्त्व रखती हैं। इनका विरह किसी सीमा तक नहीं अपितु उनके विपरीत वह असीमित है और इसी व्यापकता के कारण ही उन्हें आँसू ही बहा देना मानकर अपनी व्यापकता का परिचय देती हैं। महादेवी जी का वेदना भाव सीमित नहीं, अपितु व्यापक है। वे सम्पूर्ण मानव जीवन को विरह के जलजात की भांति कहती हैं-
वेदना में जन्म करुणा में मिला, आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात
जीवन विरह का जल जाल!
6. विरह की अजस्त्रता- महादेवी जी के विरह-वर्णन की प्रमुख विशेषता है, विरह की अजस्त्रता। इनके हृदय में विरह निरन्तर इस प्रकार प्रवाहित होता रहता है जिस प्रकार कोई प्राकृतिक झरना निरन्तर बहता रहता है और उसका प्रवाह निरन्तर तेज ही रहता है। महादेवी जी के काव्य में विरह प्रारम्भ से लेकर अन्त तक उसी वेग के साथ वर्णित होता रहा है। विरह-वर्णन सदैव महादेवी जी के काव्य में रहा है चाहे वह लौकिक विरह के रूप में अथवा अलौकिक विरह के रूप में दुःख व सुख को महादेवी जी चाहे वह दूसरों का ही क्यों न हो अपना ही समझती हैं-
“अपने पन की छाया तब
देखी न मुकुर मानस ने
उसमें प्रतिबिम्ब सबके
सुख दुःख लगते थे अपने।”
7. अन्तर्दशाओं का चित्रण- महादेवी जी के काव्य में अन्तर्दशाओं का चित्रण अत्यधिक सफलता से हुआ है। भारतीय मनीषियों द्वारा विरह की दस गर्त दशायें हैं-अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणकथन,उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और भरण।
महादेवी जी के काव्य में इन सभी अन्तर्दशाओं का चित्रण मिलता है और इस चित्रण में इन्हें सफलता भी प्राप्त हुई है।
अपने प्रिय के आगमन की अभिलाषा में विकल व उन्मत्त हृदय का सुन्दर व मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करती हुई वे कहती हैं-
“नयन श्रवण मय श्रवण नयन मय,
आज हो रही कैसी उलझन
रोम रोम में होती री सखी एक,
नया डर का सा स्पन्दन
पूलकों से भर फूल बन गये।
जितने प्राणों के छाले हैं
अलि क्या प्रिय आने वाले हैं। “
इनका विरह चाहे जिस भी प्रकार का हो पर उनके काव्य का एक-एक छन्द आँसुओं से भीगा हुआ है। उनके विरह में अपार आकुलता व मधुरता है। वे आकुलता के साथ प्रियतम के आगमन पर उनके अभिनन्दन के लिये तैयार रहती हैं। वेदना जीवन का शाश्वत भाव है। वेदना को हम प्रेम की जागृत अवस्था कह सकते हैं। प्रेम के शाश्वत रूप की कसौटी वास्तव में विरह ही है और महादेवी जी में जाग्रत अवस्था के दर्शन होते हैं। वे सच्चे रूप में वेदना, पीड़ा व करुणा की कवयित्री हैं। उनके काव्य का मूलतत्त्व वेदना ही है। सत्यता तो यह है कि इनका समस्त काव्य ही वेदना के अपूर्व वैभव से युक्त है। इनकी वेदना में आकुलता, मधुरता, स्वाभाविकता, सजीवता, काव्यात्मकता, मार्मिकता, पावनता, करुणा व गहनता है।
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