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आशा सर्ग की कथावस्तु का उल्लेख करते हुए उसके नामकरण पर प्रकाश डालिए।

आशा सर्ग की कथावस्तु का उल्लेख करते हुए उसके नामकरण पर प्रकाश डालिए।
आशा सर्ग की कथावस्तु का उल्लेख करते हुए उसके नामकरण पर प्रकाश डालिए।

आशा सर्ग की कथावस्तु का उल्लेख करते हुए उसके नामकरण पर प्रकाश डालिए। अथवा ‘आशा सर्ग के नामकरण के औचित्य पर प्रकाश डालते हुए इसकी कथावस्तु को लिखिए। 

भूमिका- ‘कामायनी’ श्री जयशंकर प्रसाद की कीर्ति का स्थायी स्तम्भ है। और छायावादी काव्य-शैली का अद्वितीय महाकाव्य। इसमें कुल पन्द्रह सर्ग है। पाठ्यक्रम में निर्धारित आशा सर्ग इस महाकाव्य का दूसरा सर्ग है। चिन्ता सर्ग की कथा इस प्रकार है- जलप्लावन के अनन्तर मनु हिमगिरि पर एक शिला की सघन शीतल छाया में विराजमान चिन्ता मग्न थे। चिन्ता करते करते रात्रि बीत गयी, अरुणोदय हुआ और सूर्य की स्वर्णिम रश्मियाँ ‘हिम-पूंज’ पर ‘पिंग-पराग’ सी क्रीड़ा करने लगीं। प्रकृति भयभीत थी। दिशाएँ स्तब्ध थीं। चतुर्दिक नीरवता व्याप्त थी। शनैः शनैः प्रलय निशा समाप्त हो रही थी।

आशा सर्ग की कथावस्तु

प्रलयकालीन झंझावात समाप्त हो चुका था और बढ़ा जल घट गया था जिससे जलमग्न वनस्पतियाँ अंकुरित होने लगी थी। फलतः चतुर्दिक सुख एवं आनन्द के मधुर गीत प्रस्फुटित होने लगे थे। वनस्पतियाँ आनन्दित होकर नृत्य करने लगी थीं। इस सम्पूर्ण दृश्य का अवलोकन कर मनु का सन्तप्त मन प्रफुल्लित हो उठा। उनमें जीवन की आशा का संचार हुआ। वे भविष्य के प्रति आस्थावान हो उठे।

जीवन में आशा के संचार मात्र से मनु का अन्तर्मन सुखद अनुभूतियों से भर गया। किन्तु वे सोचने लगे की वह कौन सी सत्ता जिसने मुझमें यह परिवर्तन ला दिया।

किन्तु वे इस रहस्य को अबूझा ही छोड़कर समक्ष फैली धान्य की हरियाली में खो गये। हिमालय की अचलता तथा उस पर फैली वल्लरियों ने इनके मन को मोह लिया। कर्म करने का सन्देश उनके कानों से गूंजने लगा।

अतः मनु ने यज्ञ करने की भावना जाग उठी क्योंकि यह देव संस्कृति का अनिवार्य विधान था। यज्ञ करने के उपरान्त यह सोचकर कि मेरे ही समान कोई और कहीं जीवित न हो अतएव अग्निहोत्र से अवशिष्ट अन्न को पर्वत के शिखर पर रख आया करते थे। यह क्रम नित्य चलता रहा, परन्तु मनु का मन पूर्णरूपेण शान्त नहीं हुआ। उसमें रह-रहकर चिन्ताओं की लहरियाँ दौड़ जाया करती थीं और वे अतीत वैभव को सोचकर व्याकुल हो उठते थे, किन्तु अनन्तर सामने की प्रकृति छटा में मन को उलझाकर शन्ति प्राप्त कर लिया करते थे।

जल प्लावन के बाद जब प्रकृति में स्वाभाविक गति आ गयी, उसकी छटा में निखार आ गया तो मन्द सुगन्ध समीर से गन्धाकुल होकर उनके मन में जीवन साथी पाने की कामना जाग उठी। में कामना वे दिन की मधुर कल्पनाओं में अपना भविष्य बुनते रहते, परन्तु रात्रि की कारा में तीव्र वेदना से व्याकुल हो उठते। यही क्रम चलता रहा। चाँदनी विहँसती रही, वायु बहती रही और मनु की उर्मियाँ हिलोरें भरती रहीं। आशा सर्ग की यही कथावस्तु है।

आशा सर्ग की प्रमुख बातें

आशा सर्ग की प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-

(क) मूलकथा- आशा सर्ग की मूल कथा बस इतनी है कि हिमगिरि पर मनु ने एक स्थान का निर्माण किया और वहीं यज्ञ करने लगे और अग्निहोत्र के अवशिष्ट अन्न को दूर शिखर पर इस आशा में रख आते थे कि शायद उन्हीं की तरह कोई एकाकी अवशेष बचा हो।

(ख) आशा मनोनवृत्ति का चित्रण- मनोवैज्ञानिक सत्य है कि आशा जैसी मनोवृत्ति से संचरित होने से मानव मन में सतरंगी भाव लहरियाँ उठने लगती हैं और वह उन्हीं लहरियों में भावमग्न हो जाता है। मनु की एक भाव लहरी का आस्वादन कीजिए-

यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल
सदय हृदय में अधिक अधीर
व्याकुलता-सी व्यक्त हो रही
आशा बन कर प्राण समीर।

(ग) मनु की आशा-निराशा का वर्णन – आशा सर्ग में मनु की आशा-निराशा एवं हर्ष विषाद के मोहक दृश्य देखने को मिलते हैं। पूरा का पूरा सर्ग मनु का इन भाव लहरियों से ओत प्रोत है। एक बानगी लीजिए।

संवेदन का और हृदय का
यह संघर्ष न हो सकता,
फिर अभाव असफलताओं की
गाथा कौन कहाँ तक बकता।

(घ) मनु का कुटी निर्माण – आशा के संचरित होते मनु में नवजीवन का संकल्प आया। उनमें नवजीवन की उमंग उठी। फलतः उन्होंने हिमगिरि पर ही एक कुटी का निर्माण किया देखिए-

थी अनन्त की गोद सदृश जो
विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय,
उसमें मनु ने स्थान बनाया
सुन्दर स्वच्छ और वरणीय।

(ङ) अग्निहोत्र का संचालन – कुटी के निर्माण के अनन्तर मनु ने देव यज्ञ का आयोजन प्रारम्भ किया। फलतः अग्निहोत्र धधक उठा। आहुतियाँ पड़ने लगीं और अवशिष्ट अन्न को वे एकान्त में इस आशा से रख आते थे कि कहीं शायद मेरी तरह अवशेष बचा हो-

अग्निहोत्र अवशिष्ट अन्न कुछ
कहीं दूर रख आते थे,
होगा इससे तृप्त अपरिचित 
समझ सहज सुख पाते थे।

(च) सार्वभौम सत्ता का आभास- जब मनु का हृदय हर्षातिरेक से गद्गद् हो उठा तो उन्हें ऐसा लगा कि सृष्टि में कोई सर्वशक्तिमान परोक्ष सत्ता है जो जड़-चेतन सभी को नचाती है। उसका ध्वंस करती है। नवनिर्माण करती है। आशा-निराशा में फँसे मन की यह अनुभूति मनोवैज्ञानिक सत्य है। देखिए मनु विचार करते हैं—

किसका था भ्रूभंग प्रलय-सा
जिसमें ये सब विकल रहे
अरे! प्रकृति के शक्ति चिह्न ये
फिर भी इतने निबल रहे।

‘आशा सर्ग’ नामकरण की सार्थकता

जलप्लावन के उपरांत मनु हिमगिरि पर एक शिला की शीतल छाया पर आसीन हैं। जलप्लावन एवं विनाश की विभीषिका से वे क्लान्त एवं चिन्तामग्न है। चिन्ता लीन मात्र से बैठे-बैठे रात बिताये। अरुणोदय हुआ। सूर्य की रश्मियाँ बर्फ की मण्डित चोटियों पर ‘पिंग-पराग’ की भाँति क्रीड़ा करने लगीं। शनैः शनैः जलप्लावन समाप्त हो आया। जल घटने लगा। वनस्पतियाँ अंकुरित होने लगीं। | उनमें नव-जीवन का संचार होने लगा। सुख एवं आनन्द का गीत प्रस्फुटित होने लगा। वनस्पतियाँ आनन्दित होकर झूमने लगीं। इस रमणीय वातावरण को देखकर मनु का क्लान्त मन प्रसन्न हो उठा। उनमें जीवन का नव-संचार हुआ और वे भविष्य के प्रति आस्थावान हो उठे। हिमगिरि की उस सुरम्य वनस्थली में मनु के हृदय में भावी जीवन के सुखों की आशा प्रस्फुटित हुई। इस प्रस्फुटित आशा के आधार पर ही प्रसाद जी ने इस सर्ग का नामकरण ‘आशा सर्ग किया है जो सार्थक है।

यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि चिन्तातुर व्यक्ति में यदि किसी प्रकार उसे कार्य की सफलता का अहसास हो जाये तो उसमें आशा झलक उठती है। यही मनु के साथ भी हुआ। इसीलिए नामकरण सार्थक है।

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About the author

Anjali Yadav

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