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छायावादी कवियों में पन्त को प्रकृति का कवि कहा जाता है,” इस मान्यता पर विचार कीजिए।
अथवा
सुमित्रानन्दन पन्त के प्रकृति-चित्रण पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
अथवा
पन्त प्रकृति और सुकुमार भावना के कवि हैं-सोदाहरण विवेचन कीजिए।
पन्तजी का प्रकृति-चित्रण
प्रकृति का अतुल वैभव अपने निःसीम सौन्दर्य से पन्तजी के कवि हृदय के एकात्म रहा है और प्रकृति के क्षण-क्षण परिवर्तित नवीन रूपों ने ही सर्वप्रथम कवि के अन्तःकरण में अपनी लास्यमयी भंगिमाओं से सौन्दर्य के अद्भुत लोक की सृष्टि कर उनके कवि को वाणी प्रदान की है। ‘वीणा’ से लेकर ‘सत्यकाम’ तक पन्त जी ने अपनी इस प्रकृति-प्रिया को अगणित रूपों में संजोया है—अगणित सौन्दर्य बिम्बों में नित नवीन रूपों में पहचाना है।
पन्तजी ने अपनी गृहरी आत्मीयता, स्नेह एवं सान्निध्य की चर्चा स्वयं अनेक बार विविध लेखों एवं पुस्तक पुस्तिकाओं में की है। ‘आत्मिका’ में वे लिखते हैं-
प्रकृति क्रोड़ में छिप, क्रीड़ा प्रिय, तृण तरु की बातें सुनता मन
विहगों के पंखों पर करता पार नीलिमा के छाया वन
रंगों के छीटों के नवदल, गिरि-क्षितिजों को रखते चित्रित
नव मधु की फूलों की देही, मुझे गोद भरती सुख-विस्मृत।
पन्तजी को कविता करने की प्रेरणा ही वस्तुतः प्रकृति-निरीक्षण से मिली है। पन्त जी ने ‘आधुनिक कवि’ भाग-2 की भूमिका में स्वयं स्वीकार किया है कि प्रकृति की ओर से कोई अज्ञात आकर्षण उनके भीतर एक अव्यक्त सौन्दर्य का जाल बुनकर उनकी चेतना को तन्मय कर देता था और अब वे सोचते हैं। कि “क्षितिज में सुदूर तक फैली एक के ऊपर एक उठी ये हरित नील धूमिल कूमांचल की छायांकित पर्वत श्रेणियाँ जो अपने शिखरों पर रजत मुकुट हिमालय को धारण की हुई हैं और अपनी ऊँचाई से आकाश की अवाक् नीलिमा को और भी ऊपर उठायी गयी है, किसी भी मनुष्य को अपने महान् नीरव सम्मोहन के आश्चर्य में डुबाकर कुछ काल के लिए भुला सकती है।” अपने प्रारम्भिक कविताओं में पन्तजी ने प्रकृति को अपने से अलग विशिष्ट सत्ता में रखकर एक नारी के रूप में देखा है। जहाँ जहाँ प्रकृति में अत्यधिक तादात्म्य दिखाया है वहाँ जहाँ उन्होंने अपने को भी नारी रूप में ही चित्रित किया है।
प्रकृति चेतना का विकास- प्रकृति के ऐसे सुहावने आँचल तले पन्तजी का मन सौन्दर्य की जिस मोहमुग्ध में बँधा, उसकी चर्चा उन्होंने ‘मोह’ शीर्षक कविता में की है। ‘वीणा’ से ‘पल्लव’ तक की कविताओं में प्रकृति के अनन्त-सौन्दर्य-वैभव में कवि की चेतना लीन है, क्योंकि उसके किशोर कवि जीवन के अनेक सुनहली स्मृतियों में लिपटे प्रारम्भिक वर्ष कौसानी और अल्मोड़े में, प्रकृति की एकान्त छाया में व्यतीत हुए। अल्मोड़ा के वसन्त की दो पंक्तियाँ देखिये-
लो चित्र शलभ सी पंख खोल, उड़ने की है कुसुमित घाटी।
यह है अल्मोड़े का वसन्त, खिल पड़ी निखिल पर्वत हाटी।
बाद में पन्तजी ने कौसानी और अल्मोड़े को तो छोड़ दिया लेकिन प्रकृति उनके साथ उनकी अन्तरात्मा का अभिन्न अंग बनकर सदैव बनी ही रही।
पन्तजी की ‘पल्लव’ तक की कविताएँ स्वप्निल प्रेमावेश एवं गहरी भावुकता से ओत-प्रोत छायावादी काव्यकाल का अप्रतिम प्रतिमान स्थापित करता है। ‘बादल’ ऐसी कविताएँ अति कल्पना विलास से बोझिल होते हुए भी अपनी बहुरंगी चित्रात्मकता तथा अछूती कल्पनाओं के व्यापक प्रसार से हिन्दी काव्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं।
‘युगान्तर’ से ‘ग्राम्या’ तक की रचनाओं में विराट् प्रकृति मानवता के विराट् रूप के समक्ष लघु हो गयी सी प्रतीत होती है। अब यह मानव कल्याण की वाहिका के रूप में अधिकतर चित्रित की गयी है।
‘स्वर्ण-किरण’ तथा ‘स्वर्णधूलि’ काव्य संग्रहों में निःसंग प्रकृति के चित्र कम हैं। यहाँ प्रकृति-सौन्दर्य दिव्य अन्तः सौन्दर्य से समन्वित होकर जन-मंगल की ओर उन्मुख दिखायी पड़ती है।
‘उत्तरा’ तक आते-आते अन्तर्जीवन के आनन्द उल्लास से दीप्त रचनाएँ मिलती हैं। वनश्री शरद् चेतना, वसन्त, जीवन प्रभाव, भू-जीवन आदि रचनाएँ प्रकृति वर्णन का रूप लिये नवजीवन एवं भागवत चेतना का निरूपण करती हैं। ‘उत्तरा’ की प्रकृति विषयक कविताएँ विशुद्ध प्रकृति सौन्दर्य से सम्पन्न नहीं हैं, कवि ने प्रकृति के विविध रूप-रंगों में भू-जीवन का ही प्रतिबिम्ब पाया है-
तो अब खुला क्षितिज वातायन,
आयी वन में स्वर्ण किरण छिन।
जगे नीड़ के मुखर विहगगण,
बरस रहे नभ से मंगल स्वर।
‘अतिमा’ की अनेक रचनाओं में एक बार पुनः प्रकृति अपने मुक्त और रमणीय रूप में प्रतिष्ठित हुई है। ‘पतझर’ रचना में पन्तजी को पतझर में भी अमृत सौन्दर्य के दर्शन हुए, क्योंकि उसमें उन्हें नव सृजन में एक मातृत्व के अलौकिक सौन्दर्य की छवि दिखायी पड़ी। सौन्दर्य के प्रति पन्त जी के बदले हुए दृष्टिकोण का इससे पता चलता है कि जो उनकी प्रारम्भिक कविताओं की सौन्दर्य चेतना की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ एवं परिपक्व हैं।
‘कौए बत्तखें मेंढक’, ‘प्रकाश पतिंगे छिपकलियाँ’, ‘केंचुल’ आदि अनेक कविताओं में पन्त जी का सौन्दर्य के प्रति यही बदला हुआ दृष्टिकोण, दीन-दलित के प्रति व्यापक सहानुभूति एवं करुणा के रूप में दिखायी पड़ता है। इस काल की प्रकृति-सम्बन्धी रचनाओं में ‘कूमांचल के प्रति का विशिष्ट स्थान है क्योंकि बहुत दिनों बाद पन्तजी ने अपनी प्रकृति-प्रिया के उन्मुक्त सौन्दर्य और चटुल भाव-भंगिमाओं को अंकित किया है।
इसके बाद प्रकाशित ‘कला और बूढ़ा चाँद’ में पुरानी अनुभूति अधिक प्रगाढ़ और व्यापक स्तर पर प्रस्फुटित हुई है। शान्ति जोशी के शब्दों में, “यहाँ न छायावादी भावुकता है, न रहस्यवादी अलौकिकता और न प्रगतिवादी या प्रयोगवादी विद्रोह और निराशा का स्वर यहाँ तो मात्र आनन्द है, आत्मतन्मयता का आनन्द।”
“मैं सूर्य की किरण हूँ,
तुम चाँद की
मैं तुम्हें प्रकाश दूं,
तुम प्यार।”
इसके बाद की रचना ‘लोकायतन में प्रकृति कवि का लक्ष्य नहीं है, लेकिन जहाँ कहीं भी प्रकृति काव्य में प्रवेश करती है, अनन्त भव्य और जीवन रूप में सन् 1968 ई० में ‘किरणवीणा’ और ‘पौ फटने के पहले’, सन् 1969 ई० में ‘पतझर’ और ‘भक्तहंस’, सन् 1971 ई० में, ‘शंख ध्वनि’, ‘काश की लरी’, सन् 1973 ई० में, ‘समाधिता’, ‘आस्था’, सन् 1975 ई० में ‘सत्यकाम’ और सन् 1976 ई० में, ‘गीत अगीत’ प्रकाशित हुई। ‘किरणवीणा’ से ‘गीत-अगीत’ तक कवि पन्त जी की काव्य-यात्रा के मध्य प्रकृति अपनी रम्य झलक और मन्द स्मिति के साथ हमेशा दिखायी पड़ती है, लेकिन इनमें से किसी भी ग्रन्थ का मूल प्रतिपाद्य प्रकृति नहीं है। प्रकृति अलंकृति अथवा उद्दीपन आदि के लिए ही काव्य में आयी है।
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