गुणवत्तायुक्त शिक्षकों के लिए शिक्षक शिक्षा का नया रूप कैसे दिया जा सकता है? लिखिए।
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गुणवत्तायुक्त शिक्षकों के लिए शिक्षक-शिक्षा को नया रूप देना
देश में शिक्षकों की गुणवत्ता भारी चिंता का विषय रहा है तथा गुणवत्ता सुधारने के लिए यह एक बुनियादी पूर्वापेशा है। शिक्षकों की सक्षमता और उन्हें प्रेरित करना गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए महत्वपूर्ण है। शिक्षा की कमियों का समाधान करने, गणित, विज्ञान और भाषाओं में माध्यमिक स्कूल शिक्षकों का व्यावसायिक विकास करने, व्यवसाय के रूप में शिक्षण स्थिति को बढ़ाने, शिक्षण को सुनिश्चित करने के लिए शिक्षक प्रेरणा और उनके उत्तरदायित्व में सुधार करने तथा शिक्षक-शिक्षा संस्थाओं की गुणवत्ता और शिक्षकों में भी सुधार करने के लिए कई प्रयास किये जा रहे हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा कई प्रयासों के बावजूद प्रारंभिक और माध्यमिक स्तर दोनों में बड़ी संख्या में रिक्तियों के मामले, अप्रशिक्षत शिक्षकों की समस्याएं शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं में व्यावसायिकता की कमी, प्रशिक्षण और वास्तविक कक्षा-कक्ष व्यवहार का बेमेल होना, शिक्षक कि अनुपस्थिति और शिक्षक का उत्तरदायित्व तथा शिक्षकों को गैर-शिक्षण कार्यकलापों में लगाना, इन सभी का समाधान करने की आवष्यकता है। गुणवत्तायुक्त शिक्षकों की भर्ती के उद्देश्य से सीबीएसई ने केन्द्रीय शिक्षक पात्रता परीक्षा (सीटेट) का आरम्भ किया है। राज्य सरकारों ने टीईटी (TET) एवं को (REET) आरम्भ किया है। इन सबके बावजूद प्राथमिक शिक्षा व माध्यमिक शिक्षा का स्तर लगातार गिर रहा है।
अंतः निम्न प्रश्न उठने स्वाभाविक है।
- प्राथमिक यांत्रिक स्कूलों में शिक्षकों की विद्यमान रिक्तियों को भरने के लिए क्या विशिष्ट कदम उठाने की आवश्यकता हैं?
- शिक्षण अधिगम गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए मौजूदा शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम क्यों विफल हुए हैं?
- स्कूल क्षेत्र में शिक्षक-शिक्षा के मामलों की समस्याओं का समाधान करने के लिए क्या व्यवसायिक हल है?
- क्या शिक्षकों में उत्तरदायित्व संस्कृति का निर्माण करने के लिए शिक्षण निष्पादन मूल्यांकन की आवश्यकता है?
- क्या शिक्षकों की पदोन्नति उनके निष्पादन के अनुसार होनी चाहिए?
- क्या सभी शिक्षण / स्थानान्तर पदों के लिए एक स्वतः कम्प्यूटरीकृत प्रणाली अनिवार्य बनाई जाए ताकि ये युक्तिगत बनी रहे?
- सभी शिक्षकों के लिए वार्षिक सेवाकालीन प्रशिक्षण अनिवार्य बनाने के लिए क्या तरीके अपनाए जा सकते हैं?
अध्यापक शिक्षा के कुछ तथ्यः
चालू वित्त वर्ष अर्थात् 2007-08 के दौरान अध्यापक शिक्षा योजना के लिए 500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। इनमें से 50 करोड़ रुपये उत्तर पूर्व क्षेत्र के लिए निर्धारित किए गए हैं। पिछले 50 वर्षों में भारतीय समाज ज्ञान, विद्या, समानता, चरित्र निर्माण, भाईचारा, सद्भाव और सामाजिक प्रतिबद्धता जैसे मूल्यों के प्रति अपनी निष्ठा लगातार खोता गया है। इसके विपरीत धनलिप्सा, स्वार्थपरता, चालाकी, अवसरवादिता जैसे नकारात्मक मूल्य हमारे लोकतांत्रिक समाज पर हावी होते चले गए। इस दौर में शिक्षकों की पेशागत प्रतिबद्धताओं और योग्यताओं में भी लगातार क्षरण देखा गया। आजादी के बाद के प्रारंभिक दशकों में शिक्षकों की कार्यदशाएं और वेतन-भत्ते अन्य पेशों की तुलना में कम थे। पूरे देश में प्राथमिक स्कूली एवं कॉलेज यूनिवर्सिटी शिक्षक यूनियनों ने शिक्षकों को लामबंद करके लगातार आंदोलन किए। शिक्षकों को विधायिकाओं और संसद के लिए भी नामित किया गया। उनकी आर्थिक स्थिति में जरूर सुधार आया, वहीं दूसरी ओर उन्हें शिक्षा के उन्नयन से लगातार विमुख होते देखा गया।
पिछले तीन दशकों में चौथे वेतन आयोग से लेकर छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के फलस्वरूप सरकारी कर्मचारियों की तरह शिक्षकों के वेतनमानों में लगातार वृद्धि होती गई। 1977 में डिग्री कॉलेज के लेक्चरार को करीब एक हजार रुपये मासिक वेतन मिलता था, जो छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद लगभग 35,000 रुपये तक पहुंच गया है, यानी 37 वर्षों में 35 गुना। भारतीय समाज में शिक्षकों की प्रतिष्ठा में गिरावट का कारण शिक्षकों के आर्थिक स्तर में सुधार के साथ-साथ उनकी पेशेगत प्रतिबद्धता में कमी होना भी है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सभी जगह शिक्षकों का विद्यार्थियों से अलगाव लगातार बढ़ता जा रहा है। सरकारी स्कूलों, राज्य विश्वविद्यालयों और अनुदानित डिग्री कॉलेजों में शिक्षकों के कार्य दिवस कम होते जा रहे हैं। उत्तर भारत के कई राज्यों में तो डिग्री कॉलेजों और विश्वविद्यालय परिसरों में 100 दिन भी पढ़ाई नहीं होती है। यह सच है कि सभी शिक्षक अपनी जिम्मेदारी से नहीं भागते । शिक्षकों के एक बड़े वर्ग की दिलचस्पी पढ़ाने-लिखाने में रहती है। हमारे देश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की तादाद अभी हाल में 1.7 करोड़ बताई गई है। इन विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए जरूरी समुचित संसाधनों की कमी देखी जाती है। कक्षाएं, प्रयोगशालाएं, लाइब्रेरी, हॉस्टल, स्पोर्ट्स आदि की सुविधाएं पर्याप्त और अच्छी क्वालिटी की नहीं हैं। देश के किसी भी कॉलेज या यूनिवर्सिटी कैंपस में अगर आप जाएं, तो युवा विद्यार्थियों का अक्सर हुजूम दिखाई देगा। आम का न लगना होता है। लेकिन इस भीड़-भाड़ का एक मुख्य कारण युवा आबादी में हो पर इसका कारण कक्षाओं रही वृद्धि के साथ-साथ उच्च शिक्षा का समुचित विस्तार न होना भी है। आजकल जहाँ एक तरफ दो वर्षीय बी.एड. कार्यक्रम के लिए पाठ्यक्रम पाठ्यचर्या तथा शिक्षण सामग्री की चर्चा हो रही है। वही दूसरी ओर अधिकांश निजी प्रशिक्षण संस्थान उन उपायों की तलाश में लगे है कि कैसे प्रशिक्षार्थी दो वर्ष का पाठ्यक्रम उसी ढंग से पूरा करें जैसे एक वर्षीय करता आ रहा था अनेक राज्य अपने सरकारी प्रशिक्षण संस्थानों में नियमित नियुक्तियां नहीं करते है वहां संविदा पर, सेवानिवृत या डेपुटेशन पर शिक्षक प्रशिक्षक आते हैं व प्रशिक्षण की खानापूर्ति करके चले जाते है। इन शिक्षकों में उत्तरदायित्व की भावना का अभाव होता है। अधिकांश सरकारी प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रशिक्षण के नाम पर खानापूर्ति होती है। शिक्षकों में अध्ययन के प्रति अभिरूचि उत्पन्न करने के स्थान पर केवल संस्थान में उपस्थिति पर बल दिया जाता हैं। प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में तो प्रशिक्षण हेतू (पाठ्य सामग्री उपलब्ध नहीं है) ।
केवल मौखिक प्रवचन आशीष वचन और कुछ पुराने मॉडलों से यदा-कदा पढ़ाकर शिक्षा में गुणवत्ता बढ़ाई जाती है। माध्यमिक स्तर पर होने वाले शिक्षक प्रशिक्षण में जो में शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए महाविद्यालयों में जाते है। अधिकांश असिस्टेंट प्रोफेसर, प्रोफेसर इस प्रशिक्षण में रूचि नहीं लेते है। और यह गुणवत्ता तब और भी गिर जाती होगी जब यह प्रशिक्षण भी केवल राजकीय विद्यालयों के शिक्षकों का होता है।
स्वैच्छिक संगठनों का सहयोग लेकर शिक्षक-शिक्षा में शिक्षकों के सेवाकालीन प्रशिक्षण को बहुआयामी, संवर्धित और विशिष्ट बनाया जा सकता है। राज्य शासन को इनके सहयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए। प्रशिक्षण संस्थाओं के कार्यों का मानकों के अनुरूप मूल्यांकन करना व वर्तमान में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् द्वारा शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं की मान्यता एवं नये पाठयक्रमों के संचालन की अनुमति दी जाती है। वह अपने मानकों के परिपालन को भी सुनिश्चित करते है राज्य में संचालित हो रही शिक्षक प्रशिक्षण संस्थायें अपेक्षानुकूल कार्य नहीं कर रही हैं। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं का मूल्यांकन एवं मॉनीटरिंग विश्वविद्यालयों एवं राज्य शासन को करना चाहिए। राज्य एवं राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्, क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, उन्नत शिक्षा संस्थान, शिक्षा महाविद्यालय, डायट्स आदि सभी सम्बद्ध शिक्षक प्रशिक्षक संस्थानों का इलेक्ट्रानिक नेटवर्किंग अत्यंत उपयोगी कदम होगा। यदि पेडागागी विश्लेषण, उदयमान भारतीय समाज दक्षता आधारित शिक्षा, सीखने के उन्नत सिद्धांत जैसे विषयों पर शिक्षकों एवं शिक्षक प्रशिक्षकों के लिए अध्यापन सामग्री विकसित की जाये तो यह शिक्षक-शिक्षा के विकास में अत्यंत प्रभावकारी कदम हो सकता हैं। पारदर्शिता तथा विश्वविद्याल स्वायता के अनुसार हर विश्वविद्यालय को अपना बी.एड., एम.एड. पाठ्यक्रम बनाना चाहिए संविदा व डेपुटेशन, सेवानिवृति शिक्षक प्रशिक्षकों की नियुक्ति बंद करें व स्थाई नियुक्ति पर बल दें प्रशिक्षण संस्थाओं में प्रशिक्षण सामग्री हों व संस्थान में उपस्थिति के साथ ही शिक्षक प्रशिक्षुओं व शिक्षकों की जवाबदेही तय हो प्रत्येक प्रशिक्षण के उपरान्त राज्य स्तरीय प्रशिक्षण परीक्षा का आयोजन हो सेवारत शिक्षकों के लिए प्रत्येक तीन वर्षों के उपरान्त प्रशिक्षण एवं परीक्षा का आयोजन हो। आज 22 करोड़ बच्चे स्कूलों में है और प्रति अध्यापक 30 बच्चों का अनुपात माना जाये तो लगभग 70 लाख शिक्षक चाहिए। आज के सूचना प्रौद्योगिकी व नवीन तकनीकों के शिक्षक शिक्षा में अनुप्रयोग व प्रशिक्षण में पूरी ईमानदारी के माध्यम से प्रभावशाली शिक्षक तैयार हो सकेंगे तभी शिक्षक शिक्षा में गुणवत्ता बढ़ सकेगी।
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