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आदर्शवाद का अर्थ, परिभाषा, शैक्षिक उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि

आदर्शवाद का अर्थ, परिभाषा, शैक्षिक उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि
आदर्शवाद का अर्थ, परिभाषा, शैक्षिक उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधि

आदर्शवाद से आप क्या समझते हैं ? आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्यों और उनकी पाठ्यचर्या की विस्तृत व्याख्या कीजिए।

आदर्शवाद का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Idealism)

सामान्य रूप से आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य उस अनुभव तथा ज्ञान और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया से है जिसके कारण मनुष्य में मूल्य, सद्गुण और आदर्श बढ़ते हैं और में उसका चतुर्दिक विकास होता है तथा आत्मानुभूति होती है, ईश्वर की प्राप्ति होती है।

इससे स्पष्ट है कि शिक्षा के क्षेत्र में आदर्शवाद का एक विशिष्ट स्थान है। प्लेटो ने बताया कि “शिक्षा ज्ञान, विवेक, सद्गुण का व्यक्ति में विकास करता है जिससे कि वह समाज के साथ अच्छी तरह समायोजन करता है और बुराइयों को दूर करता है।”

प्रो० काण्ट ने दूसरे प्रकार से इसी विचार को प्रकट किया है- “इस जगत में सफलता प्राप्त करने की योग्यता प्राप्ति ही शिक्षा नहीं है बल्कि मानवता के बाद से समाज के लिए तैयारी ही शिक्षा है।”

फ्रॉबेल ने थोड़ा आगे बढ़कर आदर्शवादी शिक्षा का तात्पर्य दिया है : “शिक्षा मानव जीवन के लगातार विकास की क्रिया है जो उसे भौतिक ज्ञान देती है और आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ले जाती है और अन्त में ईश्वर के साथ एकता कराती है।”

ऋषि याज्ञवल्क्य ने कहा है कि “शिक्षा वह है जो मनुष्य को सच्चरित्र और मानवता के लिये उपयोगी बनाती है।” (Education is that which makes man of good character and capable to serve humanity) । यह किस प्रकार सम्भव है ? इसका उत्तर स्वामी विवेकानन्द ने दिया है। उनका विचार है जब तक मनुष्य अपने आपको नहीं जानता है वह मानवता के लिये उपयोगी नहीं बन पाता है। मनुष्य क्या है ? इसके उत्तर में स्वामी जी ने बताया है कि वह ‘पूर्ण ब्रह्म’ है और इसी पूर्णता को समझना या प्रकट करना सच्ची शिक्षा है। इसलिए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि “शिक्षा मनुष्य में पहले से उपस्थित पूर्णता का प्रकाशन है।”

आगे उन्होंने स्पष्ट किया है कि पूर्णता भौतिक और आध्यात्मिक तत्त्वों के ज्ञान की प्राप्ति में पाई जाती है जिससे कि मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करता है।

ऊपर के भारतीय तथा पाश्चात्य दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा वह सांसारिक और आध्यात्मिक अनुभव ज्ञान है जिससे मनुष्य को पूर्णता प्राप्त होती है, मुक्ति मिलती है अथवा ईश्वर मिलता है। शिक्षा इस प्रकार से मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा का विकास है।

आदर्शवाद का शैक्षिक उद्देश्य (Educational Aims of Idealism)

आदर्शवाद के अनुसार हम शिक्षा का उद्देश्य आत्मा की अनुभूति (Realization of Self) मानते हैं। आत्मा की अनुभूति एक ऐसा आदर्श है जिसमें मनुष्य की आध्यात्मिकता का पूर्ण प्रकाशन होता है। आत्मा की अनुभूति उस समय पूर्ण कही जा सकती है जब मनुष्य मन-कर्म है से शुद्ध होकर, भक्तिभावना के साथ, अपना सब कुछ भगवान को और उसकी सृष्टि (मानव, पशु सभी) को अर्पण कर देता है, वह अपने आपको तथा संसार के सभी लोगों के हित में अपने जीवन को लगा देता है। यही उसे आध्यात्मिक, अलौकिक, अमर, सत्य, ज्ञान और आनन्द की प्राप्ति होती है। शिक्षा का अन्तिम एवं परम उद्देश्य यही आत्मानुभूति है। प्रो० रॉस ने लिखा है कि, “आदर्शवाद के साथ विशेष रूप से सम्बन्धित शिक्षा का उद्देश्य है आत्मानुभूति या आत्मा की सर्वोच्च शक्तियों को वास्तविक बनाना।” यह उद्देश्य इसलिए है कि आत्मानुभूति कहाँ तक हुई इसको प्रकट करे। यदि मनुष्य सार्वलौकिक गुणों एवं मूल्यों से युक्त होता है तो उसकी जाँच उसके द्वारा किये गये समायोजन से होती है। अतः पाश्चात्य एवं भारतीय दोनों देशों के आदर्शवादियों ने शिक्षा का यह उद्देश्य महत्त्वपूर्ण बताया है। प्लेटो और विवेकानन्द जैसे आदर्शवाद के प्रतिनिधियों में भी यह विचार मिलता है।

(1) सभ्यता एवं संस्कृति के ज्ञान, संरक्षण तथा विकास का उद्देश्य- मनुष्य अपनी बुद्धि एवं श्रमशीलता से अपने स्वयं एवं समूह के हित के लिए जो कुछ निर्मित करता है वह उसकी सभ्यता के प्रति मनुष्य के भावों तथा संस्कारों को संगठन एवं क्रियान्वयन उसकी संस्कृति है। प्राचीन काल से आज तक शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की सभ्यता एवं संस्कृति को समझना, ग्रहण करना, सुरक्षित रखना और आगे बढ़ाना रहा है, अन्यथा आज मनुष्य की दशा असभ्य एवं असंस्कृत होती, वह पशु की श्रेणी में ही रहता। अतएव शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य आदर्शवाद के अनुसार कहा गया है और सभी ने इसे स्वीकार भी किया है।

(2) पवित्र जीवन से विश्व में समरसता स्थापित करने का उद्देश्य- शिक्षा में आदर्शवाद होने से मानव जीवन की पवित्रता पर बल दिया गया। इसको व्यावहारिक रूप देने के लिए विश्व में एक प्रकार की समरसता लाना उसका कर्त्तव्य माना गया। फलस्वरूप यह उद्देश्य सामने आया। फ्रॉबेल जैसे आदर्शवादी ने बताया कि “शिक्षा का उद्देश्य है भक्तिपूर्ण, विशुद्ध तथा निष्कलंक और इस प्रकार पवित्र जीवन की प्राप्ति।” ईश्वर में भक्ति एवं विश्वास होने से मनुष्य संसार में समरसता लाता है। इसलिए प्रो० भाटिया ने लिखा है कि “शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य की इस प्रकार सहायता करना और उसकी शक्तियों प्रेरित करना है कि वह अपने और विश्व के बीच समन्वय और समरसता स्थापित कर सके।” आज विश्व-बन्धुत्व तथा अन्तर्राष्ट्रीय अवबोध के लिये शिक्षा देने का यही उद्देश्य है। अतएव प्राचीन काल से आज तक शिक्षा का यह उद्देश्य आदर्शवाद ने बताया जिसे सभी शिक्षाशास्त्रियों ने माना है।

(3) अनुसन्धान शक्ति के विकास का उद्देश्य- शिक्षाशास्त्रियों का विचार है कि शिक्षा का एक उद्देश्य ज्ञान की खोज में मनुष्य को लगाना है क्योंकि ज्ञान से बढ़कर कोई पवित्र वस्तु नहीं है- ऐसा गीता का वाक्य है अन्य धर्मों में भी ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। प्रो० रस्क ने इस उद्देश्य के लिये लिखा है कि, “अपने नाम को सार्थक बनाने वाली कोई भी शिक्षा व्यक्ति की उन अनुसन्धानात्मक शक्तियों का विकास कर सकती है जो उसे प्राप्त सामग्री पर पूर्ण अधिकार के समर्थ बनाती है।” सही भी ही है कि मनुष्य की आत्मिक पूर्णता वहीं प्रकट होती है जब वह अनुसंधान करने में सफल होता है। यह नया दृष्टिकोण नहीं है। उपनिषदों में आत्मा की खोज की जाती थी, वह यही तो है। आज भी शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान पूरा होने पर ज्ञान की पूर्णता मानी जाती है। अतएवं आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का एक महान श्रेष्ठ उद्देश्य इसे भी कहा गया है।

आदर्शवाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में प्लेटो को लिया जाता है। उसके अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

  1. ज्ञान और मूल्यों को धारण करना,
  2. आदर्श नागरिक का निर्माण करना,
  3. शारीरिक मानसिक विकास करना,
  4. आत्म-बोध और आध्यात्मिक विकास करना,
  5. नागरिक कुशलता के द्वारा राज्य की एकता लाना,

आदर्शवाद के भारतीय प्रतिनिधि स्वामी विवेकानन्द के द्वारा शिक्षा के निम्न उद्देश्य बताये गये हैं-

  1.  परमपूर्णता की प्राप्ति करना,
  2.  सद्गुणी मानव का निर्माण करना,
  3.  धार्मिक, नैतिक, चारित्रिक विकास करना,
  4.  मानव समाज तथा मातृभूमि की सेवा की योग्यता प्रदान करना,
  5.  शारीरिक विकास करना,
  6. अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना और विश्वबन्धुत्व का विकास करना,
  7. धर्म के साधन के रूप में आर्थिक विकास करना।

“आदर्शवाद के इन दोनों प्रतिनिधियों के द्वारा दिये गये शिक्षा के उद्देश्यों में पर्याप्त समानता मिलती है जिसका कारण यह है कि मूलतः सभी आदर्शवादी एक समान परमशक्ति में विश्वास करते रहे और उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करने के लिए शिक्षा की सहायता लेने को कहते रहे। अतएव शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य आत्मा का ज्ञान सबने माना। अन्य उद्देश्य इसी से जुड़े रहे और यदि कुछ भिन्नता दिखाई तो वह आत्मों की विविध व्याख्या के कारण है।

आदर्शवाद का पाठ्यक्रम (Curriculum of Idealism)

शिक्षा के उद्देश्य के अनुकूल शिक्षा का पाठ्यक्रम (Curriculum) भी होता है। आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य आत्मा की अनुभूति है, पूर्णता की प्राप्ति है तथा सद्गुणों है का विकास एवं धारण करना है। इस प्रकार से इसी के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा हो जो शारीरिक, बौद्धिक, चारित्रिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक पूर्णता प्रदान करे। इसके लिए आदर्शवादी मानव जाति के अनुभवों, विचारों, आदर्शों, परम्पराओं, मूल्यों आदि पर विशेष ध्यान देते रहे हैं।

उपर्युक्त दृष्टि से आदर्शवादियों ने पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों एवं क्रियाओं से सम्बन्धित किया है। सत्यं शिवं सुन्दरं का आधार लेकर नीचे लिखे विषय एवं क्रियाएँ आदर्शवादी पाठ्यक्रम में रखी गई हैं। प्लेटो का विचार कुछ इस प्रकार का था-

सत्यं – भाषा, साहित्य, इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान, दर्शन, ज्योतिष, बौद्धिक, क्रियाएँ ।

शिवं – धर्म, अध्यात्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, समाज सेवा व मानव सेवा से सम्बन्धित क्रियाएँ, शारीरिक क्रियाएँ, स्वास्थ्य रक्षा की क्रियाएँ, सैनिक शिक्षा, उद्योग।

सुन्दरं- कविता, संगीत, कला-कौशल, निर्माण – रचना सम्बन्धी क्रियाएँ, सफाई सुरक्षा की क्रियाएँ ।

आदर्शवादी पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में प्रो० रॉस का मत सर्वोत्तम मिलता है। इन्होंने कहा है कि “शारीरिक और आध्यात्मिक क्रियाएँ वास्तव में एकदम अलग-अलग नहीं हैं बल्कि काफी मात्रा में उनका आधार एक ही है। नैतिक मूल्य जो आध्यात्मिक है शारीरिक क्रियाओं में देखे जा सकते हैं।”

इस आधार पर प्रो० रॉस ने शारीरिक क्रियाओं से सम्बन्धित पाठ्यक्रम में शरीर रक्षा, स्वास्थ्य विज्ञान, खेल-कूद, व्यायाम, कौशल, तकनीकी विषय एवं तत्संबंधी सभी क्रियाओं को रखा है। दूसरी ओर आध्यात्मिक क्रियाओं से सम्बन्धित पाठ्यक्रम में बौद्धिक, सौंदर्यात्मक, धार्मिक विषय एवं क्रियाएँ हैं अर्थात् भाषा, साहित्य, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, नीतिशास्त्र, आचरण-व्यवहार, ललित कलाएँ, दर्शन, धर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र, तर्कशास्त्र आदि ।

भारतीय आदर्शवाद के मानने वालों में भी कुछ ऐसे ही विचार मिलते हैं। अपने देश में शिक्षा (विद्या) के द्वारा मुक्ति प्राप्त की जाती रही। इसीलिए वैदिक, ब्राह्मण एवं बौद्धिक काल में दर्शन, धर्म, अध्यात्मशास्त्र को पाठ्यक्रम में प्रथम स्थान दिया जाता था। भाषा, साहित्य, संगीत, कला, कौशल एवं उद्योग व्यवसाय को दूसरा स्थान दिया जाता था। दोनों प्रकार के पाठ्यक्रम को आदर की दृष्टि से देखते रहे हैं। आधुनिक समय के भारतीय आदर्शवादियों ने प्राचीन काल के आदर्शवादियों की अपेक्षा पाठ्यक्रम को व्यापक दृष्टि से देखा है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के विचार कुछ भिन्न अवश्य हैं जैसा कि दोनों को देखने से ज्ञात होत है।

आदर्शवाद की शिक्षण विधि (Teaching Methods of Idealism)

आदर्शवादियों ने शिक्षा की विभिन्न विधियों का प्रयोग प्राचीन काल से आज तक किया है। सुकरात के समय से ही आदर्शवादी-

(1) प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग करते रहे। प्लेटो, अरस्तू और इनके बाद आज तक शिक्षाशास्त्री इस विधि से काम लेते रहे हैं।

(2) संवाद या वाद-विवाद विधि जिसे प्लेटो ने डाइलेक्टिक विधि कहा है, का प्रयोग प्राचीन यूनान तथा भारत में भी हुआ।

(3) तर्क-विधि का प्रयोग अरस्तू ने किया जिसमें आगमन और निगमन दोनों पद्धतियों को काम में लाया गया। इस तर्क-विधि का प्रयोग आधुनिक काल के आदर्शवादी हीगेल ने किया।

(4) अभ्यास और आवृत्ति विधि का प्रयोग पेस्टॉलोजी ने किया।

(5) क्रिया एवं खेल विधि का प्रयोग फ्रॉबेल ने किया।

(6) स्वानुभव एवं स्वक्रिया विधि के प्रयोग पर जोर दिया।

(7) आत्मानुभूति और अन्तर्दृष्टि की विधि पर भी भारतीय विचारक जोर देते रहे हैं। आधुनिक समय में।

(8) व्याख्यान विधि का प्रयोग आदर्शवादी दृष्टिकोण को बताता है क्योंकि शब्दों के माध्यम से इसमें ज्ञान दिया जाता है।

(9) पाठ्य-पुस्तक विधि व्याख्यान का लिखित रूप है क्योंकि व्याख्यान में मौखिक रूप से ज्ञान प्रदान किया जाता है जबकि पाठ्यपुस्तक की विधि में लिखित विचार प्रस्तुत किये जाते हैं। आदर्शवाद के पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में हम प्लेटो द्वारा बताई गई शिक्षा विधि को यहाँ प्रस्तुत करेंगे। प्लेटो ने आगे लिखी शिक्षा-विधियों के प्रयोग के लिए कहा है और स्वयं इनका प्रयोग भी किया है- (क) तर्कपूर्ण विवाद विधि, (ख) वर्तालाप विधि, (ग) प्रश्नोत्तर विधि, (घ) आगमन एवं निगमन विधि, (ङ) व्यावहारिक क्रियाविधि (च) समस्या समाधान विधि, (छ) स्वाध्याय विधि, (ज) खेल विधि, (झ) अनुकरण विधि। स्वामी विवेकानन्द भारतीय प्रतिनिधि के रूप में लिये गये हैं और उनके अनुसार शिक्षा की विधियाँ नीचे दी जा रही हैं- (क) योग विधि, (ख) श्रवण, मनन, निदिध्यासन की विधि, (ग) ध्यान-मनन से केन्द्रीकरण की विधि, (घ) उपदेश की विधि, (ङ) अनुकरण की विधि, (च) साधु संगति की विधि, (छ) भ्रमण विधि, (ज) क्रिया और व्यवहार की विधि।

दोनों शिक्षाशास्त्रियों द्वारा समर्पित शिक्षाविधियों में काफी समानता पाई जाती है और कुछ उनकी अपनी-अपनी शिक्षा विधियाँ हैं, जैसे प्लेटो की डाइलेक्टिक विधि है तो विवेकानन्द की केन्द्रीकरण की विधि है। ऐसी भिन्नता दोनों की सांस्कृतिक परम्पराओं के अलग-अलग होने के कारण पाई जाती है।

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Anjali Yadav

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