नेत्र की रचना एवं कार्यों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
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नेत्र की रचना
नेत्र भीतर से खोखले तथा कुछ चपटे गोलक जैसे होते हैं जिनका व्यास लगभग एक इंच और सामने का भाग तनिक उभरा होता है। कपाल के नेत्र-गुहों में अस्थियों के बीच में ही इन नेत्र-गोलकों का स्थान है। नेत्र-गोलक के बाहर, नेत्र गुहों का भाग वसा से भरा रहता है जो नेत्र-गोलकों को आघात से बचाता है। सामने से नेत्र पलकों द्वारा सुरक्षित होते हैं। पलकों के किनारों पर बिरोनियाँ होती हैं जो नेत्रों की उस समय तक रक्षा करती हैं जब तक कि पलक खुले रहते हैं।
पलक के अन्दर की ओर पूरे नेत्र पर एक चिकनी कोमल कला चढ़ी होती है जो पारदर्शी होती है और जिसे नेत्र- श्लैग्मिक (Conjunctiva) कहते हैं। यह कुछ तो स्वयं के स्राव द्वारा तरल रहती है और कुछ अशुओं द्वारा जो अश्रु पन्थियों (Lachrymal Glands) से स्रवित होते हैं। ये ग्रन्थियाँ प्रत्येक नेत्र-गुहा के ऊपरी और बाहरी कोने की ओर स्थित होती हैं। इन मन्थियों से रसस्राव अनेक छोटी नलियों द्वारा होता है, जो पलक के अन्दर खुलती हैं। अश्रु पलकों को धोने, नेत्रों का धूल और बाहरी वस्तु की स्वच्छता करने का काम करते हैं। अश्रु-पन्थियों का स्राव नेत्र श्लैग्मिक के निचले गर्त में एकत्रित हो जाता है और अस्थि में स्थिर एक छोटी नली के मार्ग से होकर नलिका में बह जाता है। जब अश्रु अधिक उत्पन्न होते हैं (जैसे रुदन में), तो वे पलकों के बाहर बहने लगते हैं। उसी समय नासिका के भीतर भी साधारण स्थिति की अपेक्षा अधिक आर्द्रता का अनुभव होता है, क्योंकि नलिका का भीतर से अधिक स्राव होता है।
बिरौनियों की जड़ों के पास पलकों में अनेक प्रन्थियाँ स्थिर होती हैं जिन्हें मिबोमियन (Meibomian) प्रन्थियाँ कहते हैं। इन प्रन्थियों का यह नामकरण उस व्यक्ति के नाम पर हुआ है जिसने इनका पता लगाया था। ये ग्रन्थियाँ पलकों के सिरों पर बिरौनियों के रोम-कूपों (Pores) के द्वारा खुलती हैं। इनमें एक प्रकार का रस-स्राव होता है जो दो कार्य करता है- (1) पलकों से सिरों का आर्द्रता और चिकना करना जिससे जब दोनों पलक परस्पर मिलते हैं तो दोनों में आवश्यकता से अधिक संघर्षण नहीं हो पाता; (2) एक चिपचिपी सीमा बनाना जिसके पार अश्रु उस समय तक नहीं जाते जब तक कि वे अधिकता से उत्पन्न न हो। यदि इनमें से किसी ग्रन्थि का मुख अवरुद्ध हो जाए तो परिणामतः गुहेरी (Stye) हो जाती है।
यदि नेत्र की शल्य क्रिया की जाए तो पता लगेगा कि उसकी दीवार तीन परतों से बनी होती है, जिसमें दो कोष्ठ होते हैं तथा उनमें पारदर्शी तत्व भरा रहता है। ये तीन परतें हैं-
- श्वेत पटल (Sclerotic) और स्वच्छ मण्डल (Cornea) – यह सबसे बाहरी भाग है।
- रज्जित पटल (Choroid) और उपतारा (Iris) – यह मध्य की तह होती है।
- दृष्टि पटल (Retina)- यह सबसे भीतर का भाग है।
श्वेत पटल और स्वच्छ मण्डल
नेत्र की श्वेत पटल कड़ी, अपारदर्शक (केवल सामने के भाग को छोड़कर) तन्तुमय कला होती है। सामने की ओर यह पारदर्शक होती है, ताकि प्रकाश भीतर प्रवेश कर सके। इसको ‘स्वच्छ मण्डल’ कहते हैं।
श्वेत पटल का कार्य क्षेत्र के भीतरी भाग की रक्षा करना तथा नेत्र का गोल आकार बनाए रखना और उन्हें विकृति से बचाना है। यदि किसी तरह यह परत फैल जाए या नष्ट हो जाए तो नेत्र का शेष आकार बिगड़ जाएगा।
श्वेत पटल पीछे की ओर मोटी रस्सी के प्रकार की दृष्टि तन्त्रिका (Optic Nerve) में छिद्र रहता है। श्वेत पटल के बाहरी भाग से अनेक पेशियाँ सम्बन्धित होती हैं, जिससे नेत्र-गोलक विभिन्न दिशाओं में घूमता है।
रंजित पटल और उपतारा
रंजित पटल- यह एक काली-भूरी कला होती है जो श्वेत पटल की सतह के भीतर स्थिर रहती है। इस सतह के कोषों में वर्णक तत्व (Pigment) होता है जो नेत्र गोलक के भीतरी भाग को अन्धकारमय बनाता है और हर प्रकार की चौंध से उसकी रक्षा करता है। सूर्यमुखी (Albinos) व्यक्तियों में यह वर्णक तत्व नहीं होता। ये प्रायः लगभग दिन के तीव्र प्रकाश में अन्धे होते हैं। श्वेत पटल की भाँति यह भी पीछे की ओर दृष्टि तन्त्रिका द्वारा छिपी होती है।
उपतारा- सामने की ओर रंजितं पटल उपतारा से मिला हुआ होता है। उपतारा एक गोलाकार काला परदा है, जो स्वच्छ मण्डल के पीछे कुछ दूरी पर स्थित होता है। उपतारा में प्रवेश करने के ठीक पहले रंजित पटल की भीतरी सतह में कई लपेटनें होती हैं जिन्हें सिलियरी प्रवर्द्धन (Ciliary Process) कहते हैं, और इसकी बाह्य सतह पर पेशियों का एक गोलाकार समूह दृष्टिगोचर होता है, जिसे सीलियरी पेशी (Ciliary Muscles) कहते हैं।
उपतारा एक संकुचनशील पेशी के तन्तुओं से बना हुआ है जिसे स्वच्छ मण्डल में देखा जा सकता है। उपतारा भी विभिन्न अनुपात में जमा वर्णक तत्व (Pigment) के कारण नेत्रों का नीला, भूरा या काला वर्ण प्रदान करता हैं। उपतारा के बीच में एक छोटा-सा छिद्र होता है, जिसे पुतली (Pupil) कहते हैं।
उपतारा में दो प्रकार के अनैच्छिक पेशीय तन्तु होते हैं—(1) गोलाकार और (2) खड़े। इन तन्तुओं का काम पुतली की छोटाई बड़ाई को सन्तुलित करना और इस प्रकार से उस प्रकाश को जो नेत्र के भीतर प्रवेश करता है, नियन्त्रित करना होता है। जब नेत्र खोलकर प्रकाशोन्मुख किए जाते हैं तो गोलाकार पेशीय तन्तु संकुचित होते हैं और पुतली के खुलाव को संकरा कर देते हैं। जब नेत्र बन्द कर लिए जाते हैं या प्रकाश की ओर से हटा लिए जाते हैं तो खड़े पेशीय तन्तु संकुचित होते हैं और पुतली फैल जाती है।
ताल- उपतारा के ठीक पीछे एक युगल उन्नतोतर ताल है जिसका व्यास लगभग आधा इंच है। यह गोलाकार बिल्लोर के समान स्वच्छ, अर्द्धपारदर्शक और लचकीला होता है। यह एक प्रकार के कोमल, चिपचिपे, सजीव तन्तु से बना ठोस पिण्ड है। यह अस्थि-तन्तुओं के द्वारा अपने ठीक स्थान पर स्थित रहता है। यह अस्थि तन्तु ताल के सिरों से सिलियरी प्रवर्द्धन तक जाते हैं और इस प्रकार ताल को नेत्रों की दीवार में सिलियरी पेशियों से जोड़ने का काम करते हैं।
इन पेशीय तन्तुओं की सहायता से ताल में उभार को बढ़ा-घटा लेने की शक्ति है। इस शक्ति को ‘संयोजक शक्ति’ (Accommodation) कहते हैं।
नेत्र के कोष्ठ- ताल नेत्र-गोलक को दो-आगे-पीछे के छोटे और असम कोष्ठों में विभाजित कर देता है। आगे वाले कोष्ठ में स्वच्छ पानी जैसा तरल पारदर्शी रस (Aqueous Humour) भरा होता है। पीछे वाले कोष्ठ में एक पारदर्शक जेली जैसा पदार्थ भरा होता है जिसे सान्द्र रस (Vitreous Humour) कहते हैं और जो एक कला में बन्द रहता है। पारदर्शी सरल रस, स्वच्छ ताल और सान्द्र रस नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश की रश्मियों को तिरछा करने का काम करते हैं, ताकि प्रकाश की रश्मियाँ ठीक दृष्टि-पटल पर केन्द्रित हो सकें और नेत्र देखने का काम ठीक से कर सकें।
दृष्टि पटल
रंजित पटल की सतह के भीतर दृष्टि-पटल स्थित होता है और जिससे ढीली तरह से जुड़ा होता है, यह अत्यन्त कोमल और पतला होता है। यह दृष्टि तन्त्रिका का बाहर निकला हुआ विस्तृत भाग होता है और नेत्र-गोलक के भीतरी भाग के दो तिहाई को घेरे रहता है। दृष्टि-पटल में कई परतें होती हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण परतों को ‘दण्ड’ और ‘शंकु’ (Rods and Cones) कहते हैं। दृष्टि-पटल के किसी भी भाग की संवेदनशीलता उस स्थान पर विद्यमान दण्ड और शंकु की संख्या पर निर्भर करती है। दण्डों का काम काले और सफेद का भेद करना, अन्धकार में देखना और शंकु का काम दिन के प्रकाश में रंगों का भेद करना है। प्रकाश का उन पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता, जैसा कि अभी थोड़े दिन पहले तक समझा जाता था। दण्ड और शंकु रासायनिक तत्वों से घिरे रहते हैं और प्रकाश के प्रति संवेदनशील होते हैं। इन रासायनिक तत्वों के परिवर्तनों के प्रति दण्ड और शंकु संवेदनशील होते हैं और संवेग दृष्टि-तन्त्रिका के द्वारा मस्तिष्क के दृष्टि केन्द्र तक पहुंचता है।
दृष्टि-पटल का पुतली के ठीक पीछे वाला भाग रंग में कुछ-कुछ पीला होता है और ‘पीत-बिन्दु’ (Yellow Spot) कहलाता है। यहीं पर स्पष्ट दृष्टि के लिए प्रकाश की समतल किरणें केन्द्रित होती हैं। यह स्पष्ट दृष्टि के केन्द्र हैं। यहाँ पर केवल शंकु ही होता है जो एक साथ दृढ़ता से जुड़े रहते हैं। इस छोटे केन्द्र के बाहर दण्ड और शंकु एक-दूसरे से घुले-मिले रहते हैं और दृष्टि-पटल के बाहर शंकु की संख्या कम हो जाती है। यदि प्रकोष्ठ में दृष्टि किसी वस्तु पर केन्द्रित की जाती है तथा उनका प्रतिबिम्ब पोत बिन्दु पर पड़ता है, तो वस्तु शीघ्रता से केन्द्रित हो जाती है और उसे साफ-साफ देखा जा सकता है। आस-पास की वस्तुओं का केन्द्र दृष्टि पटल के अन्य भागों पर भी पड़ता है। यद्यपि हम उन्हें देख सकते हैं, पर उतना स्पष्ट नहीं जितना उस वस्तु पर जो कि हमारे आकर्षण का केन्द्र है।
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