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डॉ. राम मनोहर लोहिया (DR. Ram Manohar Lohia)
बीसवीं सदी के महान विचारक, विलक्षण प्रतिभा के धनी, वैचारिक क्रान्ति के नायक डॉ. राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 ई. को अकबरपुर (अम्बेदकर नगर), उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने मैट्रिक और इण्टर की परीक्षा वाराणसी से बी. ए. की परिक्षा सन् 1929 में विद्यासागर कॉलेज, कोलकाता से उत्तीर्ण की। बी. ए. के बाद छात्रवृत्ति मिलने पर उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैण्ड गए और वहाँ से बर्लिन चले गए। बर्लिन विश्वविद्यालय से उन्होंने 1932 में राजनीतिक दर्शन में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की।
डॉ. लोहिया सन् 1933 के प्रारम्भ में भारत लौटे तथा 17 मई, 1934 में पटना में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में देश भर के समाजवादियों के सम्मेलन में भाग लिया तथा समाजवादी आन्दोलन से जुड़ गए। महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रभावित होकर सन् 1938 से सन् 1946 तक उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का डटकर विरोध किया। सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया।
देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् ये जीवनपर्यन्त समाजवादी आन्दोलन के साथ जुड़े रहे। दिसम्बर 1955 में उन्होंने ‘भारतीय समाजवादी दल’ की स्थापना की और इस दल के अध्यक्ष बने।
संसद में प्रवेश पाने की आवश्यकता को समझते हुए सन् 1962 में उन्होंने पं. नेहरू के विरूद्ध चुनाव लड़ा परन्तु असफल रहे। सन् 1953 में वे फर्रुखाबाद से उपचुनाव में लोकसभा के सदस्य चुने गए। वे हिन्दी के अनन्य समर्थक थे। वे एक निर्भीक व्यक्ति और राष्ट्रवादी थे तथा जीवनभर सरकार ‘की गलत नीतियों का विरोध करते रहे।
12 नवम्बर, 1967 को उनका संघर्षशील जीवन बुझ गया।
रचनाएँ
डॉ. लोहिया एक प्रबुद्ध विचारक और लेखक थे। इनकी रचनाओं में से कुछ प्रमुख हैं:
- इतिहास चक्र (Wheel of History),
- मार्क्स, गांधी और समाजवाद (Marx, Gandhi and Socialism),
- भारत विभाजन के दोषी व्यक्ति (Guilty Men of India’s Partition) आदि।
डॉ. लोहिया के आर्थिक विचार
लोहिया ने प्रचलित आर्थिक प्रणालियों का विश्लेषण करते हुए यह संकेत किया कि विश्व की दो-तिहाई जनसंख्या के लिए पूंजीवादी एवं साम्यवादी दोनों प्रणालियाँ अनुपयुक्त प्रणालियों के अन्तर्गत बड़ी-बड़ी मशीनों का प्रयोग बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है जो आर्थिक और हैं। इन दोनों राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीकरण को जन्म देता है। इससे व्यक्ति की स्वतन्त्रता दब जाती है। उन्होंने आदर्श समाज व राष्ट्र के लिए तीसरा रास्ता सुझाया वह है समाजवाद का। उन्होंने कहा कि “समाजवाद गरीबी के समान बंटवारे का नाम नहीं बल्कि समृद्धि के अधिकाधिक वितरण का नाम है। बिना समता के संवृद्धि असम्भव है और बिना समृद्धि के सामाजिक समता व्यर्थ है। “
डा. लोहिया की धारणा थी कि देश की श्रम-शक्ति के पूर्ण उपयोग के लिए छोटी-छोटी मशीनों के प्रयोग और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना जरूरी है। इस तरह लोहिया ने आर्थिक विकेन्द्रीकरण के लिए गांधीवादी ढंग का समर्थन किया। वे उद्योगों, बैंकों तथा बीमा कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण के पक्षधर थे।
डॉ. लोहिया की सात क्रान्तियाँ
लोहिया के समाजवादी चिन्तन में आर्थिक सामाजिक न्याय और विकेन्द्रीकरण के तत्व तो हैं ही, इसके अतिरिक्त भी उनमें बहुत अधिक व्यापकता है। उन्होंने सदैव ही जाति प्रथा और जातिवादी विष को समाप्त करने के प्रयत्न किए और सामाजिक जीवन में स्त्रियों के लिए समान अधिकार पर विशेष बल दिया। डॉ. लोहिया ने अपने समाजवाद की पुष्टि के लिए सात क्रान्तियों का आह्वान किया। “ये सात क्रान्तियाँ समाजवाद की मूल भावना के अनुरूप होने के कारण उसका मूलाधार ही हैं। ”
(1) स्त्री-पुरुष की समानता के लिए क्रान्ति।
(2) रंग-भेद अथवा प्रजाति भेद पर आधारित राजकीय, आर्थिक और बौद्धिक असमानता के विरुद्ध क्रान्ति ।
(3) संस्कारगत, जन्मजात, जाति प्रथा के विरुद्ध और पिछड़े वर्गों को विशेष अवसर के लिए क्रान्ति।
(4) विदेशी गुलामी के विरुद्ध और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक राज्य के लिए क्रान्ति ।
(5) निजी पूंजी की विषमताओं के विरुद्ध और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए क्रान्ति।
(6) निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के विरुद्ध और लोकतन्त्री पद्धति के लिए क्रान्ति ।
(7) अस्त्र-शस्त्र के विरुद्ध और सत्याग्रह के लिए क्रान्ति ।
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