भारतीय दार्शनिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं ? उसकी मूलभूत विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
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भारतीय दार्शनिक व्यवस्था (Indian Philosophical System)
भारतीय दर्शन की उत्पत्ति ‘दृश्’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है देखना दर्शवशान्त में तत्त्व के रूप का अवलोकन दर्शन है जिसका भारतीय परम्परा में बहुत व्यापक अर्थ में प्रयोग किया जाता है। भारतीय दर्शन के प्रणेताओं ने संकुचित जीवन-दर्शन का सदैव निषेध किया है तथा अतिविस्तृत मानवीय दर्शन के सृजन पर बल दिया है।
पूर्वी (भारतीय) दर्शनों का विकास मनुष्य को तीनों प्रकार के दुःखों आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक से छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से हुआ है।
भारत में आज भी दर्शन को इस ब्रह्माण्ड के अन्तिम सत्य के खोजकर्ता और उसमें मानव जीवन के वास्तविक स्वरूप के व्याख्याकार के रूप में स्वीकार किया जाता है, परन्तु जब हम दर्शन को उसके समग्र रूप में देखते हैं तथा इसकी तुलना देश-विदेश के दर्शनों से करते हैं तो भारतीय दर्शन व पाश्चात्य दर्शन में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता। उदाहरणस्वरूप यदि वेद पर आधारित दर्शन मनुष्य को तीनों प्रकार के दुःखों से छुटकारा दिलाने वाले मार्ग की ओर तैयार रहते हैं, तो चार्वाक एवं आजीवक दर्शन मनुष्य को भौतिकतावाद व सुख प्राप्ति के मार्ग की ओर प्रवृत्त करते हैं। यदि हम अनुभूति एवं तकें के आधार पर भारतीय पूर्वी से पाश्चात्य दर्शन की तुलना की बात करें तो भी हम देखते हैं कि सभी भारतीय (पूर्वी) एवं पाश्चात्य दर्शनों के प्रतिपादकों के अपने-अपने अनुभव तथा अनुभूतियाँ हैं और सभी ने अपने-अपने मत को पुष्ट करने के लिए तर्क का आश्रय लिया है।
भारतीय दार्शनिक व्यवस्था की मूलभूत विशेषताएँ (Basic Characteristies of Indian Philosophical System)
भारतीय समाज में दार्शनिक चिन्तन-मनन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। भारतीय दर्शन केवल सैद्धान्तिक एवं बौद्धिक ही नहीं है, वह अनुभूत्यात्मक एवं व्यावहारिक भी है। भारतीय दर्शन की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) भारतीय दर्शन समस्त जगत् को सर्वमान्य एकता में बाँधता है और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की कल्पना को साकार करता है।
(2) भारतीय दर्शन में सहिष्णुता की भावना, सत्य एवं अहिंसा पर बल दिया गया है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता ने अनेक सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के विचारों एवं परम्पराओं को अपनाया है।
(3) भारतीय दर्शन में चार पुरुषार्थ माने गये हैं। ये हैं- (i) धर्म, (ii) अर्थ, (iii) काम, (iv) मोक्ष। इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष को सर्वोत्कृष्ट माना गया है। शंकराचार्य के अनुसार मुक्ति ज्ञान द्वारा सम्भव है। जब ज्ञान उत्पन्न हो जायेगा तो मुक्ति हो जायेगी। उन्होंने ब्रह्म की अनुभूति को मोक्ष माना है। मुक्ति की कल्पना में मनुष्य की पूर्णता का विकास निहित है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य में हमेशा से विद्यमान पूर्णता का विकास होता है।
(4) भारत में दर्शन को कोरी कल्पना न समझकर उसे व्यावहारिक बनाने का प्रयत्न किया गया है और सत्य का साक्षात् दर्शन करने का प्रयास किया गया है। आध्यात्मिकता भारतीय दर्शन का प्राण है, तो धर्म अथवा आचरण शुद्धि इसका व्यावहारिक स्वरूप है।
(5) भारतीय दर्शन मूलतः आध्यात्मिक है। यह आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारता है और संसार को एक परम शक्ति द्वारा निर्मित मानता है। इसका उद्देश्य व्यक्ति के बौद्धिक एवं भावनात्मक चिन्तन को क्षुद्र तृष्णाओं से मुक्त कराकर परमानन्द की प्राप्ति कराना है। इसका लक्ष्य मुक्ति है।
(6) भारतीय दर्शन पश्चिमी सभ्यता के आदर्शवादी दर्शन से मिलता है। यथार्थवादी दर्शन के तत्त्व भी हमें भारतीय दर्शन में देखने को मिलते हैं। गीता का दर्शन आदर्शवादी तथा यथार्थवादी दोनों ही है। मोह को त्यागकर ही मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है।
(7) भारतीय दर्शन कर्म को महत्त्व देता है। मनुष्य अपने द्वारा किये गये कर्मों के आधार पर ही सुख-दुःख का अनुभव करता है। अच्छे कर्मों के आधार पर व्यक्ति उस परमब्रह्म को प्राप्त करने का मार्ग ढूँढ़ लेता है व मोक्ष को प्राप्त करता है। गीता में कर्म की प्रधानता को महत्त्व दिया गया है। कर्म के आधार पर ही व्यक्ति सुख व दुःख भोगता है। बरे कर्मों का फल व्यक्ति को अवश्य ही मिलता है। इस जन्म में भी व्यक्ति अपने कर्मों का फल भोगता हैं व अपने अगले जन्म के भाग्य का निर्माण भी कर्म के आधार पर कर लेता है। व्यक्ति जो करता है वह कर्म है, किन्तु कर्म वही है जो सामाजिक, नैतिक व मानवीय दृष्टिकोण से करणीय हो, उपयोगी हो; अन्यथा अकर्म है।
भारतीय दर्शन एवं पाश्चात्य दर्शन में भिन्नता (Difference between Indian Philosophy and Western Philosophy)
भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन में निम्न अन्तर हैं-
(1) पूर्वी (भारतीय) एवं पश्चिमी दर्शन के सम्प्रदाय के उत्पत्ति के विषय में अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि भारतीय दर्शन की उत्पत्ति ‘दृश्’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है देखना दर्शवशान्त में तत्त्व के रूप का अवलोकन दर्शन है जिसका भारतीय परम्परा में बहुत व्यापक अर्थ में प्रयोग किया जाता है। भारतीय दर्शन के प्रणेताओं ने संकुचित जीवन-दर्शन का सदैव निषेध किया है तथा अतिविस्तृत मानवीय दर्शन के सृजन पर बल दिया है।
‘पाश्चात्य दर्शन’ (Westen Philosophy) की उत्पत्ति Philosophy शब्द से हुई है। यह ग्रीक भाषा का शब्द है। ग्रीक में Philo तथा Sophia का शाब्दिक अर्थ होता है ‘ज्ञान के प्रति अनुराग।’ इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन का अर्थ ज्ञान के प्रति अनुराग है। पाश्चात्य दृष्टिकोण के अनुसार ‘दर्शन’ केवल शुद्ध बौद्धिक विषय है और यह ज्ञान की खोज मात्र है। जीवन से इसका कोई सम्बन्ध नहीं । यदि ज्ञान केवल ज्ञान के लिए हो अथवा केवल बौद्धिक विकास के लिए हो तो उसका मानव समाज जीवन के लिए कोई उपयोग नहीं हो सकता है। इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन बौद्धिक अधिक है जीवन को स्पर्श करने वाले तत्त्व उसमें कम हैं जबकि भारतीय (पूर्वी) दर्शन जीवन व जगत् को स्पर्श करता है। पूर्वी दर्शन ज्ञान के वे केन्द्र हैं जहाँ से जीवन पथ आलोकित होता है। विद्या को मोक्ष का माधव माना गया है। यथार्थ विद्या जन्म-मरण के बन्धनों से छुटकारा दिलाती है।
(2) पाश्चात्य दर्शन ऊर्ध्वाधर विकास का अनुसरण करता है जिसे प्लेटो, सुकरात व अरस्तू की शिक्षाओं से लेकर कोट की शिक्षाओं तक समझा जा सकता है।
पूर्वी दर्शन समानान्तर क्षैतिजीय विकास का अनुसरण करता है। इस दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों का एक-दूसरे से स्वतन्त्र विकास हुआ है स्वयं में पूर्ण है। उदारीकृति बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, सांख्य दर्शन व योग दर्शन अपने-अपने विचारों के आधार पर विकसित हुए हैं और एक-दूसरे से अलग भी हैं।
(3) भारतीय दर्शन में हमें आत्मा का दर्शन प्राप्त हुआ जबकि पाश्चात्य दर्शन में मानववाद सामान्यतः पाया जाता है। पाश्चात्य दर्शन तर्क पर आधारित है तथा भारतीय दर्शन भी तत्त्व मीमांसा को तर्क के आधार पर ही देखता है।
(4) पाश्चात्य दर्शन में मूल्य मीमांसा या तत्त्व मीमांसा के पहलुओं के प्रति बौद्धिक उत्सुकता दिखायी देती है। इसके विपरीत पूर्वी दर्शन का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति की स्वतन्त्रता, पर ध्यान देना व उसके कष्टों की मुक्ति हेतु निर्वाण प्रदान करना है। चार्वाक के अतिरिक्त सभी पूर्वी दार्शनिक सम्प्रदाय स्वतन्त्रता पर विशेष बल देते हैं और पूर्वी दर्शन के समर्थक स्वतन्त्रता को अपने तरीके से प्राप्त करना चाहते हैं, फिर चाहे वे बुद्ध हों, महावीर हों या शंकराचार्य हों, परन्तु इसके विपरीत किसी भी पाश्चात्य दार्शनिक ने स्वतन्त्रता प्राप्त करने का दावा नहीं किया है।
(5) पाश्चात्य दर्शन का उद्भव ‘स्वयं’ को जानो (Know thy self) से हुआ है। इस तथ्य का उल्लेख हमें अपोलो के मन्दिर में लिखे गये लेख में प्राप्त होता है। सुकरात ने भी प्राचीन यूनान के प्रमुखतः इसका आभास किया तथा उसके दर्शन में भी स्वयं की देखभाल के रूप में स्वयं व संसार के अस्तित्व के परीक्षण के रूप में मिलता है। अठारहवीं शताब्दी में दर्शन के स्वरूप में भी परिवर्तन आया और यह प्रयोगात्मक, व्यक्तिगत व हस्तान्तरण के प्रयोग से मुक्त हुआ अब पाश्चात्य दर्शन का उद्देश्य केवल वैज्ञानिक सत्यता के प्रमाण खोजना एवं मनुष्य के द्वारा इसे जानने की योग्यता की सीमाओं को तलाशता है।
(6) पूर्वी व पाश्चात्य दर्शनों के दृष्टिकोण में भी अन्तर है। भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण अध्यात्मवादी है। यह जीवन व विश्व की विस्मता को समझ लेने के बाद निराशावादी हो जाता है, परन्तु जीवन की वास्तविकता को समझने वाले महात्मा, ऋषि, मनीषी, दार्शनिक आदि इनमें विरक्त हो जाये तो इसमें कोई निराशावाद नहीं है। भारतीय दृष्टिकोण अधिकांशतः भौतिकवादी भी है लेकिन भौतिकता जीवन को समृद्ध तथा सम्पन्न बना सकती है पर वास्तविक सुख, शान्ति तथा सन्तोष का दर्शन नहीं करा सकते। जब किसी इसके विपरीत पश्चिम में क्रान्ति तथा संघर्षों की जड़ है अतः उनका दृष्टिकोण घोर भौतिकवादी रहा है।
आधुनिक भारतीय शिक्षा में सार्थकता (Relevence in Modern Indian Education)
प्राचीन भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ धर्म पर आधारित हैं। समस्त आचरण को नियमित करने वाली संहिता धर्म के नाम से जानी गयी। प्राचीन काल में शिक्षा जीवन की समस्त प्रक्रियाओं का प्रशिक्षण थी। इस जीवन के परे पारलौकिक विचारधारा का शिक्षा पर पूरा प्रभाव था। प्राचीन काल की शिक्षा प्रणाली का प्रभाव आधुनिक शिक्षा पर भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है-
(1) भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषता है- छात्रों का चरित्र-निर्माण। भारत में जितने भी दार्शनिक व शिक्षाशास्त्री हुए हैं, सभी ने शिक्षा में चरित्र निर्माण को महत्त्वपूर्ण बताया प्राचीन काल में छात्र सदाचारपूर्ण जीवन बिताकर विद्या ग्रहण करते थे। गुरुकुल में रहकर वे गुरु को अपना आदर्श मानते हुए उनके चरित्र से प्रेरणा लेते थे। इस प्रकार भारतीय शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार की हो कि जिससे छात्रों में आत्मबल, संयम, शिष्टाचार व नैतिकता के गुणों का विकास हो सके।
(2) प्राचीन भारतीय शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य- स्वतन्त्र चिन्तन द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति और आत्मज्ञान था। जीवन का उद्देश्य समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पालन करते हुए मोक्ष प्राप्ति था। भारतीय ऋषियों ने तीन प्रकार के ऋण की बात सोची है- पितृ ऋण, गुरु ऋण तथा देव ऋण | गुरु ज्ञान देता है, यह उसका ऋण है। गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को बढ़ाकर उसका प्रसार करके व्यक्ति इस ऋण से मुक्त हो जाता है। आज इन आदर्शों का लोप होता जा रहा है। समाज में गुरु को वह सम्मान प्राप्त नहीं है जो प्राचीन समय में था। वर्तमान शिक्षा प्राणाली में गुरु का स्थान अन्य पद्धतियों के कारण लुप्त-सा होता जा रहा है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि प्राचीन शिक्षा व्यवस्था व आधुनिक शिक्षा पद्धतियों में समन्वय स्थापित करके हम उचित शैक्षिक आवरण का निर्माण करें।
(3) भारतीय दर्शन आशावादी है। यह बालकों की सोच को सकारात्मक बनाने पर बल देता है। भारतीय दर्शन व्यक्ति में प्रबल इच्छा शक्ति, वृहद् विश्वास की प्रेरणा प्रदान करता है। सकारात्मक सोच द्वारा व्यक्ति अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर कर लक्ष्य को प्राप्त करने का सफल प्रयास करता है। भारतीय शिक्षा इस प्रकार के पाठ्यक्रम निर्माण पर बल देती है, जो बालकों को जीवन की चुनौतियों व संघर्षों से लड़ने की शक्ति प्रदान करे। भारतीय दर्शन व्यक्ति को भगवान पर विश्वास करना सिखाता है।
(4) भारतीय शिक्षा में छात्रों के मानसिक विकास के साथ-साथ सामाजिक कुशलता के विकास पर भी बल दिया जाता है। प्राचीन काल में छात्र गुरु के आश्रम में ही श्रम की महत्ता को सीख लेते थे। छात्र गुरुकुल में गायों को चराना व खेतों में अन्न को उपजाना जैसे कार्यों को करके पशुपालन व कृषि विद्या में निपुणता प्राप्त कर लेते थे। गांधीजी भी बुनियादी शिक्षा द्वारा बालकों को स्वावलम्बी बनाने पर बल देते थे।
(5) भारतीय शिक्षा की अन्य विशेषता है धार्मिक व सांस्कृतिक स्वतन्त्रता। सभी धर्मों के गुणों का अपने में समावेश कर लेने के कारण ही भारतीय शिक्षा को उच्च स्थान प्राप्त है। वैदिक धर्म में सुधार लाने के लिए भगवान बुद्ध ने जो धर्म चलाया, उसे भी भारतीय दर्शन में सम्मानपूर्वक स्थान दिया गया। अन्य धर्मों एवं संस्कृतियों को भारतीय संस्कृति ने अपने में सम्मिलित कर लिया। मुस्लिमों के पीर-पैगम्बरों की पूजा को भी भारतीय संस्कृति में उच्च स्थान प्राप्त है। इस प्रकार भारतीय दर्शन व संस्कृति अपने आप में सभी धर्मों की श्रेष्ठ बातों व शिक्षाओं को समेटे हुए है।
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