अनुशासन के दार्शनिक सिद्धान्त क्या है ? अनुशासनहीनता के कारणों को स्पष्ट कीजिए। विद्यालय में अनुशासन बनाए रखने के लिए उचित सुझाव दीजिए
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अनुशासन के दार्शनिक सिद्धान्त (Philosophical Theories of Discipline)
एडम्स (Adams) ने अपनी पुस्तक “Modern Development in Educational Practice”, तथा नार्पन मेकपन (Norman Macman) ने अपनी पुस्तक “The Child’s Path to Freedom’ में विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों के आधार पर निम्नांकित तीन प्रकार के अनुशासन की चर्चा की है-
- दमनात्मक अनुशासन (Repressionistic Discipline)
- प्रभावात्मक अनुशासन (Impressionistic Discipline)
- मुक्तयात्मक अनुशासन (Emancipationistic Discipline)
1. दमनात्मक अनुशासन (Repressionistic Discipline) – शिक्षा क्षेत्र में यह एक अत्यन्त प्राचीन विचारधारा है। इस विचारधारा पर राजनीतिक निरंकुशता की पूर्ण छाप है। जिस प्रकार प्राचीन काल में निरंकुश शासन जनता से अपनी आज्ञाओं का पालन कराने हेतु दण्ड का प्रयोग करते थे, वैसे ही उस समय विद्यालयों में शिक्षक भी विद्यार्थियों को सुधारने के लिए कड़े से कड़े दण्ड की व्यवस्था करते थे। 18वीं शताब्दी में यूरोप के स्कूलों में यह कथन बहुत प्रचलित था ‘डण्डा छूटा, बालक बिगड़ा’ (Spare the rod, Spoil the child) । इस प्रकार विद्यालयों में बालक के व्यक्तित्व का कोई आदर नहीं था तथा यह विश्वास किया जाता था कि दण्ड देने से बदमाश से बदमाश बालका भी सीधा हो जाता है ।
आलोचना- आधुनिक जनतान्त्रिक युग में कोई भी शिक्षा-शास्त्री अब इस प्रकार के अनुशासन का समर्थन नहीं करता, क्योंकि इससे बालकों की रुचियों, मनोवृत्तियों एवं इच्छाओं का दमन होता है तथा उसमें हीन भावना उत्पन्न होती है। वैसे भी जनतन्त्र में जहाँ सबके अधिकार समान हैं और जहाँ सबको स्वतन्त्रता प्राप्त है, वहाँ इस प्रकार के अनुशासन के लिए कोई स्थान नहीं है। वास्तव में, शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध प्रेम पर आधारित होना चाहिए, न कि पाश्विक शक्ति पर।
2. प्रभावात्मक अनुशासन (Impressionistic Discipline)- प्रभावात्मक अनुशासन का आधार आदर्शवाद है। के मतानुसार शिक्षक को बालकों में अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से अनुशासन उत्पन्न करना चाहिए, न कि आदर्शवादियों पाश्विक ढंग से दण्ड देकर। अध्यापक के विचार, उसका चरित्र, उसके आदर्श इतने ऊंचे होने चाहिए कि विद्यार्थी उसके व्यक्तित्व के सामने नतमस्तक हो जाए और स्वयं भी वैसा ही बनने का प्रयास करें।
आलोचना– ऐसे अनुशासन में बालक को उसकी अपनी प्रकृति के अनुसार विकसित होने के अवसर नहीं मिलते। वह मात्र शिक्षक की प्रतिलिपि बन जाता है और यह एक प्रकार से उसकी सम्पूर्ण मौलिकता का हनन है। फिर, सबसे बड़ी बात यह है कि आजकल ऐसे शिक्षक मिलते ही कहाँ हैं, जिनका जीवन आदर्शमय हो, अनुकरणीय हो, वन्दनीय हो और जब ऐसे शिक्षकों का अभाव है, तो ऐसे अनुशासन की कल्पना भी व्यर्थ ही है।
3. मुक्तयात्मक अनुशासन (Emancipationistic Discipline)- मुक्त्यात्मक अनुशासन से आशय है—स्वतन्त्रता पर आधारित अनुशासन, अर्थात् बालक को अपने विकास के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, तभी वे अपनी रुचियों, प्रवृत्तियों एवं भावनाओं के अनुसार कार्य कर सकेंगे और अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सकेंगे। इस अनुशासन के विशेष समर्थक रूसो और स्पेन्सर हैं। आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी इसी सिद्धान्त के समर्थक हैं। वे दमनात्मक एवं प्रभावात्मक अनुशासन के विरोधी हैं। उनके मतानुसार दमनात्मक अनुशासन बालक में मानसिक प्रन्थियाँ उत्पन्न कर देता है तथा प्रभावात्मक है शासन, बालकों की विभिन्नताओं पर ध्यान न देकर उन पर शिक्षक के व्यक्तित्व को थोपने का प्रयास करता है।
आलोचना-इस अनुशासन में स्वतन्त्रता पर आवश्यकता से अधिक बल दिया गया है, जो गलत है। स्वतन्त्रता निश्चित सीमाओं में अथवा निर्देशित होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो विकास गलत दिशा में भी हो सकता है।
अनुशासन के विभिन्न सिद्धान्तों का समन्वय (Synthesis of the Various Theories of Discipline)
वस्तु-स्थिति यह है कि संसार के किसी भी देश के किसी भी विद्यालय में किसी विशिष्ट प्रकार के अनुशासन का अनुकरण नहीं किया जा रहा। प्रायः विद्यालयों में अनुशासन के तीनों प्रकारों का समन्वित रूप ही हमें देखने को मिलता है। विद्यालयों में आवश्यकता पड़ने पर शारीरिक दण्ड का भय भी दिखाया जाता है, इसके साथ ही शिक्षक अपने आदर्श एवं उच्च विचारों से बालकों को प्रभावित करने का भी प्रयास करता है तथा इसके साथ आधुनिक मनोवैज्ञानिक विचारधारा को स्वीकार करके वह बालकों को उचित स्वतन्त्रता भी प्रदान करता है।
वैसे आजकल प्रायः सभी शिक्षाविद दमनात्मक अनुशासन के पूर्णतया विरोधी हैं। उनके अनुसार बालकों में अनुशासन उत्पन्न करने के लिए शिक्षक को अपने प्रभाव का भी प्रयोग करना चाहिए तथा बालक को अभिव्यक्ति की पर्याप्त स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिए। इस प्रकार हम यह समझते हैं कि विद्यालयों में प्रभावात्मक एवं मुक्तयात्मक सिद्धान्तों के समन्वित रूप का ही अनुकरण किया जाना चाहिए।
अनुशासनहीनता के कारण (Causes of Indiscipline )
अनुशासनहीनता कक्षा में भी पाई जाती है और कक्षा के बाहर भी। अतः हम इन दोनों के परिप्रेक्ष्य में विचार करेंगे।
कक्षा में अनुशासनहीनता के कारण
- बालकों पर क्योंकि व्यक्तिगत रूप से कोई ध्यान नहीं दिया जाता, अतः वे शरारत करने लगते हैं।
- कुछ शिक्षक अनुशासन स्थापित करने में दमन का सहारा लेते हैं, लेकिन वे अधिक दिनों तक सफल नहीं हो पाते।
- जब कक्षा में छात्रों की संख्या अत्यधिक हो जाती है तो उन पर नियन्त्रण रखना कठिन हो जाता है।
- कुछ बालकों में परिवार या मित्रों के कारण बुरी आदतें पड़ जाती हैं, जिसके कारण वे अनुशासनहीन हो जाते हैं।
- कुछ शिक्षक अत्यन्त नीरस ढंग से पढ़ाते हैं, इससे भी विद्यार्थी शोर करने लगते हैं।
- जब किसी विद्यालय की स्थिति ठीक नहीं होती तो आने वाले जुलूसों, हड़तालों आदि से विद्यार्थियों का ध्यान उस ओर आकृष्ट होता है और वे शरारतें करने लगते हैं।
- कभी-कभी कक्षा की दशायें ठीक न होने पर छात्र अनुशासनहीन हो जाते हैं। प्रकाश का अभाव, फर्नीचर कम होना या बैठने के लिए कम स्थान आदि से विद्यार्थी अध्ययन में कम ध्यान देते हैं।
- विद्यालयों में जब अप्रशिक्षित व अनुभवहीन शिक्षक नियुक्त कर लिए जाते हैं तो कक्षा में वे विद्यार्थियों पर प्रभाव नहीं डाल पाते, इससे विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता पनपने लगती है।
- कुछ बालकों में अंक अधिक प्राप्त कर लेने के बाद अहं की भावना जाग्रत हो जाती है, वे कम अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को हानि पहुँचाने की चेष्टायें किया करते हैं, इससे भी अनुशासनहीनता फैलती है।
- कक्षा में प्रायः विद्यार्थियों को प्रश्न पूछने एवं अपनी शंकाओं के समाधान के अवसर प्राप्त नहीं होते, इससे वे असन्तुष्ट रहते हैं और आगे चलकर अनुशासनहीन हो जाते हैं।
कक्षा के बाहर अनुशासनहीनता के कारण (Causes of Indiscipline Outside the Class Room)
1. प्रायः बालक परिवार में कुछ लोगों की बुरी आदतों का अनुकरण करने लगते हैं, इससे वे शुरू से ही अनुशासनहीनता का शिकार हो जाते हैं।
2. आज हमारे शिक्षक न तो ज्ञान के पुँज हैं और न उनका चरित्र ही ऊँचा है, अतः ऐसे शिक्षकों का प्रभाव बालक पर कुछ भी नहीं पड़ता।
3. आज के पूँजीवादी युग में सर्वत्र धन का महात्म्य है। अध्यापक की आर्थिक स्थिति इतनी शोचनीय होती है कि समाज में उसे कोई मान नहीं देता। ऐसी स्थिति में बालक भी शिक्षक के नियन्त्रण से बाहर रहते हैं।
4. आजकल कॉलेजों में विद्यार्थी अनेक गलत कार्य करते हैं, किन्तु उन्हें उनकी उदण्डता का उचित दण्ड नहीं मिलता। इससे और अनेक छात्र भी अनुशासन भंग करने लगते हैं।
5. अनुशासनहीनता के लिए राजनीतिक दल भी दोषी हैं। वे अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार के लालच देकर भड़काते हैं। इस कारण भी विद्यार्थी अनुशासनहीन हो जाते हैं।
6. हमारी शिक्षा पद्धति भी अनुशासनहीनता के प्रमुख कारणों में से एक है, क्योंकि विद्यार्थियों को जिन विषयों की शिक्षा दी जाती है, वे न तो उपयोगी हैं और न समय के अनुसार ही ।
7. वर्तमान समय में विद्यालय ज्ञान की दुकानों के रूप में परिवर्तित हो गये हैं, जहाँ ज्ञान पैसे से प्राप्त किया जा सकता है। शिक्षा और ज्ञान के प्रति यह दृष्टिकोण अनुशासनहीनता के लिए उत्तरदायी है।
8. अनुशासनहीनता का एक प्रमुख कारण है-नैतिक शिक्षा का अभाव। इसके परिणामस्वरूप विद्यार्थी उचित और अनुचित में तथा अच्छे और बुरे के बीच भेद नहीं कर सकता।
9. वर्तमान परीक्षा प्रणाली भी अनुशासनहीनता के लिए उत्तरदायी है। जब कुछ विद्यार्थी बिना पढ़े, केवल नकल करके अच्छे अंकों में उत्तीर्ण हो जाते हैं तो. अन्य विद्यार्थी सोचते हैं, हम भी ऐसा ही क्यों न करें। इससे अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलता है।
10. अनुशासनहीनता के अन्य कारण हैं-
- सैनिक शिक्षा का अभाव,
- शारीरिक शिक्षा का अभाव,
- श्रम के महत्व की शिक्षा का अभाव,
- अनुचित विद्यालय भवन,
- अध्यापकों की कमी,
- दूषित सामाजिक वातावरण,
- सहगामी क्रियाओं की कमी,
- छात्र संघ ।
विद्यालय में अनुशासन रखने के सुझाव (Suggestions for Maintaining Discipline in Schools)
विद्यार्थियों को सदमार्ग पर ले जाने, उनके चरित्र को उच्च बनाने तथा उन्हें एक कर्त्तव्यपरायण नागरिक बनाने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि विद्यार्थियों में अनुशासन हो । रेन के शब्दों में, “सेना, नौ सेना या राज्य की भाँति . विद्यालय के अस्तित्व के लिए भी अनुशासन पहली आवश्यकता और पहली शर्त है ।”
“As in the Army, the Navy, or the State, so in the school, the pre-requisite, the very condition of existence is discipline.” -Wren.
विद्यालयों में अनुशासन स्थापित करने की दृष्टि से डब्ल्यू० पी० शोरिंग (W. P. Shoring) ने अग्र तीन प्रकार के अनुशासनों का प्रयोग बतलाया है—
- सृजनात्मक अनुशासन (Constructive Discipline),
- प्रतिबन्धात्मक अनुशासन (Preventive Discipline),
- उपचारात्मक अनुशासन (Remedial Discipline)
1. सृजनात्मक अनुशासन – सृजनात्मक अनुशासन से यह आशय है कि बालकों से ऐसी बातें कही तथा ऐसे काम करवाये जायें, जिससे उनमें अपने आप अनुशासन की भावना का सृजन या जन्य हो। इस दृष्टि से निम्न बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए-
- बालकों को निषेधात्मक निर्देश नहीं देने चाहिएँ, जैसे—यह मत करो, वहाँ मत जाओ आदि।
- बालकों की रुचियों इच्छाओं और आवश्यकताओं की ओर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए तथा उन्हें पूर्ण करने का भरसक प्रयत्न किया जाना चाहिए।
- शिक्षक द्वारा बालक के व्यक्तित्व का आदर किया जाना चाहिए।
- विद्यालय की परम्परायें एवं आदर्श, सृजनात्मक अनुशासन के अनुरूप होने चाहिएँ
- विद्यार्थियों को पाठ्य सहगामी क्रियाओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए
- बालकों को समय के सदुपयोग की शिक्षा दी जानी चाहिए
- शिक्षक अपने व्यक्तित्व से बालकों को प्रभावित करे
- बालकों को सृजनात्मक खेलों में भाग लेने हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- विद्यालय में जो भी कार्यक्रम आयोजित किए जाएँ, उनमें छात्रों का अधिक से अधिक सहयोग लिया जाना चाहिए।
- बालक अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्त्तव्यों को भी समझें।
2. प्रतिबन्धात्मक अनुशासन- इस अनुशासन से यह आशय है कि बालकों पर ऐसे प्रतिबन्ध या अंकुश लगाये जाएँ, जिससे कि उनमें अनुशासनहीनता उत्पन्न न होने पाए। इस सन्दर्भ में निम्न सुझाव प्रस्तुत हैं-
- शिक्षक को कक्षा के प्रत्येक बालक का नाम याद होना चाहिए।
- पाठ पढ़ाते समय शिक्षक को रोचक विधि का प्रयोग करना चाहिए।
- पाठ पढ़ाते समय शिक्षक को इधर-उधर घूमना नहीं चाहिए।
- शिक्षक को न तो बालक को आवश्यकता से अधिक डाँटना चाहिए, न उसकी कड़ी आलोचना करनी चाहिए।
- सत्र के आरम्भ से ही शिक्षक को अनुशासन के स्थापन पर बल देना चाहिए।
- बालकों के बैठने के लिए उचित स्थान की व्यवस्था होनी चाहिए
- पढ़ाते समय शिक्षक को इधर-उधर न देखकर सीधे छात्रों की ओर ही देखना चाहिए।
- बालकों में यह अनुभूति होनी चाहिए कि शिक्षक को उनसे पूर्ण सहानुभूति है
- अध्यापन कार्य में बाधा डालने वाले छात्र को शिक्षक द्वारा प्रेम और शान्ति से समझा दिया जाना चाहिए।
- अनुशासनहीनता का जहाँ कहीं भी सन्देह हो, शिक्षक को उस पर उसी समय नियन्त्रण करना चाहिए।”
- जो बालक पढ़ने में रुचि न ले रहा हो, उसे शिक्षक को चेतावनी दे देनी चाहिए।
- विद्यालय का वातावरण सुन्दर व आकर्षक होना चाहिए।
3. उपचारात्मक अनुशासन- इस अनुशासन से आशय है-अनुशासनहीनता के कारणों को जानना, फिर उन कारणों को दूर करना। इन्हें ‘निदान’ और ‘उपचार’ (Diagnosis and Treatment) कहा जाता है। इस सन्दर्भ में निम्न बातें उल्लेखनीय हैं-
- जब तक अपराधी बालक का उपचार न हो जाए, उसे अन्य बालकों से अलग रखना चाहिए।
- कुछ भी निर्णय करने से पूर्व बालक को अपने अपराध के बारे में सभी बातों को बताने का अवसर दिया जाना चाहिए।
- अपराधी बालक से उसके अपराध के बारे में स्पष्ट बातें की जानी चाहिएँ।
- बालक को अपराध के लिए जो भी दण्ड दिया जाए, वह काफी सोच-समझकर दिया जाए।
- बालक को उसके अपराध के सन्दर्भ में क्षमा माँगने के लिए विवश नहीं किया जाना चाहिए।
- दण्ड दिए जाने के बाद बालक से उसके अपराध के बारे में कोई बात नहीं की जानी चाहिए।
- बालक के अपराध और दण्ड की चर्चा सभी छात्रों के सम्मुख नहीं की जानी चाहिए।
- यदि अपराधी छात्र का पता न लग पाए तो सभी छात्रों से अनुरोध किया जाए कि वे ऐसा कार्य न करें।
- केवल शैतान छात्रों को ही दण्ड देना चाहिए, न कि उनके कारण सम्पूर्ण कक्षा को ।
- बालक में सुधार के लिए उसके माता-पिता या संरक्षक से सहयोग प्राप्त किया जाना चाहिए।
- अपराधी बालक को डराना या धमकाना नहीं चाहिए।
- शिक्षक को यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि बालक ने अपराध क्यों किया ?
- दण्ड देते समय बालक का अपमान या उपहास नहीं करना चाहिए।
- दण्ड अपराध के स्वरूप के अनुरूप होना चाहिए।
- नये शिक्षकों को अनुशासन स्थापित करने की दृष्टि से अनुभवी शिक्षकों का सहयोग प्राप्त किया जाना चाहिए।
- बालक के सुधार के लिए किए जाने वाला उपचार उसकी समझ में आ जाना चाहिए।
- बालक को उसके अपराध का दण्ड तब तक नहीं देना चाहिए, जब तक शिक्षक को इस विषय में विश्वास न हो जाए।
- बालकों द्वारा किए जाने वाले छोटे उच्छृंखल कार्यों को अनुशासनहीनता नहीं समझा जाना चाहिए।
- यदि अनुशासन भंग करने वाले छात्र कोई अच्छा कार्य करते हैं तो समस्त कक्षा के सामने उनकी प्रशंसा करनी चाहिए।
- बालक को दण्ड देने के बाद हर प्रकार की सावधानी बरती जानी चाहिए, जिससे वह भविष्य में कोई अनुचित कार्य न कर बैठे।
विद्यालय में अनुशासन स्थापित करने की दृष्टि से निम्न उपायों को कार्यान्वित किया जाना चाहिए-
1. अध्यापकों द्वारा अपनाई गई शिक्षण विधि रोचक होनी चाहिए, जिससे पढ़ने के प्रति छात्रों में अभिरुचि जाग्रत हो।
2. शिक्षक का सभी छात्रों से एक-सा व्यवहार होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, वह छात्रों से पक्षपातपूर्ण व्यवहार न करे।
3. जो छात्र पढ़ने में पिछड़े हों या जो छात्र सामान्य रूप से अन्य विद्यार्थियों के समान प्रगति कर पाने में असमर्थ हों, उनके लिए अतिरिक्त कक्षाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए।
4. विद्यालय में खेल-कूद, सांस्कृतिक आयोजनों तथा यात्राओं आदि की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए, इससे विद्यार्थी अपनी शक्तियों का उचित उपयोग कर सकेंगे।
5. अध्यापक को विद्यार्थियों के समक्ष अपना आदर्श व्यवहार एवं आचरण प्रस्तुत करना चाहिए, जिससे विद्यार्थी उनका अनुकरण कर उचित मार्ग पर अमसर हो सकें।
6. छात्रों को विभिन्न अवसरों पर आयोजित होने वाली अन्तर्विद्यालयीय प्रतियोगिताओं में पुरस्कार प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
7. पुरस्कार प्राप्त करने वाले, अच्छे अंक प्राप्त करने वाले अथवा विशेष योग्यता प्रदर्शित करने वाले छात्रों के नाम तालिका पट्ट पर प्रतिवर्ष अंकित कराये जाने चाहिएँ ।
8. जहाँ तक सम्भव हो, निर्धन छात्रों की धन व पुस्तकों आदि से मदद की जानी चाहिए। उनके लिए छात्रावासों में भी निःशुल्क रहने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
9. विद्यालय में थोड़े-थोड़े समय के उपरान्त अभिभावकों व शिक्षकों की भेंट होती रहनी चाहिए, जिससे शिक्षक अपने छात्रों के व्यक्तित्व, उनकी अच्छाइयों व बुराइयों से पूर्ण रूप से अवगत हो सकें।
10. यदि बालक कोई अपराध करता है तो उसको दण्ड देने के लिए मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए। दण्ड देने का उद्देश्य बालक का सुधार हो, न कि उसमें प्रतिक्रियायें जामत कर उसे और अधिक अपराध करने के लिए उत्तेजित करना ।
11. विद्यालय में सामूहिक जीवन को उन्नत बनाने की दिशा में पूर्ण प्रयास किए जाने चाहिएँ। प्रधानाचार्य और शिक्षकों के मध्य सम्बन्ध तथा शिक्षकों के परस्पर मध्य सम्बन्ध अत्यधिक मैत्रीपूर्ण होने चाहिए।
12. विद्यालय में न शिक्षकों में, न ही छात्रों में कोई दलबन्दी अथवा गुटबन्दी होनी चाहिए।
13. प्रश्न चाहे विद्यालय की किसी समस्या का हो अथवा शैक्षिक विकास से सम्बन्धित कोई आयोजन या कार्यक्रम हो, राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप किसी भी रूप में नहीं होना चाहिए।
14. कुछ शिक्षकों द्वारा कक्षाध्यापन के स्थान पर विद्यार्थियों को दिन-रात घर पर ट्यूशन पढ़ने के लिए विवश करने तथा ट्यूशन पढ़ने वाले विद्यार्थियों को परीक्षाओं में अधिक अंक दिलवाने आदि कुप्रवृत्तियों पर सरकार की ओर से अंकुश लगाया जाना चाहिए।
15. भारत के सभी राज्यों में विद्यार्थियों की नकल करने की प्रवृत्ति पर सख्ती से रोक लगायी जानी चाहिए। इससे विद्यार्थी स्वतः स्वाध्याय की ओर प्रेरित होंगे।
16. इस बात पर यथोचित बल दिया जाना चाहिए कि देश के सभी राज्यों के अधिकांश विद्यालयों में निर्देशन केन्द्र स्थापित हों। शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त विद्यार्थियों को उचित जीविकाओं में प्रवेश दिलाना भी विद्यालयों का एक प्रमुख उत्तरदायित्व होना चाहिए।
17. यदि विद्यार्थी कभी अपनी माँगें प्रस्तुत करते हैं तो उन पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाना चाहिए। सभी उचित माँगों को मान लिया जाना चाहिए।
18. विद्यालयों में छात्र संघों को सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए ही प्रेरित किया जाना चाहिए।
19. विद्यालयों में उच्च स्तर के पुस्तकालय होने चाहिएँ। विद्यार्थियों को खाली घण्टों में पुस्तकालय में अध्ययन करने के स्पष्ट निर्देशन होने चाहिए।
20. विद्यालय में शिक्षकों तथा छात्रों की नियमित उपस्थिति पर बल दिया जाना चाहिए। जो शिक्षक अथवा छात्र प्रायः अनुपस्थित रहे, उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए।
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