हिन्दी काव्य

बाबा नागार्जुन का व्यक्तित्व सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत था। इस कथन को ध्यान में रखते हुए बाबा नागार्जुन के कवि-व्यक्तित्व पर एक सारगर्भित लेख लिखिए।

बाबा नागार्जुन का व्यक्तित्व सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत था। इस कथन को ध्यान में रखते हुए बाबा नागार्जुन के कवि-व्यक्तित्व पर एक सारगर्भित लेख लिखिए।
बाबा नागार्जुन का व्यक्तित्व सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत था। इस कथन को ध्यान में रखते हुए बाबा नागार्जुन के कवि-व्यक्तित्व पर एक सारगर्भित लेख लिखिए।

बाबा नागार्जुन का व्यक्तित्व सामाजिक सरोकारों से ओत-प्रोत था। इस कथन को ध्यान में रखते हुए बाबा नागार्जुन के कवि-व्यक्तित्व पर एक सारगर्भित लेख लिखिए।

अथवा

‘नागार्जुन सच्चे अर्थों में जनकवि हैं।” इसकी सार्थकता प्रमाणित कीजिए।

अथवा

“बाबा नागार्जुन जनता और सामाजिक सरोकार के कवि हैं।” इस कथन पर उनके काव्य की समीक्षा कीजिए।

87 बरस का लम्बा और संघर्षमय जीवन जी कर गये बाबा नागार्जुन सच में शताब्दी पुरुष’ हैं। वह कबीर और निराला की परम्परा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। सही मायने में उन्होंने जनता के दुःखों को > अपना बनाकर लिखा और उसके लिए प्राणपण से लड़े और इस तरह जीवन भर के कठिन तप और अटूट जीवन से उन्होंने साबित किया कि आम जनता के छोटे-बड़े दुःखों और बेचैन संघर्षों से जुड़ा कोई ‘जनकवि’ ही इस युग का सच्चा ‘महाकवि’ हो सकता है।

नागार्जुन की कविताओं में सामान्य जनजीवन के ऐसे दृश्य तमाम हैं-इतने ज्यादा कि उनसे आज के समय का एक मुकम्मल चित्र कोई चाहे तो बना सकता है। नागार्जुन जीवन में इस कदर रमे हुए हैं कि वह खेल-खेल में ऐसे दृश्य आँख के आगे खींच देते हैं और कभी-कभी तो वह इस तरह के दृश्य कुछ इस अन्दाज में पेश करते हैं, मानो अभिजात रुचियोंवाले सम्भ्रान्त वर्ग को जिन्हें ‘मेहनत के पसीने से बास आती है, जान-बूझकर चिढ़ा रहे हों-

“पूरी स्पीड में है ट्राम / खाती है दचके पै दचका

सटता है बदन से बदन / पसीने से लथपथ

छूती है निगाहों को / कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान

बेतरतीब मूंछों की थिरकन / सच-सच बतलाओ

घिन तो नहीं आती है / जी तो नहीं कुढ़ता है ?”

हालाँकि पूरी कविता पढ़कर यह समझ में आ जाता है कि यहाँ नागार्जुन का इरादा हमें चिढ़ाने का नहीं है, बल्कि यह हमारे मस्तिष्क और चेतना की बन्द खिड़कियों को खोलना चाहते हैं, ताकि हम सुर्ती फाँकते, ठहाके लगाते तथा अपने ‘देश’ और घर-परिवार की बातों में डूबे मेहनती लोगों के जीवन-रस को भी उदारता से ग्रहण कर सकें! मजदूरी की कठोर मेहनती जिन्दगी के प्रति तिरस्कार नहीं, आदर और सम्मान का भाव पैदा हो यह गहरी छटपटाहट ही मानो उनसे यह कविता लिखवा रही है।

नागार्जुन की एक खासियत यह है कि अपनी कविताओं में वह पूरी तरह समाये हुए हैं। नागार्जुन कोई ‘तटस्थ’ कवि नहीं हैं और दुर्भाग्य से तटस्थता को इधर एक बहुत बड़ा काव्य मूल्य मान लिया गया है। नागार्जुन कतई उससे इत्तेफाक नहीं रखते। उनकी कविताओं से उनके मन का, मन में उठ रही तरंगों और बहाव का यहाँ तक कि उनके निजी विचारों, उनकी जीवन-दशा और हालात का भी अच्छी तरह पता चलता है। कहीं खेतों की रखवाली के लिए खड़े कर दिये गये ‘भुस के पुतले’ में रक्षक की अदनी लाचारी देख, वह उठाकर हँसते हैं तो कहीं जेल की सलाखों पर सिर टिकाये अपने पकते हुए बालो, मानव-मुक्ति के संघर्ष और भविष्य के बारे में सोचकर उदास हो जाते हैं।

बाबा नागार्जुन के पास जिन्दगी का इतना रस और इतना अनमोल खजाना है कि वह जेल में हो तो उसे भी ‘रसवन्त’ बनाये बगैर नहीं छोड़ते। जेल जीवन पर लिखी गयी उनकी ‘नेवला’ और ‘मुर्गे ने दी बाँग’ सचमुच अनमोल कविताएँ हैं जो बाबा की अथक् जिजीविषा को दर्शाती हैं, जेल में कैदियों के रूखे-सूखे जीवन में एक नेवला आकर कैसे सभी को रस, रोमांच और प्यार भर देता है, इसे बाबा की बूढ़ी आँखें ही देख सकती हैं और फिर वह नेवला भी नेवला न रहकर उनका ‘माधव’ हो जाता है जो थककर बाबा की गोदी में लेट जाता है और बाबा उसे प्यार से दूध पिलाते हैं।… ऐसे ही मुर्गे का कभी आधी रात और कभी अलसुबह बाँग देना कैसे जेल जीवन के खालीपन को भर देता है और किस बेसब्री से बाबा के कान उसे सुनने को उतावले रहते हैं, ‘मुर्गे ने दी बाँग’ में इसका बड़ा प्यारा चित्रण है। और फिर इसी बँधे हुए जीवन में सिके हुए दो भुट्टे खाने को मिल जायें तो उनका स्वाद जरा बाबा नागार्जुन से पूछिये-

“सिके हुए दो भुट्टे सामने आये / तबियत खिल गई

ताजा स्वाद मिला दूधिया दानों का / तबियत खिल गई

दांतों की मौजूदगी का सुफल मिल / तबियत खिल गई!”

इसी तरह नागार्जुन की सौन्दर्य की चाह भी अथाह है। तमाम प्रगतिशील कवियों ने जिस तरह जीवन-यथार्थ के नाम पर सौन्दर्य का तिरस्कार शुरू कर दिया था, नागार्जुन वैसा कभी नहीं करते। हाँ वह बनावटीपन को सौन्दर्य नहीं मानते। सौन्दर्य को वह जीवन और जिजीविषा से जोड़कर देखते हैं। लिहाजा यहाँ नागार्जुन की भाषा भी औरों से अलग है। वह निहायत मामूली शब्दों से यहाँ अनूठा जादू जगाते हैं-

“कर गई चाक / तिमिर का सीना

जोत की फांक / यह तुम थीं।”

सच तो यह है कि नागार्जुन का क्रान्ति-दर्शन जीवन के इस रस और सुन्दरता से ‘छविमान’ होता है—और इसीलिए उसके प्रति मन-ही-मन कृतज्ञ भी है। दोस्तोवस्की का प्रसिद्ध कथन है, “सुन्दरता इस संसार को बचायेगी!” नागार्जुन के यहाँ भी सुन्दरता कोई सजावटी चीज नहीं, बल्कि एक ऐसी आकर्षण डोर है जो निर्जन में भी जीवन जीने की शक्ति बन जाती है। घोर निर्जन में उस ‘सिन्दूर तिलकित भाल’ की स्मृति ही अपने साथ बहुत-सा मधुरस खींच जाती है-

“घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल!

याद आता तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल!

कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज ?

कौन है जिसको न पड़ता दूसरे से काज ?

चाहिए किसको नहीं सहयोग ?

चाहिए किसको नहीं सहवास?

कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराए वह उच्छ्वास?” इसी कविता में तरौनी गाँव से जुड़ी नागार्जुन की वे प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं जिनके शब्द-शब्द में अपने गाँव, जमीन और मिथिला के रुचिर भू-भाग के लिए गहरी तड़प और पुकार है। यहाँ तक कि दूर चले जाने पर अपने गाँव की लीचियों, आम और तालमखाना भी इस कदर याद आते हैं, मानो दोनों हाथ उठाकर पुकार रहे हो—

“याद आता मुझे वह ‘तरउनी’ ग्राम

याद आती लीचियाँ, वे आम

याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग

याद आते धान

याद आते कमल, कुमुदिनी और तालमखान!”

बाबा नागार्जुन जिन्दगी भर अपने फक्कड़ी अन्दाज की वजह से जाने गये। एक फक्कड़ की तरह ही मौज में आकर जो ठीक लगा उन्होंने जिया और लिखा। लेकिन इस उसके और धाकड़पन के साथ लिखा कि उत्तर-आधुनिकतानुमा चन्द आयातित सिद्धान्तों का चर्बी घोंटकर बौद्धिक बने पढ़ाकुओं की उनके आगे खड़े होने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, नागार्जुन फक्कड़ थे, पर उनकी आँख इतनी पैनी थी कि झट सामने वाले का छद्म और चालाकी ताड़ जाते थे और उसे जताये बगैर नहीं रहते थे। इसी तरह स्वदेश या ग्राम्य संस्कृति या प्रगति के नाम पर रूढ़ियों को भी उन्होंने कभी पसन्द नहीं किया। इस मामले में अपने विवेक को ही उन्होंने सबसे बड़ी कसौटी माना।

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About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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