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कबीर की समन्वयवादी विचारधारा
कबीर के समन्वयवाद को भली-भाँति समझने के लिए हमें कबीर की समकालीन परिस्थितियों पर दृष्टिपात करना होगा। विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दू तथा मुसलमानों में परस्पर धार्मिक संघर्ष चल रहा था। विजेता होने के कारण मुसलमान अपने धर्म को हिन्दुओं पर थोपना चाहते थे और वे बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बना रहे थे। हिन्दू अपने धर्म को मुसलिम धर्म से किसी भी प्रकार निम्न नहीं समझते थे, वरन् उन्हें अपने धर्म पर अभिमान था। इधर हिन्दू अपने धर्म को सनातन समझते थे और उधर मुसलमान अपने धर्म को श्रेष्ठतम । ऐसी स्थिति में धार्मिक असहिष्णुता का बढ़ता जाना स्वाभाविक ही था। यद्यपि मुसलमान हिन्दुओं की अपेक्षा कुछ अधिक सुसंगठित थे, तथापि उनमें भी वर्ग-भावना बढ़ती जा रही थी और ये लोग भी परस्पर दूरसे-दूरतर होते जा रहे थे। यद्यपि इनमें परस्पर कटुता नहीं थी, तथापि धर्मान्धता का बढ़ जाना स्वाभाविक था। धार्मिक स्थिति का समाज पर भी प्रभाव पड़ना ही चाहिए था। इस काल में आकर हिन्दुओं में वर्ण भावना यहाँ तक बढ़ी कि उच्च वर्ण वाले भिन्न वर्ग वालों से सम्बन्ध रखना अपमान समझते थे। इससे ऊंच-नीच की भावना बढ़ी और धीरे-धीरे. अस्पृश्य जातियाँ भी बढ़ीं। ब्राह्मण वर्ग तो इन अस्पृश्य जातियों की अपने ऊपर छाया भी नहीं पड़ने देना चाहता था। उधर मुसलमानों में भी शेख, सैयद, मोमिन, पठान आदि वर्ग बन गये और वे भी एक-दूसरे को अलग समझने लग गये। सबसे बड़ी विचित्र बात यह है कि संघर्ष की स्थिति को कोई कम नहीं कर रहा था, प्रत्युत इन वर्गों में निरन्तर ऐसे लोगों का जन्म हो रहा था जो अपने वर्ग को श्रेष्ठतम तथा श्रेयस्कर समझकर उसके प्रचार-प्रसार में लगे हुए थे। सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले नये नये ग्रन्थों का निर्माण करने में लगे थे और इन ग्रन्थों पर टीकाएँ तक लिखी जा रही थीं। इस प्रकार समग्र देश में एक वितण्डावाद से उत्तरोत्तर अज्ञान की वृद्धि और ज्ञान का हास होता जा रहा था, सत्य का पता लगाना एक दुष्कर कार्य बन गया था।
कबीर का सामाजिक समन्वय- कबीर ने देखा कि समाज में जो लोग तथाकथित उच्च जाति में जन्म लेते हैं, वे अपने को ऊंचा समझते हैं और निम्न जातियों को अवहेलना की दृष्टि से देखते हैं। कबीर ने इस ऊंच-नीच के भेद-भाव को बहुत ही बुरा बताया तथा इस प्रकार की भावना रखने वालों को बड़ी खरी खोटी सुनायी। कबीर की दृष्टि में ब्राह्मण के घर जन्म लेने वाले तथा अन्त्यज के घर जन्म लेने वाले में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है, दोनों की शरीर रचना में भी कोई भेद नहीं है। इसीलिए उन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों को फटकारते हुए कहा है-
“नहीं को ऊंचा नहीं को नीचा।
जाका प्यंड ताही का सींचा ॥
जो तं बांमन बंभनी जाया।
तौ आंन बाट है काहे न आया ॥
जो तूं तुरक तुरकनी जाया।
तौ भीतरि खतनां क्यों न कराया ।।
कहै कबीर मधिम नहीं कोई।
सो मधिम जा भुखी राम न होई ॥”
कबीर की मान्यता थी कि हम सभी एक ही परमतत्व के उपजाए हुए हैं, अतएव जाति-पाँति, ऊंच-नीच, छुआ-छूत की भावना उचित नहीं है।
धार्मिक समन्वय
जिस समय सम्पूर्ण देश में वितण्डावाद से उत्तरोत्तर अज्ञान की वृद्धि और ज्ञान का हास होता जा रहा था कबीर का पदार्पण हुआ। वे पढ़-लिखे तो नहीं थे स्वयं उन्होंने अपने विषय में लिखा है-
“मसि कागद छुआ नहीं,
कलम गही नहिं हाथ। “
कबीर जाति के जुलाहे थे, उस समय वर्ण, वर्ग और सम्प्रदाय भावना जोरों पर थी, अतः किसी गुरु के पास जाकर शास्त्रों का अध्ययन कर पाना भी कबीर के लिए मुश्किल था। ऐसी स्थिति में कबीर ने अपने चारों ओर के जीवन को देखा और उसी जीवन से कुछ सिद्धान्त निष्कर्ष रूप में निकाले । परिस्थिति के निरीक्षण की उनमें योग्यता थी, इसीलिए उनके द्वारा स्थिर किये गये सिद्धान्तों का बड़ा मूल्य है। अपने चारों ओर के वातावरण का पर्यवेक्षण कर ही उन्होंने यह सिद्धान्त स्थिर किया था-
‘जो अमासो आनवै, कल्या सो कुमिलाइ । जो चिणियाँ सो ढहि पडै, जो आया सो जाइ।’
उनके कथन का तात्पर्य यह है कि संसार के समस्त पदार्थ नश्वर हैं, इनमें से एक भी स्थायी नहीं है, अतः किसी को सत्य नहीं मानना चाहिए। उनकी दृष्टि में सत्य वही है जो स्थिर और चिरंतन है जो सदैव अद्वैत और एक समान तथा अधिकृत रहता है। वे यह मानते थे कि सत्य से अनेकों अल्पकालिक अथवा दीर्घकालिक सृष्टियाँ तो सम्भव हैं, किन्तु वह सदैव अविकारी रहता है। इस सत्य को कबीर ने अनेक नामों से अभिहित किया है। डॉ० परशुराम चतुर्वेदी का कथन है- ‘उसे (उक्त सत्य को कबीर ने) कभी निर्गुण, कभी सगुणवत् और अधिकतर निर्गुण एवं सगुण दोनों से ‘परे’ का ‘परम पद’ कहकर ही व्यक्त किया। किन्तु फिर भी वे उसे व्यक्तित्व प्रदान करने से नहीं चूके और एक कोरे सगुणवादी भक्त की भाँति उसे ‘बाप’, ‘जननी’, ‘साहब’ ‘वा ‘पीव’ तक कहते रह गये।
कबीर के ‘समन्वयवाद’ के विषय में जो निष्कर्ष निकलता है। उसे डॉ० परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में यों रखा जा सकता है- “कबीर साहब के समन्वयवाद की आधारशिला परम तत्व के केवल, नित्य तथा एकरस होने उस पर आश्रित बहुरूपिणी सृष्टि के अस्थिर होने और उसके विविध अंगों के, उनकी मौलिक एकता के कारण एक समान सिद्ध होने पर स्थित है। इसी कारण उन्हें अधिक तर्क-वितर्क करने की आवश्यकता नहीं पड़ती।”
विभिन्न धर्मो एवं सम्प्रदायों के इष्टदेव की नामावली के विषय में उनका कथन है-
“जोगी गोरख गोरख करै, हिन्दू राम नाम उच्चरे।
कबीर को स्वामी घटि घटि रह्यो समाइ ॥
वे आगे भी कहते हैं कि-
“हमारे राम रहीम करीमा केसो, अलह राम सति होई ॥”
कबीर के उपर्युक्त कथनों का आशय यह है कि हमें उस सत्य के विभिन्न नामों के पचड़े में न पड़कर उसे परम तत्व के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए। जो लोग उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं तथा उस पर व्यक्तित्व का आरोप करते हैं वे वस्तुतः उस परम तत्व से अनभिज्ञ हैं। इसी अनभिज्ञता के कारण भ्रम की उत्पत्ति होती है जिससे सारे संघर्ष उत्पन्न होते हैं। कबीर के अनुसार तो वह सत्य सबमें रम रहा है, विश्व का ऐसा एक भी कण नहीं, जिसमें वह व्याप्त नहीं है।
साधनात्मक समन्वय
साधना के जिस मार्ग को कबीर ने अपनाया, उसमें भी वे समन्वयवाद लाए। साधना के क्षेत्र में उनकी मान्यता है कि हमें उस परम सत्य का परिचय पाकर उसके साथ एकाकार हो जाना चाहिए। इस तदाकारिता की स्थिति वही होनी चाहिए जो बिन्दु की जल में होती है। यह सब कुछ हमें बड़े ही सहज भाव से करना चाहिए; इसके लिए किन्हीं बाह्याचारों की आवश्यकता नहीं है। इसलिए आन्तरिक साधना पर बल देते उन्होंने बाह्याचारों का विरोध किया-
“जप, माला, छापा, तिलक, सरै न एकौ काम।
मन कांचे नाचे वृथा, सांचे रांचै राम ॥”
साधना के क्षेत्र में बाह्याडम्बरों का विरोध कर सभी धर्मों तथा सम्प्रदाय के अनुयायियों को एक ठीक मार्ग पर ले आना ही कबीर का उद्देश्य था, अन्य कुछ नहीं। इस प्रकार विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदायों में समन्वय स्थापन का भी श्रेय कबीर को है।
निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि- “कबीर का ‘समन्वयवाद” न तो किसी प्रकार का ‘समझौता है और न भिन्न वादों से चुनी ‘अच्छाइयों’ का समुच्चय मात्र है, जिसमें किसी को आपत्ति करने का कोई अवसर न मिल सके। यह वास्तव में कोई ‘वाद’ भी नहीं। यह एक प्रकार का सुझाव है, जिस पर स्वयं कबीर साहब ने अमल किया है और जिस पर निरपेक्ष होकर विचार करने को सभी स्वतन्त्र हैं।’
कबीर समन्वयवादी या संग्रहवादी
कबीर केवल संग्रही मात्र नहीं थे। बल्कि वे सारतत्व को निकालने वाले थे। यदि वे कुछ अंशों में समन्वयवादी थे तो सारग्रही पूरे अंशों में थे। उन्हें ‘समन्वयवादी’ से अधिक उपयुक्त सारग्रही’ कहना होगा। कबीर ने स्वयं कहा है-
“सार संग्रह है सूप ज्यूँ त्यागे फरार्क आसार”
निर्गुणधारा को हम ‘दीने इलाही’ की समन्वयात्मक प्रयास नहीं मान सके। जिस अर्थ में हम अकबर को समन्वयवादी कह सकते हैं, उस अर्थ में कबीर को नहीं। अकबर की भाँति किसी नवीन धर्म की चेष्टा कबीर ने नहीं की। न कबीर ने अकबर की भाँति योजना बनाकर सभी धर्मों की अच्छी बातें चुनकर इकट्ठी कर लीं। अतः ‘दीने इलाही’ के पीछे एक संग्रहकर्ता की कल्पना है। निर्गुणधारा के पीछे एक सारग्राही की कल्पना है, जो अचानक नहीं उपजी। एक दीर्घ परम्परा के स्वाभाविक क्रम, भारतीय चिन्ता-धारा की स्वाभाविक शृंखला के रूप में चली आई। संग्रह और सारग्रह्य का अन्तर दादू की उस उक्ति से स्पष्ट होता है जिसमें उन्होंने कहा है कि साधू को तो बछड़े की भाँति पूँछ और सीगों की उपेक्षा कर दूध पीने के लिये तत्क्षण गाय के स्तन की ओर ही दौड़ जाना पड़ता है।
कबीर के हृदय का कपाट खुला हुआ था- सभी हितकर प्रभावों के प्रति। जैसा कि डा० बड़थ्वाल (हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय) ने कहा कि वे वेदान्ती और वैष्णव, सर्वात्मवादी और परात्परवादी अथवा ब्राह्मण और सूफी पृथक् पृथक नहीं थे. सभी कुछ एक साथ थे।” उन्होंने पूर्ववर्ती अनेक बातें ग्रहण की थीं, फिर भी उनकी साधना वहीं नहीं थी जो योगियों या सहजयानियों की थी अथवा जो सूफियों की थी। वास्तव में उनकी विचार पद्धति का आधार स्वानुभूति है। उन्होंने स्वयं कहा है कि मैंने पराश्रय ग्रहण करने के लिये कहीं दौड़ धूप नहीं लगाई।
वे कहते हैं-
‘करत विचार मन ही मन उपजी, ना कहीं गया न आया।’
सारसंग्रही भी वे ऐसे थे जो चैतन्य रूप से कुछ ग्रहण नहीं करता। जो स्वतः और सहज रूप से गृहीत हो जाय, उसी को महत्वपूर्ण माना।
अतः कबीर संपहवादी तो थे ही नहीं, समन्वयवादी और सारमाही पूर्णतः थे। सारमाही भी वैसे कि जो स्वतः सहज सा हो गया, वही महत्वपूर्ण माने। यही कारण है कि कबीरदास के निर्गुण मत में अनेक धाराओं और स्रोतों का जल होने हुए यह कहना कठिन होता है कि कौन सा जल किस स्रोत का है। वे सभी स्वानुभूति के रंग में मिलकर अमृत बन गये हैं। कबीर की सारग्रही वृत्ति के सम्बन्ध में बाबू श्याम सुन्दर दास का कथन है कि-
“कबीर मधुकरी वृत्ति के जीव थे। उन्हें जहाँ कहीं अपनी रुचि का कुछ मिलता था, उसे ग्रहण कर अपनी रुचि के अनुसार जनता के सामने प्रकट करते थे ।
समन्वयवाद और खण्डन वृत्ति
आचार्य सीताराम चतुर्वेदी का मत है कि- “समन्वयवादी व्यक्ति किसी का खण्डन करके समन्वय नहीं स्थापित करता वह तो सबकी श्रेष्ठत्ताओं में व्याप्त मौलिक एकता खोजकर उसके द्वारा सबको एक करने की चेष्टा करता है। अतः उन्हें समन्वयवादी समझने की भूल नहीं करनी चाहिए।”
अगर देखा जाय तो समन्वय और खण्डन में सैद्धान्तिक दृष्टि से विरोध होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टि से अंतर नहीं पड़ता और फिर कबीर के समय में आडम्बरों, रूढ़ियों और अंधविश्वासों ने जैसे धर्म और समाज को प्रस रखा था, उसे देखते हुए खण्डनवृत्ति स्वाभाविक ही थी। वास्तव में कबीर का खंडन खंडन के लिये न होकर सत्यनिष्ठा से प्रेरित है। इसके मूल में विध्वंसात्मक प्रवृत्ति न होकर रचनात्मक प्रेरणा है। यह खंडन किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं अपितु सब धर्मों और वर्गों के मिथ्याचारों का है। और फिर यह खंडनमूलक ही नहीं उपदेशमूलक भी है तथा सात्विकता, नैतिकता तथा सदाचार के आदर्शों से प्रेरित है। उनकी उग्रता के मूल में बहुत कुछ सत्यनिष्ठा, निष्कपटता तथा अक्खड़पन और फक्कड़पन की प्रकृति है न कि पक्षपात की या किसी मत और पंथ के आग्रह की। कबीर की क्रांतिदर्शी भावना सामाजिक और आध्यात्मिक साम्य लाने के लिये प्रयत्नशील रही जिसमें मानव मात्र के साम्य पर जोर दिया गया- राम रहीम की एकता कहा गया ।।
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की इस विशेषता को परस्पर विरोधी परिस्थितियों का मिलन बिन्दु कहा है। जहाँ से एक ओर हिन्दुत्व निकल आता है और दूसरी ओर मुसलमानत्व, जहाँ से एक ओर ज्ञान निकल जाता है और दूसरी ओर से अशिक्षा, जहाँ एक ओर योग-मार्ग निकलता है, दूसरी ओर भक्ति मार्ग, जहाँ से एक ओर निर्गुण भावना निकलती है और ओर से सगुण साधना । ऐसे प्रशस्त चौराहे पर वे खड़े थे। वे दोनों ओर देख सकते थे और परस्पर विरुद्ध दिशा में गये हुए मार्गों के दोष-गुण उन्हें स्पष्ट दिखाई दे जाते थे। यह कबीर का भगवद्दत्त सौभाग्य था। इस प्रकार कबीर के समन्वय भाव को प्रशस्त चौराहा और मिलन-बिंदु कहा गया है।
कबीर का यह समन्वय वास्तव में तुलसी से भिन्न था यद्यपि दोनों ने ‘राम’ में ही त्रय-ताप निवारण औषध खोजी थी। तुलसी की सुसांस्कृतिक वाणी ने एक विद्वान् और शास्त्रज्ञ की भाँति राम-रसायन की चर्चा की थी जिसमें सार-संग्रहता की भावना और भक्ति की चिन्तामणि का प्रकाश था किंतु कबीर अशिक्षित भी थे और अक्खड़ भी, आडम्बरों और पाखंडों से उन्हें विशेष चिढ़ थी अतएव उनकी वाणी में उग्रता, व्यंग्य, तीखापन, खंडन, सहज ही में आ गया। इस प्रकार तुलसी और कबीर दोनों का लक्ष्य एक था सत्यधर्म के राजडगर का निरूपण किंतु मार्ग और साधना पद्धति में पर्याप्त भिन्नता थी यद्यपि दोनों के नाम-आधार राम ही थे।
इस प्रकार कबीर का संतमत कोई मौलिक उद्भावना नहीं अपितु प्राचीन धार्मिक एवं सामाजिक परम्पराओं का यथासंभव समन्वय हैं। कबीर को तत्कालीन विचारधाराओं से जो भी सारयुक्त मिला, उसे अपने मत में प्रश्रय दिया। इसीलिये उनकी वाणी तत्कालीन विचारधाराओं का प्रशस्त चौराहा बन सकी। राम के भक्त होते हुए भी वह राम-रहीम की चर्चा कर सके, सहज साधना के विश्वासी होते हुए भी वह राम-रहीम की चर्चा कर सके, सहज साधना के विश्वासी होते हुए भी योग अध्यात्म और हठयोग का उल्लेख कर सके, निर्गुणवादी होते हुए भी सगुणवादियों की भाँति ब्रह्म का विचार कर सके, ज्ञानाश्रयी होकर भी भक्ति का प्रसार कर सके, मुसलमान होते हुए भी वैष्णवों का सात्विकता तथा सदाचार का उपदेश दे सके। समन्वय का तन्तु, एकता का प्रयास उसकी वाणी में सर्वत्र मिलता है।
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