पन्त जी के प्रकृति चित्रण की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
सुमित्रानन्दन पन्त जी प्रकृति के सुकोमल कवि के रूप में समादृत है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “पन्त जी मूलतः प्रकृति के कवि हैं। उनकी काव्य चेतना के निर्माण में प्रकृति का विशेष प्रभाव है।” पन्त जी ने तो स्वयं ही स्वीकार किया है।- “कविता की प्रेरण मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है। जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्माचल प्रदेश को है।” यही तथ्य वे ‘रश्मि बन्धु’ (परिदर्शन) में भी स्वीकार करते हैं— “मेरे भीतर ऐसे संस्कार अवश्य रहे होंगे। जिन्होंने मुझे कवि की प्रेरणा दी, किन्तु उस प्रेरणा के विकास के लिए स्वप्नों के पालनों की रचना पर्वत प्रदेश की दिगंतव्यापी प्राकृतिक सोभा ही ने की, जिसने छुटपन से ही मुझे अपने रूपहले एकान्त में एकाग्र तन्यमयता के रश्मि दोल में झुलाया, रिझाया तथा कोमलकंठ वन पाखियों के साथ बोलना कुहकना सिखलाया।”
(1) आलम्बन रूप में आलम्बन रूप में प्रकृति कवि लिए साधन न होकर साध्य बन जाती है प्रबन्ध काव्य में प्रकृति के संश्लिष्ट चित्र के लिए अधिक अवकाश रहना है किन्तु गीतिकाव्य में हमें प्रकृति का समग्र रूप एक साथ नहीं मिल पाता। पन्त जी ने गीतों की रचना की हैं। अतः उनके गीतों में प्रकृति के अनेक तंत्रों के स्पर्श तक एक साथ केन्द्रित रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाये। इस प्रणाली के अन्तर्गत ‘संश्लिष्ट चित्रण प्रणाली’ और ‘नाम परिणन शैली’ दोनों रूप दृष्टव्य है। ‘बादल’ ‘आसू’, ‘बसन्त श्री’, ‘परिवर्तन’, ‘गुंजन’, ‘एक तारा’, ‘नौका विहार’, ‘हिमाद्रि’ आदि कविताओं में यह प्रणाली अपने पूरे आवेग के साथ उभर कर सामने आयी है-
पावन ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति देश।
मेखलाकार पर्वत अपार, अपने सहस्त्र दृगं सुमन फाड़ अवलोक रहा है बार-बार।
इस प्रकार के चित्रों में प्रकृति की रमणीयता को ही उभारा गया है-
(2) उद्दीपन रूप- जहाँ प्रकृति मानव भावनाओं का उद्दीपन करती है, वहाँ प्रकृति का यही रूप होता हैं उसमें सुखद क्षणों (संयोगादि) में और सुखद क्षणों (वियोगादि) में कवि भावों को उद्दीप्त करने के लिए प्रकृति का उपयोग करता है। पन्त जी ने दोनों प्रणालियों को अपनाया गया है। ‘मधुरिमति’, ‘मधुवन’, ‘गृहकाज’, ‘गुंजन’, ‘मिन’, प्रथम मिलन’ आदि कविताओं के उत्तेजना प्रदान करती है। वियोग के क्षणों में प्रकृति का उद्दीपनकारी रूप ‘ग्रन्थि’ ‘आँसू’, ‘उच्छ्वास’ आदि कविताओं में उभरा है-
देखता हूँ जब उपवन, पियालों में फूलों के
प्रिये! भर-भर अपना यौवन पिलाता है मधुकर को।
(3) संवेदनात्मक रूप – यह दो प्रकार का होता है— (क) जहाँ प्रकृति मानव के उल्लास के साथ आनन्दित दिखायी जाती है। (ख) जहाँ प्रकृति भी दुःखी मानव के साथ आँसू बहाती है। पन्त जी ने दोनों ही चित्र उभारे हैं।
(4) रहस्यात्मक रूप में – प्रकृति में ईश्वर की व्याप्त है, क्योंकि ईश्वर समस्त जगत में व्याप्त है। अतः प्रकृति में परम तत्त्व का आभास करते ही कषि रहस्यवादी हो जाता है। कवि को कोई निमंत्रण दे रहा है, पर वह कौन है? यही तो जिज्ञासा भाव है—
न जाने तपक तड़ित में कौन, मुझे इंगित करता मौन।
न जाने सौरभ के मिस कौन, सन्देशा मुझे भेजता मौन ।
(5) प्रतीकात्मक रूप – वर्तमान काव्य में प्रकृति का प्रयोग प्रतीकों के रूप में भी किया है। प्रायः प्रकृति के उपकरण विविध भावों, रूपों एवं क्रियाओं के प्रतीक बनकर आधुनिक युग के काव्य से उभरे हैं। पन्त जी ने प्रकृति का प्रयोग प्रतीकों के रूप में किया है-
अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी न थे लाज के बोल, खिले भी चुम्बन शून्य कपोल।
हाय! रुक गया यही संसार बना सिन्दूर अंगार।
बात हत लतिका यह सुकुकार पड़ी है छिन्नाधार ।
(6) अलंकार रूप में – प्रकृति के विभिन्न उपकरणों का प्रयोग उपमान के रूप में पर्याप्त समय से होता है। पन्त जी ने भी इसे उस क्रम में स्वाभाविकता रूप से उनका प्रयोग किया है। ‘मधुबाला की सी गुंजार’, ‘वारि बिम्ब सा विकल हृदय’, ‘इन्द्रचाप सा वह बचपन’, विहग बालिका का सा मृदु स्वर’, ‘तरल तरंगों सी वह लीला’ जैसे प्रयोग दृष्टव्य है।
(7) मानवीकरण रूप में – प्रकृति का मानवीकरण छायावाद की एक महत्त्वपूर्ण विशिष्टता है। प्रकृति पर चेतना का आरोप ही मानवीकरण है। डॉ. किरण कुमारी के अनुसार, ‘हिन्दी काव्य में आधुनिक काल में ही प्रकृति के मानवीकरण के दर्शन होते हैं। अंग्रेजी में रोमांटिक काव्य के प्रभावस्वरूप छायावादी काव्य में इस प्रकार के प्रयोग प्रचुर मात्रा में है।” संस्कृत में ‘मेघदूत’ इसका उदाहरण है। पन्त के काव्य में यह प्रयोग प्रचुर मात्रा में मिलात है। शरद, निशा, बाल आदि विभिन्न रूपों को मूर्त रूप में चित्रित किया है—
कौन कौन तुम परिहत वसना, म्लान मना भूपतिला सी।
बात-हता विच्छिन्न लता-सी, रति श्रान्ता ब्रज वनिता सी।
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