“आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन परम्परा तथा आधुनिकता का समन्वय है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
परम्परा और आधुनिकता का समन्वय | Tradition and modernity of amalgamation
परम्परा और आधुनिकता का समन्वय- राजा राममोहन राय को आधुनिक भारत का जनक माना गया है, क्योंकि उन्होंने परम्परा और आधुनिकता में समन्वय लाने का गम्भीर प्रयास किया। उन्हें ऐसे सेतु के नाम से जाना जाता है, जिस पर चलकर भारत परम्परा से आधुनिकता की ओर मुड़ गया।
समाज सुधारकों के सतत् प्रयत्नों के परिणामस्वरूप एक ऐसे समन्वित समाज का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें परिवर्तन की सम्भावनाओं को प्रोत्साहन मिला। इस समाज में जहाँ एक ओर वैदिक संस्कृति की पुनर्स्थापना तथा निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वत्र विराजमान तथा कल्याणकारी एकेश्वर की पूजा-अर्चना की परम्परा की नींव डाली गई, वहाँ सभी धर्मों तथा धर्मावलम्बियों की दैनिक समानता तथा धार्मिक सहिष्णुता को भी बराबर का महत्व दिया गया।
लोगों को ऐच्छिक रूप से धर्म परिवर्तन की स्वतन्त्रता दी गई तथा मूर्ति पूजा के व्यक्तिगत रूप तथा उससे उत्पन्न कुरीतियों से पीछा छुड़ाने के लिए पूजा अर्चना का पाश्चात्य समागमी रूप अपनाया गया। जिन अन्धविश्वासों तथा तर्कहीन मान्यताओं से समाज ग्रस्त था, उनसे छुटकारा प्राप्त करने का भी संगठित प्रयास किया गया।
बदलते हुए समाज की परिकल्पनाओं को ध्यान में रखते हुए, जहाँ मनु की वर्ण-व्यवस्था, जो समाज के एक सामान्य आर्थिक वर्गीकरण के रूप में भी, उसकी पुनर्स्थापना करने का प्रयत्न किया गया, वहाँ इसके जातिप्रथा के रूप में हुए अपभ्रंश का तिरस्कार भी किया गया। सभी जातियों को, ऊँच-नीच के भेद के बिना, समान माना गया तथा एक अन्तर्जातीय समाज की स्थापना की दिशा में अन्तर्जातीय भोजों और विवाहों को प्रोत्साहित करने के अनेक प्रयास किये गये।
इस समन्वित समाज में उन प्राचीन भारतीय परम्पराओं, रीति-रिवाजों तथा मूल्यों की पुनर्स्थापना का प्रयत्न किया गया, जो लाभप्रद तथा प्रासंगिक थे। ऐसा समाज में एकता तथा बन्धुता सुनिश्चित करने के लिए किया गया। दूसरी ओर, सती प्रथा, देवदासी प्रथा, बहु पत्नी-विवाह तथा बाल विवाह जैसी घातक सामाजिक परम्पराओं का विरोध तथा तिरस्कार भी किया गया।
समाज में पुनर्जागरण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। जहाँ एक ओर वैदिक शिक्षा, संस्कृति तथा मूल्यों की पुनर्स्थापना का बीड़ा उठाया गया, वहाँ अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी पहनावा तथा जाँच पड़ताल की पश्चिमी प्रक्रिया को भी अपनाया गया।
जहाँ तक समाज में स्त्री के स्थान का सम्बन्ध है, उसके परम्परागत गृह लक्ष्मी के स्वरूप को बनाये रखने का प्रयत्न किया गया तथा इस प्रयास को मूर्तरूप देने के लिए स्त्रियों के लिए गृह प्रशासन के विशेष शिक्षण-प्रशिक्षण पर जोर दिया गया। स्त्रियों की समानता तथा आर्थिक स्वावलम्बन की बात उठाई गई। उन्हें सम्पत्ति में पुरुषों के समान भागीदारी देने की बात कही गई तथा सती, पर्दा, देवदासी, तथा बाल-विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों से छुटकारा दिलाने का प्रयत्न भी किया गया।
राजनैतिक क्षेत्र में, सद्शासन की प्राथमिकता को स्वीकार करते हुए इस बात पर जोर दिया गया कि शासन जन-कल्याण के लिए हो न कि केवल राज-घरानों के कल्याण के लिए। कल्याणकारी शासन की परम्परा के साथ-साथ, पाश्चात्य संसदीय जनतन्त्र को अपनाने का भी गम्भीर प्रयत्न किया गया, क्योंकि यह शासन प्रणाली न केवल उत्तरदायी तथा संवेदनशील होती है, बल्कि इसमें जनता को अधिक से अधिक भाग लेने का अवसर भी प्राप्त होता है।
जहाँ तक न्याय व्यवस्था का सम्बन्ध है, उसे न केवल धर्मशास्त्रों पर आधारित माना गया, बल्कि साथ ही साथ जूरी व्यवस्था तथा विधानमण्डलीय कानूनों के अनुसार न्याय करने की प्रक्रिया के साथ भी जोड़ दिया गया।
सामन्तवादी शासन व्यवस्था के अन्तर्गत जनता से अपने कर्तव्यों और दायित्वों का स्वेच्छा तथा प्रसन्नता से निर्वाह करने की जो परिपाटी थी, उसे बनाये रखते हुए लोगों से अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने तथा उन्हें उनके लिए संघर्ष करने के लिए प्रोत्साहित भी किया गया। जहाँ लोगों से कानूनों के पालन, सरकार के साथ सहयोग तथा कर देने के दायित्वों का निर्वहन की अपेक्षा की गई, वहाँ उनके संवैधानिक तथा शान्तिपूर्ण तरीकों से अपनी आत्मा और विचारों की अभिव्यक्ति तथा सरकार की आलोचना और परिवर्तन के अधिकार की बात भी की गई।
स्वराज के लिए संघर्ष करना प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है, इस अवधारणा का प्रचार-प्रसार इस सदी के सभी चिन्तकों तथा राजनैतिक आन्दोलनकारियों ने किया। जहाँ नौरोजी, रानाडे तथा गोखले जैसे उदारवादी क्रमिक संघर्ष तथा प्रार्थना और याचना की राजनीति का सहारा लेते थे, वहाँ लाल बाल की त्रिमूर्ति ने दबाव की राजनीति को अपनाया। आगे चलकर, महात्मा गाँधी ने के साधनों का समन्वय करके भारत के लिए स्वराज के आन्दोलन का नेतृत्व किया। श्री अरविन्द के अलावा, 20वीं सदी के सभी भारतीय विचारक, हिंसा तथा बम की रणनीति में विश्वास करने के स्थान पर, शान्तिपूर्ण, लगभग अहिंसक, आन्दोलन की राजनीति में आस्था रखते थे। आधुनिक भारत की एक पहचान राजनीति के अध्यात्मीकरण तथा धर्मनिरपेक्षीकरण की भी रही है, जिसे विवेकानन्द, महात्मा गाँधी तथा जयप्रकाश नारायण जैसे विचारकों ने मूर्तरूप देने का प्रयत्न किया। इस काल की दूसरी पहचान आर्थिक समाजीकरण की रही है और उसके प्रमुख विचारकों में मानवेन्द्र नाथ राय तथा जय प्रकाश नारायण के विभिन्न दृष्टिकोण को महत्वपूर्ण माना जाता है।
स्वतन्त्रता आन्दोलन की अवधि में जहाँ हिंसा बनाम अहिंसा की राजनीति चलती रही, वहाँ समीकरण बनाम अलगाववाद की राजनीति भी पीछे नहीं रही। गाँधी यह चाहते थे कि सम्प्रदायवाद और जातिवाद की कुप्रथायें सदा के लिए समाप्त हो जायें तथा धीरे-धीरे विभिन्न सम्प्रदायों और जातियों का ऐसा समीकरण हो जाये कि हरेक की पहचान केवल यही हो कि वह भारतीय है न कि वह किस धर्म को मानने वाला है या किस जाति में पैदा हुआ है। सामाजिक प्रथा आर्थिक रूप से प्रताड़ित वर्ग को अन्य वर्गों के साथ समानता के स्तर पर लाने के लिए उन्हें शिक्षा तथा नौकरियों में प्राथमिकता दी। दूसरी ओर अम्बेडकर सभी धर्मों व जातियों की समानता के पक्षधर थे परन्तु वे उत्पीड़ित तथा दलित वर्ग की एक पृथक जमात के रूप में बनाये रखना चाहते थे। इस तरह उन्होंने अलगाववाद का अनुसरण किया तथा शिक्षण संस्थाओं, नौकरियों व विधान मण्डलों में एक निश्चित आरक्षण की माँग की।
इस प्रकार उपरोक्त के आधार पर हम कह सकते हैं कि आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन परम्परागत आधुनिकता का समन्वय है।
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