प्रयोजनवाद से आप क्या समझते हैं ? प्रयोजनवादी शिक्षा के अर्थ, उद्देश्यों, पाठ्यक्रमों, सिद्धान्तों एवं शिक्षण विधियों की विवेचना कीजिए।
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प्रयोजनवाद का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Pragmatism)
वर्तमान युग की दार्शनिक विचारधाराओं में प्रयोजनवादी विचारधारा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह विचारधारा एक और आदर्शवाद का विरोध करती है तो दूसरी ओर प्रकृतिवाद का इस विचारधारा में व्यावहारिक तर्कों को विशेष महत्त्व प्रदान किया जाता है और सत्य की कसौटी पर कसकर ही किसी तथ्य को स्वीकार किया जाता है। व्यावहारिक परिणाम को ही सब सब कुछ मानता है। वास्तव में यह अनिवार्य रूप से एक मानवतावादी दर्शन है और इसके अनुसार मनुष्य अपनी क्रिया के बीच में अपने मूल्यों का निर्धारण करता है। जैसा कि ब्राइटमैन ने लिखा है- ‘प्रयोजनवाद सत्य का मापदण्ड है। मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि यह वह सिद्धान्त है जो समस्त विचार प्रक्रिया की जाँच उसके व्यवहार परिणामों से करता है यदि व्यावहारिक परिणाम संतोषजनक हैं तो विचार प्रक्रिया को सत्य कहा जा सकता है।
विभिन्न विद्वानों ने प्रयोजनवाद की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं। यहाँ प्रमुख परिभाषाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं-
(1) रॉस – ‘प्रयोजनवाद मूलतः एक मानववादी दर्शन है जो यह मानता है कि मनुष्य कार्य करने में अपने मूल्यों का सृजन करता है, कि सत्य अभी भी निर्माण की अवस्था में है और अपने स्वरूप का कुछ हिस्सा भविष्य के लिए छोड़ देता है कि हमारे सत्य मनुष्य निर्मित वस्तुएँ हैं।’
(2) रस्क – ‘प्रयोजनवाद एक प्रकार से नवीन आदर्शवाद के विकास की अवस्था है, वह ऐसा आदर्शवाद है जो वास्तविकता के प्रति पूर्ण न्याय करेगा, व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का मूल करायेगा और इसके परिणामस्वरूप जिस संस्कृति का निर्माण होगा उसमें निपुणता का प्रमुख स्थान होगा न कि उसकी उपेक्षा होगी।’
(3) विलियम जेम्स- ‘प्रयोजनवाद मस्तिष्क का प्रभाव और दृष्टिकोण है। यह सत्य और विचारों की प्रकृति का सिद्धान्त है। यह वास्तविकता का भी सिद्धान्त है।’
(4) प्रैट- ‘प्रयोजनवाद हमें अर्थ का सिद्धान्त, सत्य का सिद्धान्त, ज्ञान का सिद्धान्त और वास्तविकता का सिद्धान्त देता है।”
अन्त में हम कह सकते हैं कि प्रयोजनवाद, जिसे हम प्रयोगवाद अथवा फलवाद कह सकते हैं, वह विचाराधारा है जो उन्हीं क्रियाओं, वस्तुओं, सिद्धान्तों और नियमों को सत्य मानती है जो किसी देश, काल और परिस्थिति में व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी हैं।
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education According to Pragmatism)
प्रो० जॉन डीवी और उनके शिष्य तथा सहयोगियों को शिक्षा देने में प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रचार का श्रेय दिया जाता है। इन लोगों ने शिक्षा के अर्थ पर कई दृष्टियों से विचार किया है जिन्हें यहाँ प्रकट किया जा रहा है-
(1) शिक्षा अनुभवों का पुनर्निर्माण और पुनर्संगठन की क्रिया है- प्रो० जॉन डीवी ने बताया है कि “शिक्षा अनुभवों के अनवरत पुनर्निर्माण और पुनसंगठन की प्रक्रिया है।” जीवन में जो कुछ घटित होता है उससे मनुष्य को अनुभव मिलता है। इन्हीं अनुभवों को वह संचित करता जाता है। इस संचय में वह एक निश्चित क्रम-व्यवस्था रखता है जिससे कोई लाभ हो जावे। यही क्रिया ‘शिक्षा’ है।
(2) शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है- प्रयोजनवादियों का विचार है कि शिक्षा की प्रक्रिया अकेले नहीं होती है बल्कि समाज में रहकर होती है जिससे समाज के आचार-विचार, परम्परा, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान सभी कुछ समझा और ग्रहण किया जाता है। इससे परिस्थितियों को समझकर समायोजन करने में सहायता मिलती है तथा आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। अतएव शिक्षा व्यक्तिगत प्रक्रिया न होकर सामाजिक प्रक्रिया होती है।
(3) शिक्षा मनुष्य के विकास की क्रिया है- शिक्षा निष्प्रयोजन न होकर सप्रयोजन होती है। समाज के सभी मनुष्यों को शिक्षा का प्रयोजन उनका विकास निजी एवं सामूहिक दोनों तौर से होता है सभी मनुष्य योग्य एवं कुशल बनता है। इस प्रकार शिक्षा मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की प्रक्रिया है जिससे वह सभी सम्भावनाओं की पूर्ति करता है।
(4) शिक्षा दो अंगीय प्रक्रिया है- प्रो० डीवी ने शिक्षा प्रक्रिया के (क) मनोवैज्ञानिक तथा (ख) सामाजिक अंग या पक्ष बताता है। मनोवैज्ञानिक अंग में व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमताओं, रुचियों और आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है। सामाजिक अंग में सामाजिक कार्यों में कुशलतापूर्वक भाग लेने की क्षमता, सामर्थ्य आदि पर ध्यान रहता है। प्रयोजनवादी दोनों अंगों के विकास पर ध्यान देते हैं परन्तु अधिक ध्यान सामाजिक अंग के विकास की ओर रहता है।
(5) शिक्षा जनतन्त्रीय समाज के निर्माण की प्रक्रिया है- शिक्षा के द्वारा मनुष्य में स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृभावना के साथ रहने, काम करने तथा समाज को बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए जिससे कि प्रगति एवं विकास की सम्भावना होती है। इसलिए डीवी जैसे प्रयोजनवादी ने कहा है कि, “विद्यालय में सभी छात्रों को स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए जिससे उनमें स्वोपक्रम, स्वाधीनता और साधन सम्पन्नता के सक्रिय गुणों का विकास हो और दोष रहे तथा जनतन्त्र की असफलताएँ गायब हो जावें।” अर्थात् अच्छे जनतन्त्रीय समाज का निर्माण हो जावे।
(6) शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं स्वयं जीवन है- प्रो० डीवी और अन्य प्रयोजनवादियों का दृष्टिकोण जीवन और शिक्षा के प्रति समान है। इनके अनुसार शिक्षा लेकर मनुष्य अपने भविष्य जीवन की तैयारी नहीं करता है बल्कि शिक्षा तो जातीय जीवन का चेतना में भाग लेकर चलती है। जहाँ इस प्रकार का दृष्टिकोण और व्यवहार होता है वहाँ शिक्षा वास्तविक रूप से जीवन ही होती है। आगे प्रो० डीवी ने कहा है कि, “शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं है बल्कि स्वयं जीवन है।”
(7) शिक्षा दर्शन की प्रयोगशालीय प्रक्रिया है- शिक्षा का क्षेत्र व्यापक और क्रियात्मक होता है जहाँ दर्शन के सभी सिद्धान्तों की प्रयोगात्मक ढंग से जाँच की जाती है और उन्हें उपयोगी घोषित किया जाता है तथा लोग उन्हें प्रत्यक्ष रूप समझकर अपनाते हैं। अतएव प्रयोजनवादी विचारक शिक्षा को दर्शन की प्रयोगशाला मानते हैं और शिक्षा की प्रक्रिया को प्रयोगशालीय प्रक्रिया कहते हैं।
प्रयोजनवादी शिक्षा का उद्देश्य (Aims of Pragmatic Education)
परम्परागत शिक्षा के सम्बन्ध में प्रो० डीवी ने लिखा है कि परम्परागत शिक्षा का लक्ष्य दूरस्थ भविष्य की तैयारी होता है परन्तु यह अपूर्ण है। इसलिए पुराना सत्य, मूल्य, विश्वास है ग्रहण करना आज उपयुक्त नहीं है। वर्तमान जीवन को सामने रखकर शिक्षा का उद्देश्य भी निश्चित किया जाना चाहिए। वर्तमान जीवन का रूप क्या होगा, यह अनिश्चित है, इसलिए .. शिक्षा का उद्देश्य भी अनिश्चित होगा या पूर्वनिश्चित करना उपयुक्त न होगा। जो परिस्थिति घटती है, उसी के अनुकूल शिक्षा का उद्देश्य प्रयोजनवादी रखने के पक्ष में हैं। फिर भी जो मान्यताएँ हैं उनके अनुसार सामान्यतः नीचे लिखे शिक्षा के उद्देश्य इस विचारधारा के लोगों के द्वारा बताये गये हैं-
(1) नये मूल्य और आदर्श के निर्माण का उद्देश्य – प्रो० जॉन डीवी जैसे प्रयोजनवादियों के द्वारा का विचार है कि शिक्षा के उद्देश्य एक सुझाव मात्र होते हैं। इस आधार पर कोई निश्चित उद्देश्य न होते हुए भी प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्य नये मूल्य और आदर्श का निर्माण करना है।
(2) गतिशील और साधन-सम्पन्न मस्तिष्क के विकास का उद्देश्य- मूल्यों और आदर्शों के लिए ऐसे मस्तिष्क की आवश्यकता पड़ती है जो गतिशील (Dynamic) हो अर्थात् समाज में दौड़-धूप तथा क्रिया करने वाला हो तथा साधनों से भरपूर हो। इसके कारण मनुष्य अपनी विभिन्न समस्याओं का समाधान करने में शीघ्र सफल होता है, निर्णय लेने में समर्थ होता है और समाज को कुछ मूल्यवान चीजें देता है। अतः स्पष्ट है कि मनुष्य की शिक्षा का उद्देश्य एक गतिशील और साधन सम्पन्न मस्तिष्क का विकास करना होता है।
(3) सामाजिक कार्य- कुशलता प्राप्ति का उद्देश्य-मनुष्य में शिक्षा के द्वारा जब एक गतिशील, क्रियात्मक एवं निर्माणकर्त्ता मन का विकास होगा तो उससे उसे सामाजिक कार्यों को पूरा करने की योग्यता और कुशलता प्राप्ति होगी। इसलिए निश्चित है कि शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्य को समाज में रहकर अपने उत्तरदायित्वों एवं कार्यों को पूरा करने की कुशलता एवं क्षमता प्रदान करना है।
(4) जीवन में उचित निर्देशन देने का उद्देश्य प्रो० बोड ने लिखा है कि “आज की अमेरिकी शिक्षा में मुख्य दोष है एक कार्यक्रम या निर्देशन की भावना का अभाव ।” इससे स्पष्ट है कि इस दोष को दूर करने के लिये मनुष्यों को शिक्षाकाल में ही व्यवस्थित रूप से कार्य करने का निर्देशन दिया जावे। ऐसी दशा में शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्यों को उचित निर्देशन देना भी होता है जिससे कि सभी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि ठीक तरह से की जावे।
(5) समुचित विकास का उद्देश्य- प्रयोगवादियों ने आदर्शवादियों एवं प्रकृतिवादियों के समान ही यह उद्देश्य स्वीकार किया है। शिक्षा से जीवन में विकास स्वाभाविक रूप से होता है परन्तु शिक्षा के द्वारा यह देखना पड़ता है कि विकास ठीक से होवे। यह विकास शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक और सामाजिक रूप में होता है, इससे मानवीय व्यक्तित्व का सम्पूर्णतः उद्घाटन होता है और व्यक्ति अपने समाज में क्रियाशील, गतिशील और उत्पादनशील बनता है। प्रयोजनवादी शिक्षाशास्त्री सामाजिक विकास पर अधिक बल देते हैं क्योंकि इससे समाज की व्यवस्था अच्छी तरह होती है और संसार के वातावरण में मनुष्य अपने आपको अच्छी तरह समायोजित कर पाता है। ऐसा विचार प्रो० बटलर का है।
(6) सुखी लोकतन्त्रीय जीवन की प्राप्ति का उद्देश्य- शिक्षा राजनैतिक विकास का भी उद्देश्य रखती है। ऐसी स्थिति में मानव के सुख शान्ति को ध्यान में रखकर लोकतन्त्रीय जीवन को प्राप्त करने का प्रयत्न किया करता है और शिक्षा का उद्देश्य यह भी है जिसका समर्थन हमें किलपैट्रिक के विचारों में मिलता है। दूसरे शब्दों में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को सुखवादी, सामाजिक और लोकतन्त्रीय जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाना होता है।
(7) समायोजन की क्षमता प्रदान करने का उद्देश्य – प्रयोजनवादी लोग कहते हैं कि शिक्षा मानवप्राणी को अपनी वर्तमान परिस्थिति के साथ अच्छी तरह समायोजन की क्षमता प्रदान करे। इससे वह स्वयं लाभ उठावे और समाज को लाभ हो। इस कार्य के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य के आवेगों, रुचियों, योग्यताओं को पर्यावरण के अनुकूल विकसित करना हो, मार्ग दिखाना हो ।
प्रयोजनवाद के पाश्चात्य समर्थक एवं प्रतिनिधि डीवी ने शिक्षा के उद्देश्य इस प्रकार रखे हैं – जीवन के अनुभवों का लगातार पुनर्निर्माण करना, पर्यावरण के साथ समायोजन करना, गत्यात्मक और अनुकूलन करने वाले मन का विकास करना, आत्मानुभूति करने के योग्य बनाना, सामाजिक कुशलता प्रदान करना क्रिया और विचार में सन्तुलन तथा ज्ञान का उपयोग करने की क्षमता देना। ये उद्देश्य र के उद्देश्यों से मिलते-जुलते हैं। भारतीय प्रतिनिधि के रूप में गांधी जी ने शिक्षा के जो उद्देश्य बताये हैं उनमें से हम कुछ उद्देश्यों को प्रयोजनवादी कह सकते है-धनोपार्जन का उद्देश्य, स्वतन्त्र विकास एवं मुक्ति का उद्देश्य, पूर्ण विकास का उद्देश्य, दासता से मुक्ति तथा सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य ये उद्देश्य समाज एवं उसके जीवन के परिप्रेक्ष्य में लिए जा सकते हैं। प्रो० डीवी का प्रभाव गांधी जी पर पड़ा था परन्तु उसे उन्होंने भारतीय जीवन एवं संस्कृति के साथ नये ढंग से जोड़ा है। अतएव हमें उनके उद्देश्य पूर्णतया प्रयोजनवादी नहीं दिखाई पड़ते।
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम एवं सिद्धान्त के (Curriculum and Theories of Education According to Pragmatism)
शिक्षा के पाठ्यक्रम (Curriculum) के बारे में प्रयोजनवाद का विचार यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकता एवं माँग के अनुकूल रखा जाये, तभी वह शिक्षा के उद्देश्यों के साथ काम कर सकता है। प्रयोजनवादियों ने पाठ्यक्रम रचना के नीचे लिखे सिद्धान्तों पर जोर दिया है-
(1) क्रियाशीलता और अनुभव के आधार का सिद्धान्त- पाठ्यक्रम का आधार क्रियाशीलता हो अर्थात् जो कुछ भी सीखा सिखाया जाये, वह क्रियात्मक ढंग से हो। उसके साथ विषयवस्तु मनुष्य जीवन के विविध अनुभवों से सम्बन्धित हो अन्यथा जीवन से असम्बन्धित वस्तु को ग्रहण करने से कोई लाभ नहीं होगा। उदाहरण के लिए, भाषा भी सीखी जाये तो क्रिया के साथ-साथ हो, केवल शब्द-जाल न हो ।
(2) विविधता का सिद्धान्त- पाठ्यक्रम में जो भी विषयवस्तु हो वह विभिन्न परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। ऐसी दशा में पाठ्यवस्तु सभी लोगों की योग्यता और आवश्यकता को ध्यान में रखकर बनाई जावे। अतः वहाँ विविधता का होना स्वाभाविक है।
(3) रुचि का सिद्धान्त – पाठ्यक्रम में जो भी विषय एवं क्रिया रखी जाये वह पढ़ने वालों की रुचि के अनुकूल हो। यह तभी सम्भव होता है जबकि पाठ्यक्रम विभिन्न सामग्रियों से परिपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, कोई लड़का शारीरिक शिक्षा की ओर रुचि रखता है तो कोई शिल्प की ओर और तीसरा बुद्धि सम्बन्धी क्रियाओं की ओर। अतः इन तीनों की रुचि के अनुरूप उन्हें पाठ्यक्रम के विषय एवं क्रिया मिलनी चाहिए।
(4) उपयोगिता का सिद्धान्त – प्रयोजनवादियों का मत है कि शिक्षा यदि जीवन में उपयोगी न होगी तो उसे ग्रहण करना बेकार है। आज ऐसी स्थिति हमारे देश में है। लड़के-लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त करके बेकार हैं, बेरोजगार हैं, अतएव शिक्षा के पाठ्यक्रम में ऐसे विषय रखे जावें जिनको पढ़कर, ज्ञान प्राप्त कर कोई भी मनुष्य बेरोजगार न रहे, अन्यथा वह समाज पर एक बोझ बनता है। उपयोगिता एवं व्यावहारिकता दोनों गुण पाठ्यक्रम में होना प्रयोजनवादियों के अनुसार जरूरी हैं। व्यावहारिकता होने से अपने ज्ञान को समयानुकूल प्रयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, गणित का व्यवहार दैनिक जीवन के आदान-प्रदान में करते हैं।
(5) एकीकरण का सिद्धान्त – इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक विषय को अलग-अलग न करके एक साथ सम्बन्धित कर दिया जावे और तब ज्ञान दिया जावे। उदाहरण के लिए, गणित, विज्ञान, भाषा, भूगोल सबको एक ही सन्दर्भ में पढ़ाया जावे। ऐसा करने से ज्ञान की एकता नष्ट नहीं होती है। इसीलिए कुछ विद्वान ‘सहसम्बन्ध’ का भी सिद्धान्त इसके साथ रखते हैं। इससे सभी विषय परस्पर जुड़े रहते हैं और पढ़ने वालों को सम्पूर्ण ज्ञान होता है, छुट-पुट नहीं।
(6) समाजीकरण का सिद्धान्त – प्रयोजनवादी सामाजिक विकास पर अधिक बल देते हैं। ऐसी दशा में वे पाठ्यक्रम को समाजीकरण के सिद्धान्त (Principle of Socialization) के अनुसार रखने को कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जो भी अनुभव एवं ज्ञान दिया जावे वह समाज के हित को ध्यान में रखकर दिया जावे। इस आधार पर अमेरिका में अमेरिकी इतिहास का अध्ययन कराया जाता है और अमेरिकी भाषा, अमेरिकी साहित्य, विज्ञान एवं कला को पाठ्यक्रम में रखा गया है। रूस में पाठ्यक्रम साम्यवादी सिद्धान्तों का प्रचार भी करता है, जिससे वहाँ के लोगों में साम्यवादी समाज की संरचना का ध्यान अधिक रहता है। भारत में सामाजिक विषय (Social Studies) को पाठ्यक्रम में शामिल करना इसी सिद्धान्त को बताता है।
उससे हम समाज संक्षेप में हम कह सकते हैं कि प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम बाल केन्द्रित है, बालकों की आवश्यकता और रुचि का ध्यान रखता है और जीवन में उपयोगी होता को कुशल एवं क्रियाशील सदस्य बना सकते हैं। वह व्यापक एवं विविध होता है जो बालक को जीवन में आगे बढ़ने में सहायता देता है। ऐसा कथन प्रो० किलपैट्रिक का है।
प्रयोजनवाद के अनुसार शिक्षण विधि (Teaching Method According to Pragmatism)
प्रयोजनवादी शिक्षाशास्त्री स्वानुभव और क्रियाशीलता पर अधिक बल देते हैं। इस दृष्टि से उन्होंने शिक्षाविधि को भी अनुभव एवं क्रिया से पूर्ण होना बताया है। इस नियम के अनुसार हमें शिक्षा की निम्नलिखित विधियों का समर्थन प्रयोजनवाद में मिलता है-
(1) करके सीखने की विधि- शब्दों की अपेक्षा क्रिया के द्वारा बालकों को शिक्षा दी जाय, ऐसा प्रकृतिवादी और प्रयोजनवादी दोनों जोर देते हैं। इस प्रकार से शिक्षा लेने में बालक को अपने आप अनुभव करने का अधिकतम अवसर मिलता है। इससे वह शीघ्र सीखता भी है।
(2) खेल द्वारा सीखने की विधि- छोटे बालकों को खेल में रुचि होती है अतः उन्हें खेल विधि से शिक्षा देना जरूरी है। यहाँ भी प्रयोजनवादी प्रकृतिवादी के समान विचार रखता है। खेल से शिक्षा देने में शिक्षा सरल एवं मनोरंजक बनती है।
(3) सह-सम्बन्ध की विधि प्रयोजनवादी ज्ञान को एक इकाई मानते हैं और अलग-अलग विषयों का ज्ञान न देकर वे सभी विषयों को एक साथ जोड़कर शिक्षा देने के पक्ष में हैं। यह विधि सह-सम्बन्ध तथा एकीकरण कहलाती है।
( 4 ) योजना विधि- प्रो० किलपैट्रिक तथा प्रो० डीवी इस योजना (प्रोजेक्ट) विधि के बड़े ही समर्थक और जन्मदाता भी थे। इसमें जीवन की वास्तविक समस्याओं को उपस्थित करके शिक्षार्थी द्वारा स्वयं उसे हल कराने का प्रयास होता है। यह अत्यन्त उपयोगी, व्यावहारिक तथा उपयुक्त विधि मानी जाती है, यद्यपि इसका प्रयोग केवल अमेरिका तक ही सीमित रह गया।
(5) प्रयोजनपूर्ण एवं सोद्देश्य सीखने की विधि- इसमें शिक्षार्थी को बता दिया जाता है कि वह शिक्षा क्यों ले रहा है और उसे शिक्षा क्यों दी जा रही है। अतः शिक्षा का प्रयोजन और उद्देश्य बताकर ज्ञान देने से शिक्षार्थी की रुचि और उसका ध्यान शिक्षा की ओर रहता है, उसे अधिक सफलता मिलती है।
(6) बाल-केन्द्रित विधि – इसके अनुसार बालक रुचि, योग्यता, क्षमता, आवश्यकता के अनुकूल शिक्षा दी जाती है। शिक्षक यह जानकर कि बालक में क्या गुण-अवगुण हैं, वह उसी के अनुसार शिक्षा प्रदान करता है। इससे शिक्षक को अधिक सफलता मिलती है। तेज, मन्द, सामान्य बुद्धि को अपने अनुसार शिक्षा लेने का अवसर मिलता है और उनकी प्रगति भी तदनुसार होती है।
(7) प्रयोग विधि- प्रयोजनवादी वैज्ञानिक प्रयोग के पक्ष में अधिक पाये जाते हैं। अतएव इनके अनुसार शिक्षा देने के लिये प्रयोग विधि उत्तम होती है। प्रयोग एक सीमित ढंग से सीमित वातावरण में स्वयं वस्तुओं की सहायता से काम करने का तरीका होता है।
प्रो० जॉन डीवी के द्वारा प्रयुक्त शिक्षण विधियाँ भी इसी प्रकार से हैं। एक पाश्चात्य प्रतिनिधि के रूप में हमें उनके विचारों को जान लेना चाहिये। इन्होंने क्रियाविधि, स्वानुभव विधि, रुचिपूर्ण विधि, खेलविधि, निरीक्षण विधि, तर्कविधि, सह-संबंध विधि, प्रयोग विधि, योजना विधि के लिये कहा है लेकिन सबसे अधिक महत्त्व योजना विधि को दिया है जिसमें उपयुक्त अन्य विधियाँ सम्मिलित हो जाती हैं। गांधीजी ने शिक्षा की कुछ विधियों के ऊपर जोर दिया है-क्रियाविधि, प्रयोग, प्रदर्शन, निरीक्षण विधि, सहसम्बन्ध की विधि। इन विचारों से हमें पाश्चात्य एवं भारतीय प्रतिनिधियों के द्वारा बताई गई विधियों का भी ज्ञान मिलता है। अतएव दोनों शिक्षा-दार्शनिकों में पर्याप्त मेल दिखाई देता है।
आधुनिक शिक्षा पर प्रयोजनवाद का प्रभाव (Impact of Pragmatism on Modern Education )
प्रयोजनवाद का आधुनिक शिक्षा पर अत्यन्त व्यापक प्रभाव पड़ा है। अमेरिका में तो लगभग सम्पूर्ण शिक्षा इसी दिशा की ओर है। पीयर्स, जेम्स और डीवी अमेरिका के रहने वाले थे और इनके विचारों का अमेरिका में अत्यधिक प्रचार हुआ। अमेरिका एक अत्यन्त प्रगतिशील देश है और वहाँ की परिस्थितियों ने ही इस विचारधारा को जन्म दिया। एक सामान्य अमेरिकी नागरिक आध्यात्मिकता को अधिक महत्त्व नहीं देता वह भौतिकवाद की ओर अधिक मुड़ा रहता है। इससे यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि प्रयोजनवाद का प्रभाव केवल अमेरिका तक ही सीमित है। आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में जो भी नवीन प्रवृत्तियाँ दिखलाई पड़ रही हैं उन पर प्रयोजनवादी दर्शन का प्रभाव दिखलाई पड़ता है।
आधुनिक युग में साधारण शिक्षक, अभिभावक अथवा छात्र शिक्षा के उच्चतम लक्ष्यों के झंझट में नहीं पड़ते। प्रत्येक सामान्य नागरिक का जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि उसे आत्मानुभूति, सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् की प्राप्ति जैसे शैक्षिक उद्देश्यों पर विचार करने का समय ही नहीं है। आज शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति तात्कालिक उद्देश्यों को अधिक महत्त्व प्रदान कर रहे हैं।
आधुनिक शिक्षा में सामाजिकता की प्रवृत्ति बढ़ रही है। आधुनिक मान्यता यह है कि वह शिक्षा, जो व्यक्ति समाज में अच्छी तरह रहने लायक नहीं बनाती, उसे अच्छी शिक्षा नहीं कहा जा सकता। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर लेना आवश्यक है कि प्रयोजनवादी शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक दक्षता ही है।
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