स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचारों पर प्रकाश डालिए। अथवा स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचारों पर प्रकाश डालिए। वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता बताइए।
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स्वामी विवेकानन्द के शैक्षिक विचार (Educational Views of Swami Vivekanand)
शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुये उन्होंने लिखा है कि- “शिक्षा की व्याख्या व्यक्ति के विकास के रूप में की जा सकती है। शिक्षा व्यक्ति की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।” स्वामी जी के विचारानुसार शिक्षा जीवन संघर्ष की तैयारी है। वह शिक्षा बेकार है जो व्यक्ति को जीवन संघर्ष हेतु यार नहीं करती है। स्वामी जी के पाठ्यक्रम शिक्षण विधि – अनुशासन, शिक्षा में शिक्षक एवं शिक्षार्थी का स्थान, स्त्री एवं जनशिक्षा के सम्बन्ध में विचार इस प्रकार हैं-
शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum of Education)
विवेकानन्द ने व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही लौकिक समृद्धि को भी आवश्यक माना। वे आध्यात्मिक उन्नति एवं लौकिक समृद्धि का विकास शिक्षा द्वारा करने के पक्ष में थे। इसीलिये उन्होंने शिक्षा के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत उन समस्त विषयों को समाविष्ट किया जिनको पढ़ने से आध्यात्मिक एवं लौकिक विकास एक साथ होता रहे। व्यक्ति के आध्यात्मिक पक्ष को विकसित करने हेतु उन्होंने उपनिषद, दर्शन, पुराण इत्यादि की शिक्षा पर विशेष बल दिया और भौतिक विकास हेतु भूगोल, राजनीतिशास्त्र, इतिहास, अर्थशास्त्र व्यावसायिक एवं कृषि शिक्षा, व्यायाम, भाषा इत्यादि विषयों पर विशिष्ट बल दिया। स्वामी जी के अनुसार- “यह अधिक उत्तम होगा यदि व्यक्तियों को थोड़ी तकनीकी शिक्षा मिल जाये, जिससे वे नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटकने के स्थान पर किसी कार्य में लग सकें और जीविकोपार्जन कर सकें।” उनका कहना था कि विज्ञान की शिक्षा देते समय उसका वेदान्त से समन्वय स्थापित किया जाये।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार पाठ्यक्रम निर्माण के समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
- पाठ्यक्रम में सृजनपूर्ण कार्यों को महत्त्व दिया जाये।
- पाठ्यक्रम द्वारा किसी रोजगार की शिक्षा प्राप्त हो।
- पाठ्यक्रम द्वारा बालक की सम्पूर्ण शक्तियों का सन्तुलित विकास हो।
- पाठ्यक्रम विज्ञान की शिक्षा पर आधारित हो, और
- पाठ्यक्रम में आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन किया जा सके।
शिक्षण विधियाँ (Teaching Methods)
(i) ज्ञान की सर्वोत्तम विधि एकाग्रता को बताते हुये उन्होंने इस तथ्य पर अधिक बल दिया कि एकाग्रता का अधिकाधिक विकास किया जाये क्योंकि एकाग्र मन से ही ज्ञान की अधिक उपलब्धि हो सकती है। अतः अध्यापक को अपना शिक्षण कार्य इस प्रकार आयोजित करना चाहिए, जिससे समस्त शिक्षार्थी एकाग्रचित होकर उसमें रुचि ले सकें।
(ii) स्वामी विवेकानन्द के अनुसार मार्ग में आयी बाधाओं को समाप्त करने हेतु शिक्षार्थियों को अपने पथ-प्रदर्शक के साथ तर्क-वितर्क करते हुए बाधाओं को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
(iii) व्यक्तिगत निर्देशन को भी स्वामी जी ने महत्त्वपूर्ण बताया है। उनका कहना है कि शिक्षक को, शिक्षण की प्रक्रिया में शिक्षार्थियों का पथ-प्रदर्शन करना चाहिए, क्योंकि अध्यापक को ज्ञान की प्रक्रिया के मध्य शिक्षार्थियों के समक्ष आने वाली कठिनाइयों का ज्ञान होता है।
(iv) अनुकरण विधि ! के माध्यम से शिक्षार्थियों का विकास किया जाना चाहिए।
(v) ज्ञान को समन्वित करके प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
(vi) विचार-विमर्श एवं उपदेश विधि द्वारा ज्ञानार्जन किया जाना चाहिए।
(vii) शिक्षार्थियों को उचित मार्ग पर अग्रसरित करने हेतु परामर्श विधि! का उपयोग किया जाना चाहिए।
उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्त स्वामी विवेकानन्द ने निरीक्षण, वाद-विवाद, भ्रमण, श्रवण, ब्रह्मचर्य का पालन, आत्मविश्वास की जागृति और रचनात्मक क्रिया-कलापों पर भी बल श्रद्धा, दिया है।
अनुशासन (Discipline )
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार स्वतन्त्रता का उन्मुक्त वातावरण, अधिगम की अनिवार्य आवश्यकता है। इसलिये छात्रों को कठोर बन्धन में रखने के बजाय उन्हें प्रेम व सहानुभूति के साथ विकसित होने के अवसर उपलब्ध कराये जाने चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने दमनात्मक अनुशासन का घोर विरोध किया। उनके अनुसार बालकों को अनुशासित करने हेतु तथा व्यवहार में परिवर्तन लाने हेतु अध्यापक का आचरण प्रभावशाली होना आवश्यक है। वे स्वतन्त्रता को अनुशासन स्थापित करने का सबसे प्रभावी साधन मानते थे। उनका कहना था कि यदि बालकों को पूरी स्वतन्त्रता दी जाये तो वे अपने आप ही अनुशासित होते जायेंगे, जिससे उनमें स्वानुशासन स्थापित होगा। यही उनकी शिक्षा प्रक्रिया को भी अत्यन्त सहज बना देगी।
अध्यापक (Teacher)
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत अध्यापक का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। बालक की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास अध्यापक के अभाव नहीं हो सकता है। उनके शब्दों में शिक्षा गुरु गृहवास है। अध्यापक के वैयक्तिक जीवन के अभाव में शिक्षण असम्भव है। इसलिये आरम्भ से ही छात्र को इस प्रकार के अध्यापक के सान्निध्य में रहना चाहिए जिससे वह उच्च आदर्शों को प्राप्त कर सके। स्वामी जी के अनुसार शिक्षक में निम्नलिखित गुणों का होना नितान्त आवश्यक है-
(i) उच्च चरित्र – स्वामी जी के अनुसार अध्यापक का चरित्र अत्यन्त उच्च होना चाहिए। उसे बालक में मात्र बौद्धिक जिज्ञासा ही उत्पन्न नहीं करनी चाहिए वरन् उसे स्वयं के आदर्शयुक्त उच्च चरित्र से अपने छात्रों को प्रभावित करना चाहिए। स्वामी जी के कथनानुसार “अध्यापक का कर्त्तव्य वास्तव में ऐसा कार्य है कि वह छात्र में मात्र उपस्थित बौद्धिक तथा अन्य क्षमताओं की अभिप्रेरणा पैदा न करे अपितु कुछ अपना आदर्श भी दे । वह आदर्श वास्तविक एवं प्रशंसनीय होना चाहिए जो छात्र को मिले क्योंकि अध्यापक के आदर्श व्यवहार का प्रभाव छात्रों के व्यवहार को प्रभावित करता है। अतः अध्यापक में पवित्रता होनी चाहिए।
(ii) प्रेम व सहानुभूति – स्वामी जी के अनुसार अध्यापकों में अपने छात्रों के प्रति प्रेम एवं सहानुभूति की भावना होनी चाहिए। प्रेम के अभाव में अध्यापक छात्रों को कुछ भी नहीं दे सकता और सहानुभूति के अभाव में वह छात्रों को कुछ भी नहीं पढ़ा सकता। अध्यापक की यह भावना स्वार्थरहित होनी चाहिए।
(iii) त्याग भावना- स्वामी जी का कहना था कि शिक्षक को धन, सम्पत्ति अथवा अन्य किसी भी लोभवश शिक्षा प्रदान नहीं करनी चाहिए। यदि अध्यापक को सच्चे अर्थ में गुरु बनना है तो उसे स्वार्थरहित सेवा भावना को अपनाना होगा।
(iv) शास्त्रों का ज्ञाता – अध्यापक को शास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिए तभी वह अपने छात्रों को वास्तविक ज्ञान प्रदान कर सकेगा।
(v) निष्पापता – स्वामी जी के अनुसार अध्यापक को मन से निष्कपट व शुद्ध चित्त होना चाहिए तभी उसके शब्दों का मूल्य होगा।
स्वामी विवेकानन्द ने अध्यापक हेतु आवश्यक शब्दों के सम्बन्ध में लिखा है-“सच्चा” गुरु वह है जो तुरन्त छात्रों के स्तर तक उतर आये तथा अपनी आत्मा को उनकी आत्मा में स्थानान्तरित कर सके। उनके नेत्रों से देख सके, उनके कानों से सुन सके तथा उनके मन से समझ सके। ऐसा ही अध्यापक वास्तव में पढ़ा सकता है और कोई नहीं।”
शिक्षार्थी (Student)
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा में बालक को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना। उनके अनुसार- “अपने अन्दर जाओ तथा उपनिषदों को स्वयं में से बाहर निकालो। सबसे महान् पुस्तक हो जो कभी थी या होगी। जब तक अन्तरात्मा नहीं खुलती, तंब तक सम्पूर्ण बाह्य शिक्षण बेकार है।” स्वामी जी के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि बालक की आन्तरिक अभिप्रेरणा तथा इच्छा का शिक्षक की प्रक्रिया के अन्तर्गत सबसे अधिक महत्त्व है।
अध्यापक के समान ही छात्र हेतु भी स्वामी जी ने निम्नलिखित गुणों का उल्लेख किया है- शिक्षार्थी में अपने गुरु के प्रति श्रद्धा एवं स्वतन्त्र चिन्तन की शक्ति होनी चाहिए। उनके अनुसार- ” पर यह भी सच है किसी के प्रति अन्धानुभक्ति से व्यक्ति की प्रवृत्ति दुर्बलता तथा व्यक्तित्व की उपासना की तरफ झुकने लगती है। अपने गुरु की पूजा ईश्वर दृष्टि से करो लेकिन उनकी आज्ञापालन आँखें बन्द करके मत करो प्रेम तो उन पर पूर्णतः करो, लेकिन स्वयं भी स्वतन्त्र रूप से विचार करो।”
नारी शिक्षा (Women Education )
स्वामी विवेकानन्द समाज में स्त्रियों की दुर्दशा से अत्यन्त दुःखी थे। स्त्री एवं पुरुष के मध्य अन्तर की स्वामी जी ने कटु आलोचना की। उनका कहना था कि समस्त प्राणियों में एक ही आत्मा है, इसलिये स्त्रियों पर कठोर नियन्त्रण रखना वांछनीय नहीं है। स्वामी जी ने स्त्री को पुरुष के समान दर्जा देते हुये कहा कि जिस देश में स्त्री का सम्मान व आदर नहीं होता, वह देश कभी भी प्रगति नहीं कर सकता।
स्वामी विवेकानन्द ने स्त्रियों की सम्पूर्ण समस्याओं का सर्वप्रमुख कारण अशिक्षा बताया है। स्वामी जी स्त्री शिक्षा के पक्षपाती थे। नारी शिक्षा के महत्त्व के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है- “पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो, तब वे आपको बतायेंगी कि उनके लिये कौन-कौन से सुधार करने आवश्यक हैं ? उनके सम्बन्ध में तुम बोलने वाले कौन हो ?” स्वामी जी का कहना था कि धर्म स्त्री शिक्षा का केन्द्रबिन्दु होना चाहिए और स्त्री शिक्षा के मुख्य अंग चरित्र गठन, ब्रह्मचर्य पालन एवं पवित्रता होने चाहिए। स्त्री शिक्षा के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत स्वास्थ्य रक्षा, कला, शिशुपालन, कला-कौशल गृहस्थ जीवन के कर्त्तव्य, चरित्रगठन के सिद्धान्त, पुराण, इतिहास, भूगोल इत्यादि विषयों को समाविष्ट किया जाना चाहिए। स्वामी जी भारतीय स्त्रियों को सीता-सावित्री जैसी स्त्रियों के आदर्शों का पालन एवं अनुकरण करने हेतु कहा करते थे। वे नारी में नारीत्व को विकसित करना चाहते थे, पुरुषत्व को नहीं। उनके शब्दों में-“मेरी बच्चियो ! महान् बनो, महापुरुष बनने का प्रयास मत करो।”
जन- शिक्षा (Mass-Education)
स्वामी विवेकानन्द देश के निर्धन एवं निरक्षर व्यक्तियों की दयनीय स्थिति को देखकर अत्यन्त दुःखी थे। उनके अनुसार “जब तक भारत का जन समूह भली प्रकार शिक्षित नहीं हो जाता, भली प्रकार उनका पेट नहीं भर जाता तथा उन्हें उत्तम संरक्षण नहीं मिलता, तब तक कोई भी राजनीति सफल नहीं हो सकती।” स्वामी जी का विश्वास था कि इन दीन दुःखियों की दशा में शिक्षा के माध्यम से सुधार किया जा सकता है। यदि अपने देश को समृद्धशील बनाना है तो उसे इन असंख्य नर-नारियों को शिक्षित करना होगा।
भारत जैसे विशाल देश में जनसाधारण की शिक्षा व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी जी के विचारों का डॉ० सेठ ने इस प्रकार उल्लेख किया है- “जनता को शिक्षित करने हेतु गाँव-गाँव, घर-घर जाकर शिक्षा देनी होगी। इसका कारण यह है कि ग्रामीण बालकों को जीविकोपार्जन हेतु अपने पिता के साथ खेत पर काम करने हेतु जाना पड़ता है। वे शिक्षा ग्रहण करने शिक्षालय नहीं आ पाते हैं। इस सम्बन्ध में स्वामी जी ने सुझाव दिया है कि यदि संन्यासियों में से कुछ को धर्मेत्तर विषयों की शिक्षा देने हेतु गठित कर लिया जाये तो अत्यन्त सहजता से घर-घर घूमकर वे अध्यापन एवं धार्मिक शिक्षा दोनों कार्य कर सकते हैं। कल्पना कीजिये कि दो संन्यासी कैमरा, ग्लोब तथा कुछ मानचित्रों के साथ सायंकाल किसी गाँव में पहुँचे। इन साधनों के माध्यम से वे जनता को भूगोल, ज्योतिष इत्यादि की शिक्षा प्रदान करते हैं। इसी तरह कथा-कहानियों के माध्यम से वे दूसरे देश के बारे में अपरिचित जनता को इतनी बातें बताते हैं, जितनी वे पुस्तक के माध्यम से आजीवन में नहीं सीख सकते हैं। क्या इन वैज्ञानिक साधनों द्वारा आज की जनता के अज्ञानयुक्त तिमिर को जल्दी दूर करने का यह एक उपयुक्त सुझाव नहीं है ? क्या संन्यासी स्वयं इस लोकसेवा के माध्यम से अपनी आत्मा के प्रकाश को अधिकाधिक प्रदीप्त नहीं कर सकते हैं।” स्वामी जी के अनुसार जनशिक्षा के कार्य को सरकार एवं समाज दोनों को मिलकर करना चाहिए।
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