राजनीति विज्ञान / Political Science

राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ, प्रकृति, क्षेत्र एंव इसकी उपयोगिता | Meaning, nature, scope and utility of political theory in Hindi

राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ, प्रकृति, क्षेत्र एंव इसकी उपयोगिता | Meaning, nature, scope and utility of political theory in Hindi
राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ, प्रकृति, क्षेत्र एंव इसकी उपयोगिता | Meaning, nature, scope and utility of political theory in Hindi

राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ, प्रकृति, क्षेत्र एंव इसकी उपयोगिता

राजनीतिक सिद्धान्त का अर्थ- राजनीतिक सिद्धान्त का अंग्रेजी रूपान्तरण पॉलिटिकल थ्योरी होता है, जिसमें थ्योरी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द थोरिया से हुई है, जिसका अर्थ होता है एक ऐसी मानसिक दृष्टि जो एक वस्तु के अस्तित्व और उसके कारणों को प्रकट करती है। कार्ल पॉपर की बात मानें तो सिद्धान्त एक प्रकार का जाल है, जिसमें संसार को समझा जा सकता है। यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जो एक वस्तु के अस्तित्व और उसके कारणों को सामने रखती है।

विभिन्न विद्वानों ने राजनीतिक सिद्धान्त को अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया है-

1. डेविड हैंल्ड के अनुसार, “राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक जीवन से सम्बन्धित धारणाओं और सामान्य नियमों का वह समूह है, जिसमें सरकार, राज्य और समाज की प्रकृति, उद्देश्य तथा प्रमुख विशेषताएँ एवं व्यक्ति की राजनीतिक क्षमताओं के बारे में विचार, परिकल्पनाएँ और वर्णन शामिल होते हैं।”

2. ऐन्ड्रयू हैंकर के अनुसार, “राजनीतिक सिद्धान्त में तथ्य और मूल्य दोनों समाहित है तथा दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।”

3. जार्ज कैटलीन के अनुसार, “राजनीतिक सिद्धान्त राजनीति विज्ञान और राजनैतिक दर्शन दोनों का मिश्रण है। जहाँ विज्ञान सम्पूर्ण सामाजिक जीवन के नियन्त्रण के विभिन्न स्वरूपों की प्रक्रिया की ओर ध्यान आकर्षित करता है वहीं सिद्धान्त में व्यक्ति, समाज व राज्य का अध्ययन किया जाता है।”

इस प्रकार इन विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक चिन्तन में केवल आदर्श की व्याख्या की जाती है, जबकि राजनीतिक सिद्धान्त में व्यक्ति, समाज व राज्य की विस्तृत व्याख्या की जाती है।

राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति

राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति में परिवर्तनशीलता देखी जा रही है। इसके परिवर्तन की दर में उस वक्त से और ज्यादा वृद्धि देखी जा रही है, जब से राज्य का स्वरूप लोककल्याणकारी हुआ है। जैसे-जैसे लोककल्याणकारी राज्य के कार्यों में वृद्धि होती गई है, वैसे-वैसे राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति एवं क्षेत्र में भी बदलाव आया है। राजनीति विज्ञान का केन्द्रीय विषय-वस्तु ‘राज्य’ की बदलती हुई अवधारणा के साथ-साथ राजनीतिक चिन्तकों के अध्ययन पद्धति में भी बदलाव आया है।

राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति से परिवर्तनशीलता के कारण ही इसे परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त और आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त में विभाजित किया गया है।

परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति

 परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त में दार्शनिक पहलू पर ज्यादा जोर देखने को मिलता है और आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतियों को नजरअन्दाज किया गया है। इसके अन्तर्गत परिवर्तन के लिए उत्तरदायी तत्वों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है। परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति औपचारिक व संस्थागत अध्ययन से जुड़ी हुई है, क्योंकि परम्परागत विचारकों के द्वारा संस्थागत पहलुओं पर ज्यादा बल दिया गया है। राजनीतिक संस्थाओं की उत्पत्ति, स्वरूप, प्रकृति, कार्य क्षेत्र, उनके विषय वस्तु रहे हैं। राज्य और सरकार ही उनके अध्ययन एवं विवेचन के विषय रहे हैं। उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि प्लेटो ने अपनी रचना ‘रिपब्लिक’ में आदर्श राज्य को अपने सिद्धान्त का विषय बनाया है और उसके शिष्य अरस्तु ने अपनी रचना में’ नगर राज्यों’ की ही व्याख्या की है। बाद में परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त के समर्थक विद्वानों यथा डायसी, लास्की, आग व जिंक के द्वारा भी संस्थाओं के औपचारिक एवं कानूनी स्वरूप पर बल दिया गया है। स्पष्टत: परम्परागत दृष्टिकोण के समर्थकों ने राजनीतिक सिद्धान्त को केवल संस्थाओं के अध्ययन तक ही सीमित रखा है।

परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति वर्णनात्मक पद्धति पर आधारित है। परम्परागत दृष्टिकोण के समर्थकों के द्वारा विश्लेषणात्मक पद्धति को नजरअन्दाज किया गया है। परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त के अन्तर्गत आदर्शात्मक पद्धति को अपनाया गया है तथा इसमें धर्म, दर्शन, नैतिकता का विशेष प्रभाव देखने को मिलता है। परम्परागत सिद्धान्त में मुख्य आदर्शों को पहले से स्वीकार कर लिया जाता है और उसी के आधार पर राजनीतिक संस्थाओं को कसौटी पर रखा जाता है। इन पूर्ण निर्धारित मान्यताओं के आधार पर ही परम्परागत दृष्टिकोण रखने वाले राजनीतिक वैज्ञानिकों ने व्यवस्थाओं को उत्तम या निम्नतम करार दिया है।

अन्त में, परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त मुख्यतः मूल्यों एवं लक्ष्यों से जुड़ा हुआ है। इसके विषयों के अन्तर्गत राज्य व सरकार की उत्पत्ति, विकास, संगठन, प्रकार, राजनीतिक दल, राजनीतिक विचारधाराएँ, प्रमुख सरकारों और संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, राष्ट्रीय प्रशासन आदि हैं।

आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति

 परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति मसलन, औपचारिक, संस्थागत, वर्णनात्मक, आदर्शात्मक, तार्किक, कानूनी दृष्टिकोण के प्रतिक्रियास्वरूप आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त का उदय हुआ, इसमें आधुनिक विचारकों के द्वारा नवीन पद्धतियों के माध्यम से राजनीति के अध्ययन पर बल दिया जाता है और यह नवीन पद्धतियाँ वैज्ञानिक पद्धति होती हैं। परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त के औपचारिक संस्थाओं के विवेचन के स्थान पर अनौपचारिक तत्वों पर बल आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त का रहता है। इसमें संस्थाओं के संरचनात्मक अध्ययन के स्थान पर क्रियात्मक या कार्यात्मक अध्ययन पर बल दिया जाता है। आधुनिक राजनितिक सिद्धान्त में नवीन दृष्टिकोण से विभिन्न अवधारणाओं का विकास हुआ, जिनमें हैरोल्ड लॉसवेल तथा चार्ल्स मैरियम की शक्ति उपागम, पैरोटा, मोस्का और मिचेल्स का विशिष्ट वर्गीय सिद्धान्त, डेविड ईस्टन का व्यवस्था विश्लेषण उपागम, संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम आदि प्रमुख हैं। आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त में विश्लेषण की महत्ता है तथा आनुभाविक पद्धतियों पर विशेष बल दिया गया है।

राजनीतिक सिद्धान्त का महत्व/उपयोगिता

मोटे तौर पर सिद्धान्त सामान्य निष्कर्षो या व्याख्यात्मक नियमों का ऐसा सुगठित ढाँचा होता है जो ज्ञान के किसी क्षेत्र की सुसम्बद्ध तथा सुव्यवस्थित रूप से व्याख्या करने में सक्षम हो। वह उपलब्ध व्याख्याओं तथा नियमों का एकीकरण करने की क्षमता रखता है। राजनीतिक सिद्धान्त का आशय राजनीतिक क्रियाओं या राजनीतिक व्यवस्था के उस सामान्य सिद्धान्त से है जो उनसे सम्बन्धित समस्त तथ्यों, प्राक्कल्पनाओं, सामान्यीकरण आदि की व्याख्या करते हैं। राजनीतिक सिद्धान्त का निर्माण राजनीतिक तथ्यों के वर्णन, वर्गीकरण तथा राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन और इनसे प्राप्त निष्कर्षों को वस्तुनिष्ठ आँकड़ों के सन्दर्भ में न्यायसंगत बनाकर किया जाता है। उसे स्वानुभूतिपरक, दैवी या अमूर्त आधारों पर मान्यता नहीं दी जाती। राजनीतिक सिद्धान्त राजनीति विज्ञान की पहली आवश्यकता है।

सर्वप्रथम, डेविड ईस्टन ने राजनीति वैज्ञानिकों का ध्यान राजनीतिक सिद्धान्त की आवश्यकताओं की ओर खींचा। उसके अनुसार सिद्धान्त ही सम्पूर्ण अनुशासन को दिशा देता है। सिद्धान्त का निर्माण राजनीति विज्ञान के व्यवस्थित होने की पहली शर्त है। इसके बिना राजनीति विज्ञान अस्तित्व विहीन है।

राजनीतिक सिद्धान्त की उपयोगिता और महत्व को निम्नांकित रूप में रेखांकित किया जा सकता है-

(i) राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक व्यवहार, तथ्य-संग्रह एवं शोध को प्रेरणा और दिशा प्रदान करता है। ईस्टन ने इसकी तुलना एक ‘छलनी’ से की है जो पर्यवेक्षित तथ्यों की उपयोगिता के आधार पर चयन में सहायक होता है। यह दिशा-सूचक की भाँति दिशा-निर्देश करता है तथा एक मापक की भाँति अनुशासन के विकास की स्थिति इंगित करता है।

(ii) राजनीतिक सिद्धान्त व्याख्या प्रस्तुत करने में सहायक होता है। यह नये क्षेत्रों तथा उपागमों का अन्वेषण करता है जिनके आधार पर राजनीतिक घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है और तद्नुरूप पहले से उपाय किए जा सकते हैं।

(iii) राजनीतिक सिद्धान्त परिवर्तनों और आन्दोलनों के प्रेरणा स्रोत होते हैं। लेनिन कहता था, “क्रान्तिकारी सिद्धान्त के बिना क्रान्तिकारी आन्दोलन सम्भव नहीं है।” इसी प्रकार स्टालिन का विचार था कि “केवल सिद्धान्त ही साम्यवादी आन्दोलन को विश्वास, निर्देशन तथा में सहायक विभिन्न घटनाओं को जोड़ने का अन्त: सूत्र देता है।”

(iv) राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक वास्तविकता को व्याख्यायित करने होते हैं।

यथार्थ में, राजनीतिक सिद्धान्त का विकास एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इसका सम्बन्ध न केवल राजनीतिक वैज्ञानिकों वरन् सामान्य अध्येताओं, नीति-निर्माताओं तथा नागरिकों से भी है। ईस्टन के शब्दों में, “बीसवीं शताब्दी में राजनीति विज्ञान एक ऐसा अनुशासन है जो स्वव्यक्तित्व की खोज में लगा है।” यह कार्य राजनीतिक सिद्धान्त के द्वारा ही सम्भव है, क्योंकि उसमें होने वाले परिवर्तनों पर ही एक विश्लेषणात्मक अनुशासन के रूप में राजनीति विज्ञान का भविष्य निर्भर है। राजनीति सिद्धान्त के विकास के साथ ही राजनीति विज्ञान का एक स्वायत्त और सशक्त अनुशासन के रूप में उदय होगा।

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Anjali Yadav

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