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गोरखनाथ की काव्यगत विशेषताओं की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
अथवा
“गोरखनाथ की बानी में काव्य का स्वर मुखरित हुआ है।” विवेचन कीजिए।
‘गोरखवानी’ में गोरखनाथ के आध्यात्मिक विचारों की दृष्टि से ‘सबदी’ सबसे महत्त्वपूर्ण है। ‘पद’ के अन्तर्गत भी नाद, विन्दु, सहस्रार, कुण्डलिनी, अमृतस्राव आदि की बातें कही गयी हैं किन्तु इसकी भाषा आलंकारिक और प्रतीकात्मक है। गोरखनाथ की रचनाओं में हठयोग साधना की बातें प्रमुख हैं। ये योग साधना के लिए गुरु को आवश्यक मानते हैं। इन्द्रिय निग्रह के बिना योगी अपनी साधना को पूरा नहीं कर सकता है। उनकी ये सारी बातें उनके आध्यात्मिक विचारों के अन्तर्गत आती हैं। गोरखनाथ ने पहली बार हिन्दी में योग साधना पर जो बातें जिस शैली में कहीं, उसी को बाद में कबीर आदि सन्तों ने अविकल ग्रहण कर लिया। गोरखनाथ के आध्यात्मिक विचारों के साथ ही गोरखनाथ के रूपकों और प्रतीकों का भी कबीर ने व्यवहार किया। कहीं-कहीं तो लगता है कि कबीरदास गोरखनाथ की बानी का छायानुवाद कर रहे हैं। कबीर ने गोरखनाथ के आध्यात्मिक विचारों का पल्लवन किया है। उनकी प्रतीक-योजना, भाषा और अलंकार योजना तथा विरोधात्मक कथनों का विकास कबीर के काव्य में है। गोरखनाथ ने पण्डितों और काजियों की आलोचना की है। पण्डित वेदान्त को नहीं समझ पा रहा है और काजी मुहम्मद की बातों को नहीं समझ पा रहा है, लेकिन इस प्रकार की बातें धार्मिक नासमझी को दिखाने के लिए ही गोरखनाथ ने कही हैं। यह एक सूत्र है, जिसका प्रसार सामाजिक विचारों के क्षेत्र में भी कबीर ने किया है। इस तरह से गोरखनाथ का पहला महत्त्व यह है कि उनकी रचनाएँ सन्त-साहित्य का प्रस्थान विन्दु हैं। उनकी शैली सन्तों की प्रेरणा का स्रोत बन गयी।
गोरखनाथ की बानियों में कवित्व
गोरखनाथ एक महान् योगी सिद्ध साधक तथा क्रान्ति द्रष्टा थे। वे हठयोगी थे लेकिन समाज में मानवीय मूल्यों के प्रतिष्ठापक भी थे। उन्होंने पहली बार पण्डितों को ब्रह्मज्ञान को ठीक से जानने के लिए। ललकारा। उनसे पूर्व गौतम बुद्ध हुए थे जिनका भारतीय जीवन में ही नहीं विदेशों में भी अमिट प्रभाव है। उन्होंने मनुष्य में चरित्र-बल को स्थापित करने का प्रयास किया। उनका दुःखवाद ऐसे निर्वाण की ओर ले जाता है जो शून्य है। व्यक्ति की राग से मुक्ति ही निर्वाण है। इस राग की प्रेरिका तृष्णा है। इस तृष्णा से मुक्ति अष्टांगिक मार्ग में मिल सकती है। यह अष्टांगिक मार्ग व्यक्ति के आत्मिक उत्थान का मार्ग है। उन्होंने जीवन को अस्वीकार करके ऐसे निर्वाण को स्वीकार किया जो इस जीवन से परे है। यह जीवन तो राग की मंजूषा है, लेकिन गोरखनाथ ने इस जीवन को स्वीकार करते हुए इसी का उदात्तीकरण किया। इस शरीर के भीतर ही परम ज्ञान है। पण्डित लोकाचार में फँसा हुआ है। पाखण्डों के बीच वह अपने को ही नहीं पहचान पा रहा है। यह शरीर है तो मन है और मन है तो माया है। काम और क्रोध इसकी दुर्बलताएँ हैं। गोरखनाथ ने इस माया का भोग करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने स्वयं काम और क्रोध को जलाकर भस्म कर दिया था। उन्होंने देखा कि एक परब्रह्म में ही अनन्त सृष्टि का वास है और यह ब्रह्म योगी के अन्दर ही है। त्रिकुटी या ब्रह्मरन्ध्र में निवास करने से वह शब्द सुनायी पड़ता है जिसके ताले में ब्रह्म बन्द है। जब वह ताला खोला जाता है तो ब्रह्म का साक्षात् दर्शन होता है। गोरखनाथ जैसा योगी अनाहदनाद में निवास करता है। साधना के द्वारा ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचकर उन्होंने अनाहद नाद को सुना और फिर उन्हें यह लगा कि सारा वाद-विवाद झूठा है। गोरखनाथ ने अंजन में निरंजन को प्राप्त कर लिया।
भारतीय साधना में योग व्यक्ति की चेतना के उत्थान का एक सशक्त माध्यम है। इसमें हठयोग, विरक्ति और वैयक्तिक साधना पर अधिक बल दिया गया है लेकिन गोरखनाथ ने उसे लोक से जोड़ा। पतंजलि ने योग के आठ अंग बताये हैं लेकिन हठयोग में केवल छह अंगों का महत्त्व है। यम और नियम को इसमें महत्त्व नहीं दिया जाता हठयोगी योग की साधना को प्रधान मानता है। उसके अनुसार शरीर में एक बहिर्मुखी शक्ति होती है और दूसरी आन्तरिक शक्ति होती है। यही प्राण और अपान है। प्रतीक की भाषा में इन्हें सूर्य और चन्द्र भी कहा गया है। प्राणायाम, आसन आदि के द्वारा इन बहिर्मुखी तथा आन्तरिक प्रवृत्तियों में समरसता उत्पन्न होती है। जब साधक समरसता का अनुभव करता है तो सहज समाधि सिद्ध हो जाती है। हठयोगी यह मानता है कि जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है। इसलिए इस ब्रह्माण्ड में जो शक्ति व्याप्त और सक्रिय है, उसे पिण्ड में ही प्राप्त किया जा सकता है। गोरखनाथ सहज समाधि को ही मोक्ष मानते हैं। उन्होंने वेदान्त, मीमांसा, तन्त्र आदि में उल्लिखित मोक्ष को अस्वीकार ही नहीं किया है, बल्कि इसे वे मूर्खता की बात कहते हैं। जब मन ही मन को देखने लगे तो वह अवस्था सहज समाधि की होती है। गोरखनाथ के अनुसार यही मोक्ष है और साधक का यही चरम लक्ष्य होता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने गोरखनाथ की सहज समाधि की व्याख्या करते हुए इसे ‘स्वसंवेदन ज्ञान की अवस्था’ कहा है।
गोरखनाथ ने धार्मिक अथवा सामाजिक विसंगतियों अथवा अन्तर्विरोधों का उल्लेख अपने काव्य में नहीं किया है। उनकी रचनाओं में कुछ गिने-चुने स्थल मिल जाते हैं जहाँ वे पण्डितों, संन्यासियों, काजी तथा मुल्लाओं को सम्बोधित करके उनके वास्तविक धर्म का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि संन्यासियोंको तीर्थ का भ्रम है। वे देवालय की यात्रा की जगह शून्य की यात्रा को महत्त्व देते हैं। काजी और मुल्ला केवल कुरान पढ़ते हैं। पण्डित वेद पढ़ते हैं किन्तु धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते हैं। ये सारी बातें वे आलोचना के लिए कहते हैं। इनके द्वारा वे धर्म का वास्तविक स्वरूप बताना चाहते हैं। गोरखनाथ बहिर्मुखी प्रवृत्तियों का शमन करके साधक को अन्तर्मुखी बनाना चाहते थे। कबीर ने डाँटा और फटकारा है। उनकी ऐसी प्रताड़नाओं से लगता है कि वही सही हैं, शेष पण्डित और मुल्ला गलत हैं। गोरखनाथ इनकी गलतियों पर न तो प्रहार करते हैं, न उसकी ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं। गोरखनाथ एक सही रास्ता बताते हैं। यह रास्ता मन को निर्मल बनाने का है। बाह्य प्रवृत्तियों का शमन करके अन्तर्मुख होने का वे उपक्रम बताते हैं जिससे उस अलक्ष्य को साधक देख सके। वे कहते हैं कि हिन्दू देवालय में ध्यान करतेहैं, मुसलमान मस्जिद में किन्तु योगी परम पद का ध्यान करते हैं, जहाँ न देवालय है, न मस्जिद है-
हिन्दू ध्यावै देहरा, मुसलमान मसीत ।
जोगी ध्यावै परमपद, जहाँ देहुरा न मसीत।।
वे राम और खुदा से परे अलक्ष्य का ध्यान करने की बात कहते हैं
हिन्दू आबै अलख को,
जहाँ राम आछे न खुदाई।
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