राष्ट्रीय कवि के रूप में दिनकर जी के काव्य का मूल्यांकन कीजिए।
दिनकर जी ओज और पौरुष के कवि हैं। यहाँ ‘ओज’ शब्द का अर्थ उनकी क्रान्तिकारी राष्ट्रीय और वीरतायुक्त रचनाओं से है एवं ‘पौरुष’ का अर्थ कार्य से है। अतः पहले दिनकर जी की ओजस्वी वाणी जो राष्ट्रीयता से मुखरित हुई है, पर विचार आवश्यक है।
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दिनकर जी के काव्य में राष्ट्रीय भावना
दिनकर जी की राष्ट्रीयता पर उनके युग का प्रभाव पड़ा है। उनका युग दलित और शोषण युग था। छायावादी कवि उस परिस्थिति से कतरा कर निकल चुके थे, लेकिन दिनकर जी सीना तानकर आगे आये और तत्कालीन परिस्थितियों से लोहा लिया। उन्होंने बड़े साहस के साथ भारत माता की स्वतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिए अपने ओजस्वी विचार की खड्ग धारण की।
परिगणित वर्ग के नाम पर अंग्रेजों द्वारा किये गये साम्प्रदायिक अवार्ड से हिन्दू जाति की श्रृंखलाबद्धता को विश्रृंखलित होने का खतरा देख महात्मा गाँधी क्षुब्ध हो उठे और इसके विरोध में उन्होंने अनश किया और अछूतोद्धार का नारा देश को दिया। रूढ़िवादी तथा समाज में स्वयं को श्रेष्ठ समझाने वाला ब्राह्मण वर्ग तिलमिला उठा और उस तिलमिलाहट में गाँधी की हत्या तक करा देने का प्रयत्न किया। अछूतों द्वारा आन्दोलन को कवि युग धर्म मानता है, अतएव उसकी रक्षा हेतु वह बोधिसत्व का आह्वान करता है-
जागो! गाँधी पर किये नर पशु पतितों के वारों से,
जागो! मैत्री निर्घोष! आज व्यापक युग धर्म पुकारो से,
जागो गौतम! जागो महान् ।
जागो अतीत के क्रान्ति गान।
इसी प्रकार सशस्त्र क्रान्ति के इस परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने में विश्वास करने वाले युवा क्रान्तिकारियों-भगतसिंह, यतीन्द्रनाथ, बटुकेश्वर दत्त आदि पर जेल में उन पर किये जाने वाले अत्याचार से जहाँ सारा देश उत्तेजित हो उठा था वहीं दिनकर भी इससे अछूते नहीं रहे। यतीन्द्रनाथ की शहादत पर कवि ने 200 पंक्तियों की एक लम्बी कविता लिख डालीं।
‘रेणुका’ की राष्ट्रीय चेतना में करुणा और अवसाद का स्वर केवल अतीत से सम्बन्धित कविताओं में ही नहीं प्रत्युत वर्तमान परिस्थितियों से प्रेरित रचनाओं में भी मिलता है। यों वह गाँधी में प्रतिपूर्ण श्रद्धा एवं आस्था रखते थे, लेकिन उनकी अहिंसा की नीति के पूर्ण समर्थक कभी नहीं रहे क्योंकि बंगाल और बिहार के क्रान्तिकारियों के आन्दोलन से प्रभावित थे। अतएव स्वाधीनता प्राप्ति के लिए हिंसा का मार्ग अपनाने में भी उन्हें हिचक नहीं थी। निम्न पंक्तियाँ इसकी पुष्टि कर देती हैं-
रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने दो उनको स्वर्ग धीर
पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर!!
‘उठ जागो, हुंकारो, कुछ मान करो’ के स्वर में ‘हुंकार’ रचना में जनशक्ति को कवि चुनौती देता है। ‘हुंकार’ काव्य-संग्रह में ‘अनल किरीट’ कविता में देशवासियों को विदेशी शासकों के अत्याचारों से मुकाबला करने के लिए प्रणों तक की बलि चढ़ा देने की प्रेरणा देता है। ‘कल्पना की दिशा’ में गाँधी की नीति का विरोध स्वर मुखरित हुआ है और ‘असमय आह्वान’ में कवि मन का द्वन्द्व ही नहीं बल्कि उस युग के युवक वर्ग का द्वन्द्व व्यक्त हुआ है।
अपने देश के साम्प्रदायिक दंगों से क्षुब्ध होकर दिनकर कह उठते हैं-
बहाया जा रहा इन्सान का सींगवाले जानवर के प्यार में।
कोम की तकदीर फोड़ी जा रही मस्जिदों की ईंट की दीवार में।
वहीं विश्व पटल पर हिटलर के अत्याचारों से कह को वह कूटक्ति कहते हैं-
राइन तट पर खिली सभ्यता हिटलर खड़ा मौन बोले।
सस्ता खून यहूदी का है, नाली जिन स्वास्तिक धोले ॥
‘सामधेनी’ और ‘कुरुक्षेत्र काव्य की रचना द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीयों द्वारा भोगी गयी कठिनाइयों और विपत्तियों को पृष्ठभूमि बनाकर हुई है तथा राजनीति, स्थितियाँ और चेतना से प्रभावित है। सन् 1942 ई. में ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पास होने पर अंग्रेजों का दमन-चक्र निर्ममतापूर्वक चला। ‘आग की अग्नि’ इसी पीड़ित जनता का ही चित्र है-
सुलगती नहीं यज्ञ की आग दिशा धूमिल यजमान अधीर,
पुरोधा कवि कोई है यहाँ? देश को दे ज्याला के तीर।
देश की छोटी लेकिन महत्त्वपूर्ण घटनाएँ और समस्याएँ भी दिनकर की दृष्टि के स्पर्श से बची नहीं रह सकीं। आजाद हिन्द सेना के बलिदान और वीरता की कहानी ‘सरहद के पार’ तथा ‘फूलेगी डालों में तलवार’ शीर्षक कविताओं में कही गयी हैं। गाँधी की निर्मम हत्या से पीड़ित होकर कवि ‘वज्रपात’ और ‘अपघटन घटना का समाधान’ लिखने को प्रेरित हुआ, तो दिल्ली और मास्को में भारत के साम्यवादियों की राष्ट्र विरोधी नीतियों और मास्को-मुखी दृष्टिकोण से क्षुब्ध होकर उन्हें स्वदेश के प्रति अपने कर्तव्य का बोध करवाया। बिहार में हुए दंगे से दुःखी होकर उन्होंने ‘हे मेरे स्वदेश’ शीर्षक कविता में लज्जा, ग्लानि और विवशता का चित्रण किया है-
यह विकटं भास! यह कोलाहल! इस वन में मन उकसाता है।
भेड़िये ठठाकर हँसते हैं, मनु का बेटा चिल्लाता है।
इस प्रकार आजादी मिलने के पश्चात् देश को देशवासियों की आशा के अनुरूप प्रगति और विकास करते न देखकर कवि ‘जनतन्त्र का जन्म’ नामक कविता लिखता है तथा ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” कहकर तत्कालीन शासक जन-प्रतिनिधियों को भी चुनौती दे डाली है।
राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत
इन रचनाओं में क्रान्ति का उद्घोष है, हृदय की ज्वाला है, दास्ताँ की पीड़ा और उसके विरुद्ध विद्रोह की भावना है। पीड़ित मानवता और दलित समाज के प्रति दिनकर की सहानुभूति सहज ही फूट पड़ी है। मैथिलीशरण गुप्त के पश्चात् राष्ट्रीय भावधारा को अपने युग के अनुसार चित्रित करने में दिनकर ही प्रमुख हैं।
दिनकर की रचना में विश्व कल्याण की महती भावना की अभिव्यक्ति हुई है। ऐसी रचनाएँ विश्व कल्याण की पोषक हैं। कवि विश्व क्रान्ति द्वारा शान्ति चाहता है। विश्व की विषम परिस्थितियाँ उसको उसी प्रकार उद्वेलित करती हैं जिस प्रकार देश की विषम परिस्थितियाँ उसे चैन नहीं लेने देतीं।
दिनकर की राष्ट्रीय चेतना वर्तमान की पुकार से सजग होती हैं और क्रान्ति का नारा लगाती है। उसे शक्ति के प्रति अगाध आस्था है-
बल के सम्मुख विनत मेड़-सा, अम्बर शीश झुकाता है।
इससे बढ़ सौन्दर्य दूसरा, तुम को कौन सुहाता है?
है सौन्दर्य शक्ति का अनुचर, सुन्दरता निस्सार वस्तु है
हो न साथ में शक्ति अगर!
दिनकर की राष्ट्रीय चेतना पर सत्य और अहिंसा के प्रभाव के दो स्रोत हैं- (i) प्रतीक की परम्परा का प्रभाव (ii) गाँधी का प्रभाव। वह एक ओर अहिंसावाद नीति का विरोध करते हैं तो दूसरी और शक्ति और क्रान्ति के महत्त्व का वर्णन करते हैं। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में अहिंसा की नीति का विरोध करते हुए प्रतिशोध शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-
गीता में जो त्रिपिटिक निकाल पढ़ते हैं,
तलवार गलाकर जो तकली गड़ते हैं।
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं कार्य अजा का।
जब तक प्रसन्न वह अनल सुगुण हँसते हैं,
दिनकर ने अपने काव्य में राष्ट्रीय भावना के सम्बन्ध में स्वयं लिखा है- “संस्कारों से मैं कला के सामाजिक पक्ष का प्रेमी अवश्य बन गया था, किन्तु मेरा मन भी चाहता था कि गर्जना तर्जन से दूर रहूं और केवल ऐसी ही कविताएँ लिखूं जिनमें कोमलता और कल्पना का उभार हो…… और सुयश तो मझे ‘हुंकार’ से ही मिला, किन्तु आत्मा अब भी ‘रसवन्ती’ में बसती है। राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर से नहीं आती। उसने बाहर से आकर मुझे आक्रान्त किया है। दिनकर के काव्य में प्रणय और राष्ट्रीयता की दो समान धाराएँ प्रवाहित हुई हैं।” अतः स्पष्ट है कि दिनकर जी ओज और पौरुष के कवि हैं। उनकी रचनाओं में कर्मवाद की चेतना के दर्शन होते हैं।
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