अभिप्रेरणा के प्रकार बताइए। अभिप्रेरणा के विभिन्न रूपों का वर्णन कीजिए।
मनोवैज्ञानिकों ने अभिप्रेरणा के प्रमुख रूप से दो प्रकारों का उल्लेख किया है-
- आन्तरिक या जन्मजात अभिप्रेरणा
- बाह्य या अर्जित अभिप्रेरणा
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जन्मजात या आन्तरिक अभिप्रेरणा
कुछ अभिप्रेरणाएँ मनुष्य के जन्म से ही अन्तर्निहित होती है अर्थात् जन्मजात होती है। ये जीवन सम्बन्धी मूल आवश्यकताओं से सम्बन्धित होती हैं। इनके बिना प्राणी जीवित नहीं रह सकता है। इन अभिप्रेरणाओं के पीछे जन्मजात अभिप्रेरक होते हैं जो व्यक्ति को मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रेरित करते हैं। इन अभिप्रेरकों को शारीरिक प्रेरक, प्राथमिक प्रेरक, जैविकीय प्रेरक तथा अति आवश्यक प्रेरक आदि नामों से जाना जाता है। भूख-प्यास, काम, नींद, प्रेम, क्रोध, मल मूत्र त्याग, मातृत्व, पलायन, तापक्रम नियन्त्रण, भय आदि जन्मजात अभिप्रेरणाएँ कहलाती हैं। मनुष्य के जीवन के लिए इनकी तृप्ति आवश्यक होती है। ये अभिप्रेरणाएँ उन कार्यों को प्रोत्साहन प्रदान करती है जो व्यक्ति के जीवन के लिए आवश्यक होते हैं। इन जन्मजात अभिप्रेरणाओं का विवरण निम्नवत् हैं-
1. भूख प्यास- प्राणी को जीवित रहने के लिए भोजन, पानी तथा वायु की आवश्यकता होती है। इस प्रकार भूख, प्यास जन्मजात अभिप्रेरक हैं तथा जन्म से ही प्राणी में विद्यमान रहते हैं जब मनुष्य के अन्दर भोजन का अभाव होता है तब उसे भूख का अनुभव होता है तथा वह व्यक्ति को क्रियाशील बनाती है। इसके कारण व्यक्ति को एक विशेष प्रकार की क्रिया या क्रियाओं का ज्ञान होता है जिसके माध्यम से वह अपनी क्षुधा तृप्ति करने में सफल होता है। भोजन मिल जाने पर भूख कुछ समय के लिए शान्त हो जाती है किन्तु कुछ समय पश्चात् भोजन का अभाव होने पर पुनः सक्रिय हो जाती है। इसी प्रकार पानी की आवश्यकता के फलस्वरूप व्यक्ति या प्राणी में प्यास अभिप्रेरक उत्पन्न होता है जिसके कारण व्यक्ति पानी की तलाश करता है। पानी मिल जाने पर कुछ समय के लिए प्यास समाप्त हो जाती है किन्तु पानी का अभाव होते ही पुनः प्यास अभिप्रेरक उत्पन्न हो जाता है।
2. काम- प्रत्येक प्राणी में अपने वंश को आगे बढ़ाने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति के कारण उसमें काम-भावना उत्पन्न होती है जो उसे एक विशेष क्रिया या व्यवहार करने की अभिप्रेरणा देती है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने काम को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्रबल अभिप्रेरक माना है। इसने यहाँ तक कहा है कि काम प्रवृत्ति के सन्तुष्ट न होने पर प्राणी का व्यवहार असामान्य हो जाता है। काम-भावना की तृप्ति विषमलिंगीय जीव के साथ संयोग के द्वारा होती हैं। इस प्रकार काम एक जन्मजात अभिप्रेरक है।
3. नींद या निद्रा- नींद भी एक जन्मजात अभिप्रेरक है। शैशवावस्था में इसकी मात्रा बहुत अधिक होती है किन्तु व्यक्ति के विकास के साथ-साथ इसकी मात्रा कम हो जाती है। दिन भर परिश्रम या कार्य करने के बाद व्यक्ति को विश्राम की आवश्यकता होती है। नींद का अभिप्रेरक उसे आराम करने एवं सोने की अभिप्रेरणा देता है। सो जाने के बाद नींद अभिप्रेरक समाप्त हो जाता है।
4. प्रेम- मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि प्रेम एक जन्मजात अभिप्रेरक है। वात्सल्व संवेग के कारण प्रेम का प्रेरक क्रियाशील होता है तथा व्यक्ति को प्रेम की आवश्यकता की अनुभूति होती है। इसके कारण व्यक्ति के शरीर एवं मन में तनाव उत्पन्न हो जाता है। यह तनाव मनोवांछित प्रेम पूर्ण व्यवहार करने पर समाप्त हो जाता है।
5. क्रोध – क्रोध भी एक जन्मजात अभिप्रेरक है। जब व्यक्ति की किसी इच्छा या आवश्यकता की पूर्ति में बाधा उपस्थित होती है तब उसके अन्दर क्रोध अभिप्रेरक उत्पन्न होकर तनाव पैदा करता है। क्रोध अभिप्रेरक उस बाधा को दूर करने की अभिप्रेरणा देता है। बाधा दूर हो जाने या क्रोध की प्रतिक्रिया समाप्त हो जाने पर क्रोध अभिप्रेरक भी समाप्त हो जाता है। क्रोध अभिप्रेरक आत्मरक्षा में सहायक होता है।
6. मल-मूत्र त्याग- मल-मूत्र त्यागने की अभिप्रेरणा की आन्तरिक अभिप्रेरक के कारण होती है। इस प्रेरक की प्रेरणा मिलते ही इससे सम्बन्धित आवश्यकता या व्यवहार को शीघ्र ही पूरा करना पड़ता है। इसकी पूर्ति न होने पर शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो सकते है।
7. मातृत्व – मातृत्व की प्रवृत्ति एक जन्मजात प्रवृत्ति है तथा यह सभी मादा जीवों में पायी जाती है। मातृत्व प्रेरक के कारण ही सभी मादा प्राणी अपने शिशुओं के प्रति अगाध प्रेम प्रदर्शित करते हैं तथा उनकी रक्षा के लिए कष्ट भी उठाते हैं। शिशु के विकास के लिए माता में इस अभिप्रेरक का होना अति आवश्यक होता है।
उपर्युक्त के अतिरिक्त पलायन, युयुत्सा आदि भी मनुष्य की आन्तरिक अभिप्रेरणा है।
बाह्य या अर्जित अभिप्रेरणा
कुछ अभिप्रेरणा ऐसे होते हैं जो व्यक्ति के समाज में रहने तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण के प्रभाव के कारण निर्मित होते हैं। इन अभिप्रेरकों को अर्जित अभिप्रेरक कहते हैं। इन अभिप्रेरकों को सीखे हुए अभिप्रेरक भी कहा जाता है क्योंकि इनकी उत्पत्ति व्यक्ति के समाजीकरण तथा शिक्षा ग्रहण करने से भी होती है। इस प्रकार अर्जित अभिप्रेरण, व्यक्ति में शिक्षा एवं वातावरण के माध्यम से उत्पन्न होती है तथा इसे द्वितीय प्रेरणा या मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणा भी कहते हैं।
बाह्य या अर्जित अभिप्रेरणा के प्रकार
- (क) व्यक्तिगत अभिप्रेरणा के प्रकार
- (ख) सामान्य सामाजिक अभिप्रेरणा
(क) व्यक्तिगत अभिप्रेरणा-
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनकाल में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों एवं वातावरण के सम्पर्क में आता है जिसके कारण उनके अनुभवों में विभिन्नता होती हैं। इन विभिन्न अनुभवों के प्रभाव के कारण व्यक्तियों में अलग-अलग ढंग से व्यक्तिगत प्रवृत्तियों, आदतो, इच्छाओं एवं अभिरूचियों का विकास होता है। इन्हें व्यक्तिगत अभिप्रेरक कहते हैं तथा इन्हीं के द्वारा व्यक्तियों को अपने ढंग से क्रिया एवं व्यवहार करने की अभिप्रेरणा मिलती है। व्यक्तिगत अभिप्रेरणाएं भी कई प्रकार की होती है। कुछ प्रमुख व्यक्तिगत अभिप्रेरणाएँ निम्नलिखित हैं-
1. आदत- जब कोई कार्य प्रतिदिन या बार-बार किया जाता है तब व्यक्ति उसका आदी हो जाता है। यह व्यक्ति की आदतें कहलाती हैं। ये आदतें व्यक्ति को आवतजन्य व्यवहार का क्रिया करने को अभिप्रेरित करती हैं जिसके कारण व्यक्ति को वैसा व्यवहार करने की अभिप्रेरणा मिलती है। कुछ आदतें तो इतनी मजबूत हो जाती हैं। कि वे दृढ़ अभिप्रेरक् का रूप ले लेती हैं। उदाहरणार्थ कुछ व्यक्तियों को सुबह उठते ही ईश वन्दना करने या शीशे में मुँह देखकर बाल संवारने की आदत पड़ जाती है तब वह इन कार्यों को किये बिना आगे के दैनिक क्रियाएँ नहीं कर पाता है।
2. रूचि– जिस व्यक्ति को जो कार्य अच्छा लगता है या जिसमें उसकी रूचि होती है उसे वह बहुत शीघ्र सीख लेता है। इसी कारण रूचि का सीखने में बहुत अधिक महत्त्व हैं। रूचि से अभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति के व्यवहार का परिचालन होता है। मनुष्य की जिसके प्रति रूचि हो जाती है वह उसके लिए अधिक क्रियाशील रहता है। इस प्रकार रूचियों के फलस्वरूप ही व्यक्तियों को कार्य करने या क्रियाशील होने की अभिप्ररेणा मिलती है।
3. अभिवृत्ति– व्यक्ति अपने परिवेश के विभिन्न तत्त्वों के प्रति अपनी एक अलग धारणा बना लेता है। यह धारणा अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों प्रकार की होती है। इस प्रकार की धारणा को ही अभिवृत्ति कहते हैं। जिस वस्तु या व्यक्ति के प्रति हमारी जैसी अभिवृत्ति बन जाती है हम उसे सदैव वैसा ही देखते हैं और समझते हैं। उदाहरण स्वरूप यदि किसी बालक की एक अध्यापक के प्रति प्रतिकूल या गलत धारणा बन गयी तब वह उस अध्यापक को हमेशा गलत एवं निम्न दृष्टि से देखेगा तथा उस अध्यापक की बातें उसे कड़वी एवं खराब लगेंगी भले ही वे अच्छी क्यों न हों। इसी प्रकार हम अपने मित्रों के प्रति अनुकूल अभिवृत्ति तथा शत्रुओं के प्रति प्रतिकूल अभिवृत्ति रखते हैं। अतः व्यक्ति की अभिवृत्ति उसके व्यवहार को प्रभावित करती है। इससे स्पष्ट है कि अभिवृत्ति एक व्यक्ति अभिप्रेरणा है।
4. जीवन – लक्ष्य सभी लोगों का अपने जीवन का कोई न कोई लक्ष्य होता है। उसे जीवन में क्या बनना है, क्या प्राप्त करना है? इन्हीं लक्ष्यों के अनुसार वह कार्य करने को अभिप्रेरित होता है अर्थात् उसका कार्य एवं व्यवहार तद्गुरूप ही होता है।
5. आकांक्षा स्तर– व्यक्ति का कार्य एवं व्यवहार उसके आकांक्षा स्तर से भी प्रभावित होता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आकांक्षाएँ होती है। जिनकी प्राप्ति के लिए वे क्रियाशील रहते हैं। आकांक्षा स्तर योग्यता से अधिक या कम होने पर व्यक्ति को प्रायः निराशा होती है। अध्यापकों को बालकों की योग्यता को ध्यान में रखते हुए उसका आकांक्षा स्तर बनाये रखने में सहयोग प्रदान करना चाहिए। योग्यता एवं क्षमता से आकांक्षा स्तर एक सीढ़ी ऊपर रहने पर उसकी प्राप्ति से अधिक संतोष मिलता है। आकांक्षाहीन व्यक्ति की क्रियाशील स्वयमेव घटने लगती है। व्यक्ति का आकांक्षा स्तर उसे आगे बढ़ने की अभिप्रेरणा प्रदान करता है।
6. मद व्यसन – सामान्यतया मद व्यसन बुरा माना जाता है, फिर भी अनेक व्यक्ति मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं। प्रारम्भ में वे इन पदार्थों का सेवन शौक या फैशन में तथा मित्र के आग्रह पर करते हैं किन्तु धीरे-धीरे वे इन पदार्थों के इतने आदी हो जाते हैं कि उनके सेवन के बिना उनकी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ निर्बल पड़ने लगती हैं। अतः मद व्यसन की चाहत व्यक्ति को अभिप्रेरित करने लगती है।
(ख) सामान्य सामाजिक अभिप्रेरणा-
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामान्यतया वह जीवन पर्यन्त समाज में ही रहता है। समाज के सदस्य के रूप में उसे कुछ सामाजिक नियमों, रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं के अनुसार रहना एवं व्यवहार करना पड़ता है। इस प्रकार कुछ सामाजिक अभिप्रेरकों से अभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति सामाजिक व्यवहार करता हैं। कुछ मुख्य सामान्य सामाजिक अभिप्रेरणाएँ निम्नलिखित हैं-
1. सामूहिकता – मानव शिशु जन्म के समय असहाय होता है। वह माता-पिता तथा भाई-बहनों के साथ उन्हीं के आश्रय में बड़ा होता है। अतः शैशवावस्था से ही उसके सामूहिक ढंग से रहने तथा समूह के कार्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। मनुष्य की सभी आवश्यकताएँ समाज में रहकर ही पूरी होती है, इस कारण उसमें सामूहिकता का अभिप्रेरक कार्य करने लगता है। यह अभिप्रेरक जन्मजात न होकर व्यक्ति के समाज में रहने के कारण अर्जित होता है। अतः यह अर्जित अभिप्रेरक की श्रेणी में आता है। इसके कारण मनुष्य समुदाय या समूह में रहने तथा सामाजिक कार्यों को करने के लिए अभिप्रेरित होता है।
2. स्वाग्रह या आत्मगौरव- समाज में रहने के कारण व्यक्ति की यह अच्छा होती है कि दूसरे लोग उसका सम्मान करें। प्रारम्भ में बालक इसकी पूर्ति अपने क्रोधपूर्ण व्यवहार से करता है। विकास के साथ-साथ वह अन्य उपायों से आत्मसम्मान प्राप्त करने का प्रयास करता है। आत्म सम्मान की भावना उसे ऐसे कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है जिससे अन्य लोग उसका आदर करें। वह ऐसे समाज विरोधी कार्यों से बचने का भी प्रयास करता है। जिससे उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाती हो। किसी के द्वारा उसके आत्म गौरव को ठेस पहुँचाने पर यही भावना उसे विरोध करने के लिए भी अभिप्रेरित करती है। इस प्रकार मानव शिशु जैसे ही बड़ा होने लगता है वह आत्म सम्मान, आत्म गौरव या आत्म स्थापना रूपी अभिप्रेरणा अर्जित करता है तथा उसके कार्य एवं व्यवहार इस अभिप्रेरक से अभिप्रेरित होते हैं
3. प्रशंसा एवं निन्दा- प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रशंसा सुनना पसन्द करता है। किसी व्यक्ति के अच्छे एवं सामाजिक मान्यता प्राप्त कार्यों के लिए उसकी प्रशंसा होती है तथा बुरे कार्यों के लिए निन्दा या आलोचना की जाती है। इसलिए व्यक्ति प्रशंसा दिलाने वाले कार्यों को करने के लिए अधिक अभिप्रेरित होता है तथा निन्दित कार्यों से बचने का प्रयास करता है।
4. संग्रहशीलता – बच्चे में संग्रह की प्रवृत्ति बाल्यकाल से ही प्रारम्भ हो जाती है। वह अपनी पसन्द की वस्तुओं एवं खिलौनों आदि को इकट्ठा करता हैं। बड़ा होने पर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक संग्रह करता है। वह उपयोगी एवं बहुमूल्य वस्तुओं को संग्रह समाज में सम्मान पाने के लिए भी करता है। इस प्रकार मानव शिशु धीरे धीरे संग्रह की प्रवृत्ति अर्जित करना है।
5. आत्म समर्पण- सभी प्राणियों में पलायन की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। मानव में भी यह प्रकृति जन्मजात होती है किन्तु व्यक्ति अपने अनुभवों के द्वारा इससे मिलती-जुलती प्रवृत्ति को अर्जित भी करता है। किसी परिस्थिति विशेष में कमजोर पड़ने या कोई गलत कार्य करने पर व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है तथा आत्म समर्पण को अभिप्रेरित होता है। अतः आत्म समर्पण की अभिप्रेरणा अर्जित अभिप्रेरक द्वारा उत्पन्न होती है।
6. युद्ध प्रवृत्ति – यद्यपि व्यक्ति में युयुत्सा प्रवृत्ति जन्मजात होती है किन्तु समूह में रहने के कारण उसमें दूसरे समूह या संगठन से युद्ध की प्रवृत्ति भी विकसित हो जाती है। इस अभिप्रेरक में अभिप्रेरित होकर व्यक्ति लड़ाई-झगड़ा करते हैं। अन्य जन्मजात एवं सामाजिक अभिप्रेरकों के कारण भी यह अभिप्रेरक उत्पन्न हो जाता है।
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