राजनीति विज्ञान / Political Science

प्राचीन भारतीय राजनीति चिन्तन की विशेषताएं | Features of Ancient Indian Political Thought in Hindi

प्राचीन भारतीय राजनीति चिन्तन की विशेषताएं | Features of Ancient Indian Political Thought in Hindi
प्राचीन भारतीय राजनीति चिन्तन की विशेषताएं | Features of Ancient Indian Political Thought in Hindi

प्राचीन भारतीय राजनीति चिन्तन की विशेषताएं | Features of Ancient Indian Political Thought

प्राचीन भारतीय राजनीति चिन्तन की प्रमुख विशेषताएं अग्रलिखित हैं-

1. आध्यात्मिकता की ओर – भारत को आध्यात्मिक गुरू कहा जाता है। भारतीय विचारकों का मूल उद्देश्य आत्मा का विकास था। जीवन के लिए महत्वपूर्ण प्रत्येक वस्तु को, यहाँ तक कि स्वयं जीवन को शारीरिक या भौतिक सुख प्रदान करना मात्र नहीं था, वरन् उसका लक्ष्य ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करना था जिनमें व्यक्ति निर्वाध रूप से अपनी आत्मा के पुनर्जागरण के लिए प्रयास कर सके तथा उसके मार्ग में किसी प्रकार की भौतिक, प्राकृतिक, मानवीय बाधा न आये। राज्य का स्वरूप राजा के कार्य, व्यक्ति एवं राजा का सम्बन्ध, राजा की शक्तियाँ, राज्य का संगठन आदि सभी पहलुओं पर विचार करते समय आध्यात्मिक दृष्टिकोण की प्रधानता रही।

2. मानव के नैतिक आधार में विश्वास- भारतीय परम्परा में मानव को नैतिकता से प्रेरित, जिम्मेदार, कर्त्तव्यपरायण, परमार्थोन्मुख माना गया है, जो कि उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म, सही गलत में भेद कर सकता है। व्यक्ति को समाज का अभिन्न अंग स्वीकार किया गया और व्यक्ति के स्वधर्म के अर्न्तगत अपने परिवार, कुल, वर्ण, प्रदेश, समाज के प्रति कर्तव्यों को प्राथमिकता दी गई।

3. व्यक्ति, समाज एवं राजनैतिक व्यवस्था- भारतीय परम्परा में व्यक्ति को समाज से संबद्ध एक ऐसे स्वायत्त जीव के रूप में देखा गया, जो ‘धर्म’, ‘अर्थ’, ‘काम’ को प्राप्त करता हुआ ‘मोक्ष’ प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है। अर्थात अपना व्यक्तिगत विकास करते हुए वह ऐसे कार्य करता है जिससे समाज के अन्य सभी लोगों का भी हित सम्भव हो।

4. सत्ताधिकार तथा अधीनता- भारतीय चिन्तन में सत्ता एवं पद दोनों का निश्चित स्वरूप प्रकट हुआ है। राज्य यद्यपि ‘शास्त्र वर्णित ज्ञान’ से सीमित था और शास्त्र की व्याख्या का अधिकार केवल ब्राह्मण आचार्यों को प्राप्त था, किन्तु राज्य राजनैतिक सत्ता के मूल केन्द्र के रूप में उभरा। अमात्य, जनपद, कोष, दुर्ग, दण्ड एवं मित्र की अपेक्षा राजा (स्वामी) राज्य के सर्वप्रमुख, सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा सत्ता के स्रोत के रूप में था।

यहाँ राज्य की सत्ता केवल शासक-शासित के अन्तर्सम्बन्धों की अपेक्षा भिन्न रूप में प्रकट हुई है। राजा प्रजापालक के रूप में था, उसे किफायत से, केवल आवश्यकतानुसार, कोष का प्रयोग करना था। वह ऐसी गर्भवती महिला की तरह था, जिसे शिशु की रक्षा करनी थी।

राजा की सत्ता पर अनेक आन्तरिक, संस्थागत, सीमाएँ भी थीं। उसे अन्य अंगों की समृद्धि का भी ध्यान रखना था। यहाँ यह भी सत्य है कि यदि राजा प्रजा का ध्यान रखता था तो वह श्रेष्ठ, अच्छा राजा था, परन्तु यदि नहीं रखता था तो वह अत्याचारी था, किन्तु ऐसी दशा में उसे हटाने के लिए विद्रोह के अतिरिक्त अन्य तरीका नहीं था। सम्भवतः यही धारणा है कि कई बार राजनैतिक सत्ता की अनुपस्थिति या शिथिलता में भी सामाजिक संगठन कार्यशील रहे और राजनैतिक केन्द्र की विफलता ने विदेशी आक्रामकों को भी आमंत्रित किया।

भारतीय राज्य और व्यक्ति के ‘स्वत्व’ का संरक्षण मुख्यत: गाँधीजी की इस धारणा का आधार बना कि केन्द्रित राज्य व्यक्ति की स्वतन्त्र स्वायत्तता का विरोधी है। इसलिए विकेन्द्रित राज्य और अर्थव्यवस्था, व्यक्ति के ‘स्व’ एवं स्वायत्तता प्रणीत ‘स्वराज्य’ के अधिक निकट है।

5. भारतीय चिन्तन में धर्म- भारतीय चिन्तन में ‘धर्म’ की सदैव ही प्रधानता रही है। किन्तु, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यहाँ ‘धर्म’ को मात्र संस्थागत रूप में अथवा व्यक्तिगत पूजा-अर्चना के विधान के रूप में न लेकर, धर्म को उसके विशुद्ध स्वरूप में समझा-विचारा गया।

6. धर्म और राजनीति का समन्वय- प्राचीन भारतीय व्यवस्था में धर्म राजनीति के प्रत्येक पक्ष से सम्बन्धित था। वह राज्य के चरम और तत्कालीन उद्देश्यों को स्पष्ट करता था और यह निश्चित करता था कि उन उद्देश्यों को पूर्ण करने में किन नैतिक अथवा अनैतिक साधनों का अवलम्बन करना चाहिए। कहा गया है कि राजा अपने तात्कालिक लक्ष्यों (धर्म, अर्थ, काम) को प्राप्त करता हुआ अपने अन्तिम एवं चरम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त कर सकता है।

7. राज्य, एक अनिवार्य संस्था- प्राचीन भारतीय विचारकों ने इस बात का समर्थन किया है कि राज्य का होना सामाजिक जीवन के लिए सर्वथा आवश्यक और उपयोगी है। जीवन के तीन ध्येयों-धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति राज्य के बिना सम्भव नहीं है। दूसरे शब्दों में, हिन्दू राजशास्त्रवेत्ताओं ने अराजकता के दोषों पर बल दिया है। प्राचीन भारत में अराजकतावादी और व्यक्तिवादी विचारों का पूर्णत: अभाव था। अराजकतावादियों के अनुसार राज्य अनावश्यक और अनुपयोगी है और व्यक्तिवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं, इसी कारण वे इसके कम से कम कार्यों को स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत प्राचीन भारतीय राजशास्त्रवेत्ताओं ने राज्य का कार्यक्षेत्र विस्तृत माना है, जो आज के लोककल्याणकारी राज्य से बहुत साम्य रखता है।

8. राजा को सर्वोच्च स्थान- हिन्दू राजशास्त्र में राजा को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। प्रायः सभी लेखकों ने राजपद को दैवी माना है और राजा में दैवी गुणों का समावेश किया है। इस प्रकार से राज्य का सार ही राजा होता था। कौटिल्य ने राज्य और राजा में दैवी गुणों के बीच अन्तर नहीं किया है। कालिदास ने भी लिखा है- “संसार के प्रशासन का जुआ स्वयं सृष्टिकर्ता ने राजा के कन्धों पर रखा है।” यदि राज्य में कमी है तो उसके लिए राजा दोषी है। सूर्य, वायु, पृथ्वी का भार उठाने वाले शेषनाग आदि को कभी अवकाश प्राप्त नहीं होता। राजा को रात और दिन हर समय काम करना पड़ता है। भारतीय राजा स्वेच्छाचारी नहीं हो सकता था, उसे मन्त्रियों तथा परामर्शदाताओं का परामर्श लेना आवश्यक था।

9. राजा राज्य का एक रक्षक था, स्वामी नहीं – राज्य को एक प्रकार से एक थाती के रूप में राजा के स्वामित्व में रख दिया जाता था। वह इसकी रक्षा करने वाला था। राज्याभिषेक के समय राजा को सदोपदेश दिया जाता था-“तुम प्रजा के कल्याणकर्त्ता हो, यह राज्य तुमको इसलिए प्रदान किया जाता है कि तुम प्रजा का कल्याण करो।” राजा का राजकोष पर कोई अधिकार नहीं था। यह उसकी स्वयं की सम्पत्ति न थी। यह एक थाती थी, जिसको वह प्रजा के कार्य में नियोजित करता था। शुक्राचार्य ने लिखा है कि “राजा को प्रजा का धन जनहित में व्यय करना चाहिए। यदि कोई राजा उस धन को अपने हित में व्यय करता है तो उसको अवश्य ही नरक की प्राप्ति होती है।’ जायसवाल का मत यहाँ उल्लेखनीय है- “हमें राजा के महान् उद्देश्यों का ज्ञान प्राप्त होता है, राज्य का चरमोद्देश्य प्रजाहित था। राज्य की ओर से प्रजा की सम्पन्नता ठीक शासन से प्राप्त करता था वह अपने साथ कल्याणों को ले जाने वाला भी माना जाता था।”

10. समन्वय, सन्तुलन, सहनशीलता की परम्परा – भारतीय चिन्तन ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धान्त को साकार रूप प्रदान करती है। वैदिक विश्व-दृष्टि, उपनिषदों का दर्शन, बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम एवं ईसाई धर्मों का सम्मिश्रण इसका उदाहरण है। प्राचीन, मध्ययुगीन एवं आधुनिक भारत में अनेक भिन्नताओं के होते हुए भी व्यवहार, दायित्व, जाति, लौकिक प्रक्रिया, न्याय एवं राज्य के सिद्धान्तों में पर्याप्त समानता एवं निरन्तरता पाई जाती है।

11. काल्पनिक रचनाओं का अभाव- प्राचीन भारतीय राजशास्त्र में राज-सम्बन्धी काल्पनिक रचनाओं का सर्वथा अभाव है। जिस प्रकार से पाश्चात्य जगत में प्लेटो की ‘रिपब्लिक’ और सर टॉमस मूरे की ‘ यूटोपिया’ है वैसा ग्रन्थ प्राचीन भारत में किसी ने नहीं लिखा। इसी आधार पर यह कहना उचित होगा कि प्राचीन भारत की राजनीतिक रचनाओं का दृष्टिकोण व्यावहारिक था, कोरा सैद्धान्तिक या काल्पनिक नहीं। ए. के. सेन ने लिखा है, “हिन्दू राजनीतिक चिन्तन उत्कृष्ट वास्तविकता से भरा पड़ा है और कुछ अपवादों (शान्ति पर्व के कुछ अंशों, राजस्व के बारे में बौद्ध सिद्धान्त आदि) को छोड़कर भारतीय राजनीतिक विचारों का सम्बन्ध राज्य के सिद्धान्त और दर्शन से नहीं है। इसका सम्बन्ध राज्य की स्थूल समस्याओं से है। इसी कारण भारत के राजनीतिक- प्रबन्ध शासन कला पर लिखे गये प्रबन्ध प्रतीत होते हैं।”

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Anjali Yadav

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