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आदिकाल के विभिन्न नामकरणों की विवेचना करते हुए शुक्लजी द्वारा किये गये नामकरण की सार्थकता पर विचार कीजिए।
अथवा
हिन्दी साहित्य के काल विभाजन एवं उसके नामकरण के औचित्य पर प्रकाश डालिए।
अथवा
हिन्दी साहित्येतिहास के आदिकाल का समय निर्धारण एवं नामकरण सम्बन्धी विविधताओं का विवेचन कीजिए।
हिन्दी साहित्य के काल विभाजन के बारे में अनुसंधान करने का प्रयास सर्वप्रथम जार्ज ग्रियर्सन ने अपने “माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान” (1886-1889) नामक इतिहास ग्रन्थ में किया। यद्यपि इसके पहले भी फ्रांसीसी लेखक- गार्सा-द-तासी तथा शिवसिंह सेंगर, शिवसिंह सरोज (1877 ई0) आदि ने हिन्दी साहित्य के इतिहास पर प्रकाश डाला था, परन्तु इसमें लिखा गया इतिहास बिखरा हुआ प्राप्त होता है। जार्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रन्थ में सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य के इतिहास को ऐतिहासिक कालक्रम से लिखने का प्रयास किया। काल विभाजन के साथ ही ग्रियर्सन ने विविध गुणों में वर्तमान साहित्य प्रवृत्तियों का भी द्योतन करने का प्रयास किया, परन्तु जार्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल विभाजन आगे चलकर मान्यता प्राप्त न कर सका।
ग्रियर्सन के बाद मिश्र बन्धुओं ने अपने ‘मिश्रबन्धु विनोद’ नामक इतिहास ग्रन्थ में हिन्दी साहित्य के काल विभाजन की समस्या उठायी। इनके इस ग्रन्थ में काल विभाजन की कोई निश्चित दिशा नहीं है। कहीं तो वे हिन्दी साहित्य के युगों को ‘आदिकाल’, ‘प्रौढ़ मध्यकाल’ आदि समय के आधार पर किये गये विभागों में बाँटते हैं और कहीं विभिन्न कवियों के नाम के आधार पर युग विशेष का नाम रखते हैं, जैसे ‘तुलसी युग’, ‘सूर युग’ आदि। यदि काल विभाजन की इस अनिश्चितता को परे रखकर देखा जाय तो मिश्र बन्धुओं (बिहारी, सुखदेव, श्याम बिहारी, कृष्ण बिहारी) द्वारा किया गया यह प्रयास हिन्दी भाषा में साहित्य के इतिहास की विस्तृत रूप-रेखा के निर्माण के क्षेत्र में किया गया स्तुत्य प्रयास कहा जा सकता है।
मिश्र बन्धुओं के काल विभाजन के पश्चात् आचार्य पं0 रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ नामक ग्रन्थ में हिन्दी साहित्य का प्रामाणिक काल विभाजन प्रस्तुत किया। उन्होंने 10वीं सदी से लेकर आधुनिक युग तक पूरे साहित्य के इतिहास के 900 वर्षों को चार भागों में विभाजित किया-
1-आदि काल (वीरगाथा काल संवत् 1050-1375 तक)
2- पूर्व मध्य काल (भक्तिकाल संवत् 1375-1700 तक)
3-उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल संवत् 1700-1900 तक)
4- आधुनिक काल (गद्यकाल संवत् 1900-1984 तक)
शुक्लजी द्वारा किये गये काल विभाजन का आधार- शुक्लजी ने हिन्दी साहित्य के इन चार कालों- वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल तथा गद्यकाल का नामकरण प्रत्येक युग की विशेष प्रवृत्तियों को ध्यान में रख कर किया था।
शुक्लजी द्वारा किया गया काल विभाजन
(1) वीरगाथा काल- हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक युग का नाम शुक्लजी ने ‘वीरगाथा काल’ रखा। यह नामकरण उन्होंने प्राप्त 12 पुस्तकों में ‘वीरगाथा काल’ वीरगाथात्मक साहित्य से सम्बन्धित पुस्तकों की अधिकता को देखते हुए किया। शुक्लजी स्वयं लिखते हैं—“आदिकाल का नाम मैंने ‘वीरगाथाकाल’ रखा है। उक्त काल के भीतर दो प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं-अपभ्रंश और देशज भाषा (बोलचाल) की।”
अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनों के धर्मत्व निरूपण सम्बन्धी हैं, जो साहित्य की कोटि में नहीं आतीं। शुक्लजी द्वारा उल्लिखित 12 पुस्तकें इस प्रकार हैं-
चार साहित्यिक पुस्तकें-(1) विजयपाल रासो, (2) हम्मीर रासो, (3) कीर्तिलता, (4) कीर्तिपताका।
देशज भाषा काव्य की आठ पुस्तकें-(1) खुमान रासो, (2) बीसलदेव रासो, (3) पृथ्वीराज रासो, (4) जयचन्द प्रकाश (5) जयमयंक जसचन्द्रिका (6) परमाल रासो (आल्हा का मूल रूप), (7) खुसरो की पहेलियाँ (8) विद्यापति पदावली।
इस अपभ्रंश तथा देशज भाषा के 12 ग्रंथों में अन्तिम दो तथा बीसलदेव रासों को छोड़कर शेष ग्रन्थ वीरगाथात्मक हैं। अतः वीरगाथाओं की प्रचुरता देखते हुए इस युग का ‘वीरगाथाकाल’ नामकरण ही किया जा सकता है, परन्तु शुक्लजी द्वारा प्रतिपादित इस नामकरण को स्वीकार करने में अनेक कठिनाइयाँ हैं, जिसका क्रमबद्ध विवेचन निम्न प्रकार है-
(1) शुक्लजी ने जिन उपर्युक्त 12 ग्रन्थों को अपने नामकरण का आधार बनाया, उसके अतिरिक्त भी अनेक रचनाएं प्रकाश में आयी हैं जो समय की दृष्टि से हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक युग में पड़ती हैं। आधुनिक विद्वानों के सतत परिश्रम एवं खोजों के परिणामस्वरूप और भी कई ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं, जिनका पता संभवतः शुक्लजी को नहीं था। उन्होंने इस युग की रचनाओं में वीरगाथात्मक रचनाओं की ही प्रचुरता देखी परन्तु आधुनिक खोजों के आधार पर हिन्दी के प्रारम्भिक युग में वीरगाथाओं के अतिरिक्त तीन और प्रवृत्तियों से सम्बन्धित रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं-
(i) बौद्ध, सिद्ध व नाथों तथा जैन मुनियों की योग एवं उपदेशात्मक रचनाएँ।
(ii) लौकिकता से ओत-प्रोत देशजभाषा के विरुद्ध काव्य, जैसे-संदेश रासक, ढोला-मारू-रा दूहा आदि।
(iii) अन्य विषयों से सम्बन्धित फुटकर कविताएँ जैसे-अमीर खुसरो की कविताएँ आदि।
(2) शुक्लजी ने जिन 12 ग्रन्थों के आधार पर युग का ‘वीरगाथाकाल’ नामकरण किया है, उनमें तीन रचनाओं विद्यापति पदावली, कीर्तिपताका तथा अमीर खुसरो की कविताओं का वीरगाथाओं से कोई सम्बन्ध नहीं। विद्यापति की ये दो रचनाएँ प्रेम और शृंगार से सम्बन्धित हैं। खुसरो की कविता शुद्ध रूप से लौकिकता को प्रश्रय देनेवाली है। जहाँ तक वीरगाथात्मक रचनाओं का सम्बन्ध है, इसमें तीन जयचन्द्र प्रकाश, जयमयंक जसचन्द्रिका तथा हम्मीर रासो नोटिस मात्र हैं। इसकी सूचना भर मिलती है, ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। पृथ्वीराज रासो और परमाल रासो की प्रामाणिकता में आज भी सन्देह है। बीसलदेव रासो तो शुद्ध रूप से एक विरह काव्य कहा जा सकता है। ऐसी स्थिति में शुक्लजी के नामकरण के सारे आधार ही खिसकते दिखायी पड़ते हैं।
इन सभी उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए शुक्लजी द्वारा प्रवृत्ति के आधार पर किया गया नामकरण उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि एक विशेष (वीरगाचा) के आधार पर किया गया नामकरण इस युग की अन्य प्रवृत्तियों से सम्बन्धित रचनाओं का समाहार अपने आप में नहीं कर पाता और स्वयं ही अव्याप्ति दोष से दूषित हो जाता है। इन सभी तर्कों को ध्यान में रखते हुए आचार्य डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने समय के आधार पर इस युग का नामकरण आदिकाल करने का सुझाव दिया है जो कुछ परेशानियों के होते हुए भी अधिकतर विद्वानों को मान्य है।
(2) भक्तिकाल- संवत् 1400 से 1600 के बीच हुई भक्ति संबंधी रचनाओं को देखते हुए आचार्य शुक्ल ने तीन सौ वर्षों के काल को ‘भक्तिकाल’ का नाम दिया है। इस पूरे काल के बीच भक्ति की दो प्रमुख धाराएँ प्रवाहित हुई—-(1) निर्गुण, (2) सगुण| पुनः इस निर्गुण और सगुण के भी क्रमशः ज्ञानाश्रयी तथा प्रेमाश्रयी रामभक्ति धारा तथा कृष्ण भक्ति धारा दो-दो भेद हुए।
इस प्रकार का नामकरण भी अव्याप्ति दोष से दूषित माना जायेगा। इन सभी कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए ही आचार्य डॉ0 हजारीप्रसाद द्विवेदी ने समय के ही आधार पर इस युग का ‘पूर्व-मध्य युग’ नाम रखने का सुझाव दिया है।
(3) रीतिकाल- आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने सम्वत् 1700 से 1900 के बीच हिन्दी साहित्य में रीति सम्बन्धी रचनाओं की प्रमुखता को देखते हुए, प्रवृत्ति के ही आधार पर इन दौ सौ वर्षों के काल का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया। इस पूरे युग में संस्कृत के आलोचनात्मक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों के अनुकरण का ही प्राचुर्य दिखायी पड़ता है। अतः इसका नामकरण ‘रीतिकाल’ ही उचित है। शुक्लजी ने इस काल का ‘रीतिकाल’ नामकरण करते हुए, समय के आधार पर किये जानेवाले नामकरण ‘उत्तर-मध्य युग’ या मिश्र बन्धुओं द्वारा किये गये कवियों के नामकरण के आधार पर नामकरण की तीव्र आलोचना की है। वे अपने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ पुस्तक की भूमिका में भी लिखते हैं—“रीतिकाल के भीतर रीतिबद्ध रचना की जो परम्परा चली है, उसका उपविभाजन करने का कोई संगत आधार मुझे नहीं मिला। रचना के स्वरूप आदि में कोई स्पष्ट भेद निरूपित किये बिना विभाग कैसे किया जा सकता है ?”
आचार्य शुक्ल द्वारा किये गये ‘रीतिकाल’ नामकरण पर भी विद्वान आलोचकों ने अनेक आपत्तियाँ उठायी हैं। एक तो शुक्लजी ने जिस युग में केवल रीति सम्बन्धी रचनाओं की ही प्रमुखता बतायी है उस युग में अनेक रीतिमुक्त कवि और उनकी रचनाएँ मिलती हैं। दूसरे रीति सम्बन्धी रचनाओं के अतिरिक्त इस युग की रचनाओं में भक्ति और वीरता का भी स्वर मुखर हुआ है। भूषण जैसे उच्चकोटि के वीर रस के उद्भावक कवि इसी युग में हुए। केशव जैसे रामभक्ति से सम्बन्धित कवि भी इसी युग की सीमा में पड़ते हैं। इस सबके अतिरिक्त ग्रंथों की शास्त्रीयता से अलग हटकर कवियों द्वारा की गयी रचनाओं के मूल को देखा जाये तो वह राधाकृष्ण की ललित एवं शृंगारिक भक्ति से ओतप्रोत हैं। ऐसी स्थिति में पूरे युग की विशेषताओं को अलग हटाकर तथा कविता की आत्मा पर ध्यान न देकर केवल उसके बाह्य कलेवर को देखकर किया गया नामकरण कभी भी उपयुक्त नहीं हो सकता। इस पूरे काव्यकाल में की गयी रचनाओं में ‘शृंगार’ की प्रमुखता को देखते हुए पं0 विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस युग को ‘शृंगारकाल’ नाम देना चाहा है। वे इस पूरे युग की काव्यधारा को तीन प्रमुख भागों में विभाजित करते हैं-
(1) रीतिबद्ध काव्यधारा- इसके अन्तर्गत घनानन्द, केशव, चिन्तामणि त्रिपाठी, मतिराम, देव आदि की रचनाओं को देखते हैं।
(ii) रीतिमुक्त काव्यधारा- इसके अन्तर्गत ठाकुर, बोधा, द्विजदेव आदि की उन्मुक्त प्रेमपरक अभिव्यक्तियों से सम्बन्धित काव्य रचनाओं को लिया गया है।
(iii) रीतिसिद्ध काव्यधारा- इसके अन्तर्गत बिहारी सतसई’ जैसी रीति से मुक्त होते हुए रीति का अनुसरण कर रची गयी कृतियों को रखा गया है। इन तीनों प्रकार की रचनाओं में मूल भाव शृंगार ही है। अतः मिश्र जी ने सुझाव दिया कि इस युग का नामकरण शृंगारकाल‘ किया जाना चाहिए। परन्तु इस नामकरण के विरोध में वही आपत्तियाँ उठायी जा सकती हैं। यदि केवल शृंगार को ही आधार मानकर युग का नामकरण कर दिया जायेगा तो इस युग में पायी जानेवाली भक्ति और वीररस से सम्बन्धित रचनाओं का संकेत न मिल सकेगा। नामकरण तो ऐसा होना चाहिए| जिससे युग की सभी प्रवृत्तियों का द्योतन भली-भाँति हो सके।
(4) गद्यकाल- हिन्दी साहित्य के पिछले तीन युगों में काव्य रचनाओं का ही बोलबाला रहा, गद्य रचनाएँ अस्तित्त्वहीन-सी रही हैं। अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद लगभग संवत् 1900 से गद्य रचनाओं का प्रचलन हुआ। इसी आधार पर आचार्य शुक्ल ने संवत् 1900 के बाद के सम्पूर्ण साहित्यिक रचनाओं के काल को ‘गद्यकाल’ कहना चाहा। उनकी दृष्टि में गद्य का आविर्भाव इस रचनाकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। परन्तु शुक्लजी द्वारा किये गये अन्य युगों के नामकरणों की भाँति इस युग के नामकरण को लेकर भी आपत्तियाँ उठायी गयी हैं। नामकरणों से ऐसा प्रतीत होता है, जैसे यह युग मात्र गद्य रचनाओं का युग है पर स्थिति इसके विपरीत है। हिन्दी की उच्चकोटि की काव्य रचनाओं तथा कविता से सम्बन्धित विविध वादों का आविर्भाव इसी काल में हुआ। ऐसी स्थिति में मात्र गद्य रचनाओं के आधार में पर युग का नामकरण उपयुक्त नहीं। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अंग्रेजों के इस शासनकाल में भारतीयों की चित्तवृत्ति और उनकी अन्तश्चेतना में आधुनिक युग की प्रगति के अनुकूल लक्षणों को देखते हुए ही, समय के आधार पर इस युग का नामकरण आधुनिक युग किया, जो आज प्रायः सभी विद्वान आलोचकों को स्वीकार्य है। वैसे भी सतत प्रगति की ओर बढ़ते मानवीय विचारों के इस युग को किसी एक प्रवृत्ति के दायरे में ला बैठाना असम्भव है।
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया काल विभाजन
आचार्य शुक्ल द्वारा किये गये प्रवृत्तिगत काल विभाजन की कमियों को ध्यान में रखते हुए द्विवेदी जी ने समय के आधार पर हिन्दी साहित्य के 1000 से भी अधिक वर्षों के इतिहास को चार काल खण्डों में बाँटा-
(1) आदिकाल- 10वीं से 14वीं शताब्दी तक,
(2) पूर्व मध्यकाल-14वीं से 16वीं शताब्दी के मध्य भाग तक,
(3) उत्तर मध्यकाल-16वीं से 19वीं शताब्दी के मध्य भाग तक,
(4) आधुनिक काल-19वीं शताब्दी के मध्यभाग से अब तक।
इस काल विभाजन में भी दोष ढूंढ़ा जा सकता है। हिन्दी साहित्य के विविध युगों को आदि, मध्य और आधुनिक इन तीन विभागों के अन्तर्गत रखना भी समीचीन नहीं। इनमें दो विभाग किये-मध्यकाल और आधुनिककाल भारत के ऐतिहासिक काल विभाजन से सम्बन्धित है। ‘आदिकाल’ की संगति इसके साथ नहीं बैठती परन्तु इस असंगति के रहते हुए भी आज के आलोचकों द्वारा यही काल विभाजन स्वीकार कर लिया गया है।
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