‘कविवर पन्त’ मानवतावादी कवि हैं। इस कथन की पुष्टि करते हुए सम्बन्धी मान्यताओं का उल्लेख कीजिए।
‘युगान्त’ के पूर्व पन्त जी मुख्य रूप से निसर्ग सौन्दर्य, कोमलता एवं जिज्ञासा के कवि रहे हैं। दर्शन एवं उपनिषदों के अध्ययन से उनके रागत्व ने मन्थन पैदा कर दिया। इससे उनके विकास एवं गति की दिशा बदल गयी। जीवन के मधुर रूप में उसे मृत्यु की विभीषिका प्रत्यक्ष होने लगी। वसन्त के कुसुमित एवं पल्लवित वातावरण के भीतर उसे पतझड़ दिखाई देने लगा। उनका सौन्दर्य. लोक. यथार्थ के पाषाणों से टकराकर ध्वंस हो गया। परिणामतः उसके वायवी गीत जन-जीवन की वाटिका में स्वतः आकर कूजने लगे।’ डॉ. हृषीकेश शुक्ल
प्रकृति एवं सौन्दर्य प्रेमी पन्त मानव जीवन के सुख दुःख के भी कवि रहे हैं। युगांत युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में मानव सम्बन्धी भावनाओं की अभिव्यक्ति विशेष रूप से मिलती है। इन कृतियों का आलम्बन मानव है। ‘युगान्त’ से ही कवि की विचारधारा नया मोड़ लेती है। वह प्रकृति की स्वर्णिम गोद को छोड़कर जीवन की कण्टकाकीर्ण एवं खुरदरी भूमि पर पदार्पम करता है।
1. गुज्जन और मानव- गुञ्जन में प्रथम बार कवि मानव को स्नेहसिक्त करता हुआ सम्बन्ध में विचार करता है-
तुम मेरे मन के मानव मेरे गानों के गाने।
मेरे मानस के स्पन्दन प्राणों के चिर पहिचाने।
X X X
सीखा तुमसे फूलों ने मुख देख मन्द मुस्काना।
तारों से सजल नयन हो करुणा किरणें बरसाना॥
X X X
पृथ्वी की प्रिय तारावलि जग के वसन्त के वैभव,
तुम सहज, सत्य, सुन्दर, चिर और चिर अभिनव
यथार्थ जगत में कवि विह्वल होकर मानव को प्रकृति का शिक्षक बताता है तथा मानव को जगत के वैभव का मूल, सहज, तत्व, सुन्दर, चिर आदि तथा नित, नवीन भी मानता है।
2. सुख दुःख का समन्वय – सांसारिक सुखों एवं दुःखों से कवि निराश नहीं होता। वह उन दोनों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है। वह उनमें समन्वय स्थापित कर सुख दुःख की द्वन्द्वात्मक प्रवृत्ति को समाप्त करना चाहता है। वह सुख-दुःख को क्षणिक सत्ता मानता है। इनके मतानुसार मानव जीवन शाश्वत एवं चिरंतन है—
अस्थिर है जग का सुख-दुःख, जीवन ही नित्य चितरंजन,
सुख-दुःख के ऊपर मन की जीवन ही रे अवलंबन
वह मानव जीवन में सुख और दुःख को समान रूप में बाँटना चाहता है-
मानव जीवन बँट जावे दुख-सुख और, सुख-दुःख में।
3. आशा का प्रतीक मानव जीवन कवि संसार को नित्य एंव मिथ्या जानकर कभी उससे अलग नहीं होना चाहता। वह मानव जीवन की ही अभिलाषा करता है क्योंकि उसी में उसे आशा और उल्लास के दर्शन होते हैं-
जग जीवन में उल्लास मुझे, नव आशा नव अभिलाष मुझे।
कवि मानव के सौन्दर्य का गान करते हुए कहता है-
सुन्दर हैं विहंग, सुमन, सुन्दर मानव! सबसे तुम सुन्दरतम ।
पन्त जी पलयानवादी नहीं; वे जग-जीवन में ही उल्लास देखते हैं। सांसारिक बाधाओं से जूझना ही कवि को भाता है। अतः मनुष्य मात्र को कर्मक्षेत्र की ओर उन्मुख कर उन्हें जीवन रण में कूदने को प्रेरित करता है।
जीवन की लहर-लहर में हँस खेल-खेल रे नाविक।
जीवन के अन्तस्तल में नित बूड़-बूड़ रे भाविक ॥
4. मानव जीवन का आदर्श- कवि मानव जीवन के लिये एक आदर्श उपस्थित करता है। उसका आदर्श है; सुन्दर से सुन्दरतम की ओर बढ़ना। जीवन क्षेत्र में रहकर मानव यदि सुन्दरतम की ओर बढ़ता जाए तो अवश्यमेव उसका कल्याण होगा।
सुन्दर से नित सुन्दरतम, सुन्दरतर से सुन्दरतम
सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर-सुन्दर जगजीवन ॥
5. पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माण- कवि संसार पर ही नूतन स्वर्ग बनाना चाहता है। वह उसी में सौन्दर्य के नवीन आलोक का दर्शन करना चाहता है तथा उसी में अपने जीवन आदर्शों एवं सिद्धान्तों की प्राण प्रतिष्ठा करना चाहता है। वह किसी दूसरे स्वर्ग की कल्पना नहीं करता। उनका स्वर्ग वही है जहाँ मानव सुरक्षित हो, उसकी मानवीय आवश्यकताएँ पूर्ण हों और प्रेम का समुद्र लहराता हो । देखिए-
जीवन की क्षण धूलि रह सके जहाँ सुरक्षित।
रक्त मांस की इच्छाएँ जन की हो पूरित ॥
मनुष्य प्रेम से जहाँ रह सके मानव ईश्वर!
और कौन सा स्वर्ण चाहिए तुम्हें धरा पर?
‘ग्राम्या’ में कवि ने ग्राम्य-समाज के विभिन्न वर्गों को अपनी सहानुभूति प्रदान की है तथा उनका चित्र उपस्थित किया है। परन्तु इस चित्रण में उनके चैतन्यवाद की झलक मिल जाती है—
मानवता का रक्त मांस का जगजीवन से ओत-प्रोत।
आगे चलकर वे लिखते हैं-
चिन्मय प्रकाश से विश्व उदय चिन्मय प्रकाश से विकसित लय।
जड़ चेतन, चेतन जड़ बन-बन रचते चिर सूजन, प्रलय, अभिनय
6. साम्यवाद की स्थापना- आगे चलकर कवि मार्क्सवाद से प्रभावित हुआ है। वह विश्व में साम्यवाद की स्थापना करना चाहता है। पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद से उसे चिढ़ है। वह जाति पाँति के भेद-भाव को मिटाकर मानव-मानव में सामंजस्य स्थापित करना चाहता है। वह ‘मूल मनुष्य’ को खोज निकालने के लिये प्रत्नशील है-
मूल मनुष्य को खोज निकालो जाति-वर्ण, संस्कृति समाज से
मूल व्यक्ति को फिर से चालो
कवि आधुनिक युग में राजनीति के प्रश्न को महत्त्व नहीं देता क्योंकि राजनीति एवं अर्थसाम्य मानवीय दुःखों को दूर नहीं कर सकता। उसके लिये सांस्कृतिक एकता अपरिहार्य है-
राजनीति का प्रश्न नहीं रे आज जगत के सम्मुख।
अर्थ साम्य मिटा न सकता मानव जीवन के दुःख।
X X X X
आज बहुत सांस्कृतिक समस्या जग के निकट उपस्थित।
खण्ड मनुष्यता की जुड़-जुड़ के होना है नव-निर्मित।
कवि की धारणा है कि सृष्टि का सबसे अधिक विकसित एवं बुद्धिशाली जीव मानव अपनी मानवता से वेष्टित स्वयं में महान् है। उसे प्रभु का वरदान प्राप्त है और उसके लिए संसार में कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं है। इसीलिए वे मानवता की स्थापना के लिए प्रयत्नशील हैं-
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में यदि बने रह सको तुम मानव।
निष्कर्ष – संक्षेप में पन्त जी के यही मानव सम्बन्धी विचार हैं जो आशाप्रद एवं निर्भीक होते हुए भी समस्याओं के समाधान में सफल नहीं हैं। फिर भी मानव के प्रति वे अत्यधिक सहृदय है। उनमें मानव के प्रति श्रद्धा अनाध प्रेम और उत्कट सहानुभूति है। इन्हीं उपर्युक्त आधारों के परिपार्श्व में निःसन्देह कहा जा सकता है कि पन्त जी मानववादी कवि हैं। किन्तु उनका वह मानवतावादी रूप साम्यवाद से अनुप्राणित है।
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