सुमित्रानन्दन पन्त कोमलकान्त कल्पना के कवि हैं। इस कथन की उपयुक्तता पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
पन्तजी छायावादी कवि थे, इसलिए कल्पना प्रवणता उनमें विद्यमान थी। कल्पना के सम्बन्ध में नामवर सिंह का कथन है कि “कल्पना छायावादी कवियों की कल्पना के द्वारा एक ओर वह अतीत में जा पहुँचता था. दूसरी ओर भविष्य के स्वर्ण युग को आँखों के सामने सोकार करता था; एक और असीम आकाश में उड़कर आनन्द लोक बसाता था, दूसरी ओर वस्तुगत रहस्यों का पता लगाता था। कल्पना उसकी राग-शक्ति भी थी और बोध-शक्ति भी।” इसके आगे नामवर सिंह लिखते हैं कि “पन्तजी का वायवी बादल यही नहीं कि इस धरती से सर्वथा अनजान है, बल्कि स्वयं भी अधिकांशतः कल्पना पुंज है।” इस ‘बादल’ का परिचय स्वयं उन्हीं के शब्दों में-
हम सागर के धवल हास हैं,
जल के धूम, गगन की धूल,
अनिल फेन, ऊषा के पल्लव,
वारि वसन, वसुधा के मूल;
अति भावुकता, वर्णनात्मक प्रवृत्ति का विरोध और कल्पना बाहुल्य के गुणों से पन्तजी का सम्पूर्ण तथा विशेष रूप से पल्लवकालीन काव्य परिपूर्ण है। ‘नौका विहार’, ‘द्रुत झरो’ तथा ‘भारत माता’ तीनों ही रचनाओं में इन तीनों गुणों का उन्मेष द्रष्टव्य है। अनूठी भावदशाओं के माध्यम से पन्तजी ने गंगा का जो रूप, रस तथा भावमय चित्र उतारा है, उसके अनेक मोहक उदाहरण ‘नौका विहार कविता में देखने को मिल जायेंगे-
सिकता की सस्मित सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर
लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर!
मृदु मन्द-मन्द मन्दर-मन्थर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर,
तिर रही खोल पालों के पर!
निश्चल जल के शुचि दर्पण पर, बिम्बित हो, रजत पुलिन निर्भर,
दुहरे ऊंचे लगते क्षण-भर!
पन्त के काव्य में कल्पना का क्षेत्र अधिक व्यापक और समृद्ध है। उनका ‘बादल’ विराट् कल्पनाओं का कोष है। ‘बादल’ की कल्पना उन्होंने विविध रूपों में की है-प्रलय बाढ़ के समान, विशाल अम्बाल जाल, मदोन्मत्त वासवसना, व्योम भृकुटि पर इन्द्र चाप के समान, विशाल मकड़ी के जाल के समान, साथ ही कोमल और रमणीय कल्पनाएँ भी समाहित हैं—
कोमल एवं रमणीय कल्पना-
फिर परियों के बच्चों से हम
सुभग सीप के पंख पसार
समुद्र पैरते शुचिज्योत्स्ना में
पकड़ इन्दु के कर सुकुमार|
पन्तजी अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता, तीव्रता और स्पष्टता के लिए प्रतीकों का भी प्रयोग करते हैं-
हाथ! रुक गया यहीं संसार
बना सिन्दूर अंगार,
वात-हत लतिका वह सुकुमार
पड़ी है छिनाधार|
अंधड़ के झोंकों के आधार से छिन्न सुकुमार लगनेवाला यह प्रतीक सद्यः विधवा के लिए कितना उपयुक्त है। “द्रुत झरो’ कविता में पन्तजी ने पल्लवों की लालिमा को नये रुधिर का और कोकिल को यौवन का प्रतीक माना है-
कंकाल जाल जग में फैले,
फिर नवल, रुधिर-पल्लव लाली।
मंजरित विश्व में यौवन के
जगकर जग का पिक मतवाली।
पन्तजी ने इसी तरह मधुप को कहीं प्रेमी के रूप में, कहीं गायक के रूप में, ‘चाँदनी’ सरलता की प्रतीक, ‘ऊषा’ प्रेम का, ‘मुकुल’ सौन्दर्य का, ‘मधु’ कोमल भाव और प्रेम का, ‘प्रकाश’ ज्ञान और जागृतिः का, ‘रश्मि’ प्रेम का, ‘लहर’ जीवात्मा का प्रतीक कवि के लिए बन गया है-
देखता हूँ जब उपवन
पियालों में फूलों के
प्रिये भर-भर अपना यौवन
पिलाता है मधुकर को।
इसी प्रकार सुमन, कलिका, रागिनी, वीणा, हिमकण, निशा, प्रभात आदि का प्रयोग पन्त ने प्रतीक के रूप में अनेक स्थानों पर किया है। ‘मुरली’ को प्रेम के प्रतीक तथा ‘शूल’ को दुःख और व्यवधान के रूप में लिया है।
प्रकृति के रूप में विशेषण-विपर्यय भी पाश्चात्य साहित्य से ही छायावादी काव्य में आया है। इसे अंग्रेजी में Transferred Epither भी कहा जाता है। पन्तजी के काव्य में विशेषण-विपर्यय का विशद प्रयोग हुआ है। ‘परिवर्तन’ की निम्नलिखित पंक्तियों में विशेषण-विपर्यय का सौन्दर्य द्रष्टव्य है-
तरल जलनिधि में हरित विलास,
शान्ति अम्बर में नील विकास।
पन्त की कविता में विशेषण-विपर्यय के प्रचुर प्रयोग मिलते हैं। जैसे-
अपरिचित चितवन में था प्रात।
अपरिचय और परिचय चितवन स्वभाव से नहीं व्यक्तित्व से सम्बन्धित होते हैं-
प्रान से मिले अजान नयन।
अजान शब्द ‘हृदय’ का विशेषण होना चाहिए, जबकि यहाँ ‘नयन’ का विशेषण बनकर आया है। भोलापन हृदय का गुण है नयन का नहीं-
सब में कुछ सुख के तरुण फूल,
सब में कुछ दुख के करुण शूल।
“तरुण” फूल नहीं शरीर होता है। यहाँ कवि का तात्पर्य प्रसन्न आनन्ददायक से है। इसी प्रकार ‘शूल’ करुण नहीं होता हृदय करुण, करुणापूर्ण या वेदनापूर्ण होता है। यहाँ कवि का अभिप्राय दुःखद से है।
नामवर सिंह लिखते हैं कि “छायावादी कवियों- विशेषतः पन्तजी ने विशेषणों के प्रयोग में अद्भुत चमत्कार पैदा किया। एक छोटे से विशेषण के द्वारा पन्तजी ने कई वाक्यों में कही जाने योग्य बात कह दी है। नील झंकार, गंध-गुंजित, तुतला उपक्रम, मूर्च्छित आतप, तुतला भय, तुमुल तम जैसे सैकड़ों विशेषणजन्य सुन्दर प्रयोग पन्त की रचना में अनायास मिलेंगे।”
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