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भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक व्यवस्था के लक्षण
भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक व्यवस्था के लक्षण- भारतीय संविधान एक संघीय संविधान है, क्योंकि वह दोहरे शासन तन्त्र (dual polity) की स्थापना करता है। केन्द्र में एक राष्ट्रीय सरकार है और उसके चारों ओर राज्य सरकारें हैं, जिनसे संघ का निर्माण हुआ है। भारतीय संघ में इस समय केन्द्रीय सरकार के अलावा 28 राज्य और 7 संघ शासित क्षेत्र शामिल हैं। राज्य ये हैं—आन्ध्र प्रदेश, असम, अरुणाचल प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, उत्तराँचल, कर्नाटक, केरल, गुजरात, गोआ, जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु, त्रिपुरा, नागालैण्ड, पंजाब, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, मणिपुर, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मिजोरम, मेघालय, राजस्थान, सिक्किम, हरियाणा, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश। संघ शासित क्षेत्र हैं—अण्डमान और निकोबार, दमन और दीव, चण्डीगढ़, दादरा और नागर हवेली, पाण्डिचेरी और लक्षद्वीप तथा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली। संविधान में भारत को राज्यों का संघ (Union of States) कहा गया है। भारतीय संघ की विशेषताओं का अध्ययन करने पर पता लगता है कि हमारे देश में राज्यों की अपेक्षा केन्द्रीय सरकार बहुत अधिक शक्तिशाली है। इतना ही नहीं, राष्ट्रपति द्वारा संकटकाल की घोषणा किए जाने पर तो संविधान का संघात्मक रूप एकात्मक स्वरूप में बदल जाता है। इन्हीं कारणों से भारत को अर्द्ध संघ (Quasi Federation) के नाम से भी पुकारा गया है। कुछ विद्वानों ने भारतीय संघ को केन्द्रीकृत संघवाद (Centralized Federation) कहा है।
संविधान का स्वरूप संघीय है (The Constitution is Federal in Form)
प्रो. व्हेयर (K. C. Wheare) का कहना है कि संघीय शासन में राज्य की समस्त शक्तियाँ दो सरकारों-केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच बँटी होती हैं। दोनों में से कोई भी सर्वोच्च शक्ति से युक्त नहीं होती और दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र हैं। केन्द्रीय और राज्य सरकारों को संविधान से शक्तियाँ मिली होती हैं और संविधान में संशोधन के बिना उनकी शक्तियों को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता। जहाँ तक केन्द्र और राज्यों के मध्य शक्ति विभाजन का प्रश्न है, उसका स्वरूप प्रत्येक देश की अपनी स्थिति पर निर्भर करता है। फिर भी, वैदेशिक मामले, युद्ध तथा सन्धि, सिक्के और मुद्रा, डाक, तार और रक्षा आदि विषय ऐसे हैं जिन्हें सदैव केन्द्रीय सरकार के अधीन रखा जाता है। इसके विपरीत पुलिस, जेल, न्याय प्रबन्ध, शिक्षा, कृषि और इसी तरह की अन्य शक्तियाँ प्रायः राज्य सरकारों को प्राप्त होती हैं।
निम्नलिखित विशेषताओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में संघीय शासन की स्थापना की गई है
(1) लिखित संविधान (Written Constitution)- संघीय शासन केन्द्र और राज्यों के बीच एक समझौता सा है। इसलिए यह आवश्यक है कि इस समझौते की समस्त शर्तें लेखबद्ध हों जिससे केन्द्र और राज्यों को स्पष्ट रूप से यह ज्ञात हो जाये कि उनके क्या अधिकार हैं तथा उनके क्या कर्त्तव्य हैं। भारतीय संविधान न केवल लिखित है बल्कि संसार के सभी संविधानों से कहीं ज्यादा लम्बा है। संविधान निर्माताओं ने छोटी-छोटी बातों को भी संविधान में शामिल किया है, जिससे केन्द्र और राज्यों के बीच झगड़े की सम्भावना न रहे।
(2) संविधान में सुगमता से परिवर्तन नहीं किया जा सकता है (The Constitution cannot be easily changed)- संघीय संविधान केवल लिखित ही नहीं, बल्कि कठोर भी होता है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में तो संविधान संशोधन की प्रक्रिया बहुत कठोर है। भारत का संविधान इन संविधानों जितना तो कठोर नहीं है क्योंकि संविधान की कई ऐसी धाराएँ हैं जिनमें संसद राज्यों की इच्छा के विरुद्ध भी संशोधन कर सकती है। फिर भी, महत्त्वपूर्ण संशोधनों के लिए संसद की स्वीकृति के साथ-साथ कम से कम आधे राज्यों के विधान मण्डलों की अनुमति भी आवश्यक है।
(3) संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution )- भारत में न तो केन्द्रीय सरकार ही सर्वोच्च है और न राज्य सरकारें। संविधान ही सर्वोच्च है, क्योंकि केन्द्र और राज्य दोनों को संविधान द्वारा ही शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। दोनों सरकारों के वे कानून अवैध माने जाते हैं जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हैं।
(4) द्वैध शासन प्रणाली (Co-existence of two Governments ) – संघ शासन में दो प्रकार की सरकारें होती हैं—एक तो केन्द्रीय अथवा राष्ट्रीय और दूसरे उन राज्यों की सरकारें जिनके मिलने से संघ का निर्माण होता है। भारत में भी नागरिक दोहरे शासन के अन्तर्गत रहते हैं। दो तरह के विधानमण्डल हैं, दो प्रकार के प्रशासन हैं तथा नागरिकों को कम से कम दो तरह के कर देने पड़ते हैं, एक तो वे जो भारत सरकार लगाती है और दूसरे वे जो राज्य सरकारों द्वारा वसूल किए जाते हैं।
(5) शक्तियों का विभाजन (Division of Powers)- संविधान द्वारा केन्द्र और राज्यों दोनों की शक्तियों और कर्त्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या की गई है। विधायी शक्तियों (Legislative powers) को तीन सूचियों में बाँटा गया है-संघ सूची (Union List), राज्य सूची (State List), तथा समवर्ती सूची (Concurrent List)।
संघ सूची में 97 विषय हैं, जैसे-प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, युद्ध और सन्धि, रेलवे, विदेशी व्यापार, बैंक, बीमा कम्पनी, मुद्रा, डाक, तार, टेलीफोन आदि। इन पर संसद ही कानून बना सकती है।
राज्य सूची में 66 विषय हैं, जिनमें महत्त्वपूर्ण ये हैं—पुलिस, जेल, न्याय व्यवस्था, सार्वजनिक स्वास्थ्य, चिकित्सा, स्थानीय सरकारें आदि। इनके सम्बन्ध में राज्यों के विधानमण्डल कानून बनाते हैं।
समवर्ती सूची में 47 विषय हैं, जैसे—शिक्षा, वन, फौजदारी कानून, निवारक नजरबन्दी विवाह, तलाक, ट्रेड यूनियन, श्रम कल्याण, खाद्य पदार्थों में मिलावट आदि। इस सूची में जो विषय हैं उन पर केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों ही कानून बना सकती हैं।
केन्द्र और राज्यों के बीच न केवल विधायी, बल्कि प्रशासनिक (Administrative) और वित्तीय (Financial) शक्तियों का भी बँटवारा किया गया है।
(6) उच्चतम न्यायालय की विशेष स्थिति (Special Position of the Supreme (Court) – संघ शासन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों ही संविधान का आदर करें। किन्तु यदि ऐसा न हो और केन्द्र तथा राज्यों में कोई संघर्ष हो जाये तो उसका निबटारा कैसे हो ? इसके अतिरिक्त यह कौन देखे कि केन्द्र या राज्यों ने ऐसा कोई कानून तो पास नहीं कर दिया जो संविधान की धाराओं के प्रतिकूल है। इसके लिए एक उच्चतम न्यायालय होता है। उच्चतम न्यायालय को संविधान की व्याख्या व उसकी रक्षा करने वाला (Interpreter and Guardian of the Constitution) कहा गया है। संविधान के रक्षक के नाते भारत का उच्चतम न्यायालय केन्द्र और राज्यों के उन कानूनों को गैर कानूनी घोषित कर सकता है, जो संविधान की धाराओं के अनुकूल न हों।
संविधान की आत्मा एकात्मक है (Constitution is Unitary in Spirit)
भारत में संघीय शासन की स्थापना के बाद भी संविधान में कई ऐसी बातें भी हैं जो अन्य संघीय संविधानों से भिन्न हैं। अमेरिका, आस्ट्रेलिया या स्विट्जरलैण्ड की अपेक्षा हमारे देश में केन्द्र को कहीं अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं। इसलिए कुछ विद्वानों ने भारतीय संघ को अर्द्धसंघ (Quasi-Federation) अथवा केन्द्रीकृत संघ शासन (Centralized Federation) के नाम से भी पुकारा है। प्रो. के. सी. ह्वेयर ने तो यहाँ तक कहा है कि “भारत एक ऐसे संघीय राज्य की अपेक्षा जिसमें एकात्मक तत्व गौण हों, एक ऐसा एकात्मक राज्य है जिसमें संघीय तत्व गौण है।” प्रायः यह भी कहा जाता है कि “संविधान का रूप तो संघात्मक है पर उसकी आत्मा एकात्मक है।”
यहाँ हम उन बातों की चर्चा करेंगे जिनके कारण भारत का संविधान एकात्मक सा दिखता है-
(1) संसद की विधायी शक्तियाँ अधिक व्यापक हैं (Parliament has very wide scope of Legislation)—संविधान द्वारा केन्द्र और राज्यों के मध्य विधायी शक्तियों का बँटवारा अवश्य किया गया है, परन्तु निम्नलिखित परिस्थितियों में संसद उन विषयों पर भी कानून निर्मित कर सकती है जो राज्य सूची में दिये गये हैं—
(i) यदि राज्य सभा दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पास कर दे कि राष्ट्रीय हित के लिए यह आवश्यक है कि संसद राज्य सूची में दिये गये किसी विषय पर कानून बनाये।
(ii) यदि दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल संसद को यह अधिकार दे दें कि वह राज्य सूची में शामिल किसी विषय पर कानून बनाये। परन्तु वह कानून केवल उन्हीं राज्यों में लागू होगा, अन्य में नहीं।
(iii) राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल (Emergeney) की घोषणा हो जाने पर। संसद की शक्ति की व्यापकता का दो और तथ्यों से पता चलता है। प्रथम, यदि समवर्ती सूची में सम्मिलित किसी विषय पर संसद भी कानून बनाये और राज्य का विधानमण्डल भी तथा उन दोनों में कोई विरोध हो तो संसद का कानून मान्य होगा। दूसरे अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers) केन्द्र को प्राप्त हैं अर्थात् जिन विषयों का किसी भी सूची में उल्लेख नहीं मिलता, उनके सम्बन्ध में कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है।
(2) संसद किसी भी राज्य का आकार घटा अथवा बढ़ा सकती है (Parliament can increase or diminish the area of any State)—संयुक्त राज्य अमेरिका अथवा आस्ट्रेलिया में केन्द्रीय सरकार राज्यों की इच्छा के विरुद्ध उनकी सीमाओं में हेर-फेर नहीं कर सकती, परन्तु भारतीय संसद नवीन राज्यों का निर्माण कर सकती है और राज्यों के आकार को घटा या बढ़ा सकती है। संसद ने कई बार अपने इन अधिकारों का उपयोग किया है। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड जैसे नये राज्यों की स्थापना की गई है तथा पंजाब को बाँटकर पंजाब और हरियाणा दो अलग राज्यों का निर्माण किया गया है।
(3) राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व (Unequal representation of the States in Rajya Sabha)- अधिकांश संघीय राज्यों में संसद के उच्च सदन का गठन बराबरी के आधार पर किया गया है। उदाहरण के लिए, अमेरिका के उच्च सदन सीनेट में प्रत्येक राज्य को दो प्रतिनिधि भेजने का अधिकार है, चाहे वह राज्य बहुत बड़ा हो अथवा बहुत छोटा। अमेरिका में एक और केलिफोर्निया और न्यूयार्क जैसे राज्य हैं जिनकी जनसंख्या एक करोड़ से अधिक है और दूसरी ओर अलास्का व डेलावेयर जैसे छोटे-छोटे राज्य हैं जिनमें से प्रत्येक की आबादी 5 लाख से भी कम है। इस भारी अन्तर के बावजूद प्रत्येक राज्य को सीनेट के लिए दो सदस्य चुनने का अधिकार दिया गया है। बराबरी का सिद्धान्त इसलिए अपनाया गया है जिससे संसद पर बड़े राज्यों का कब्जा न हो सके। परन्तु भारतीय संसद के उच्च सदन (राज्यसभा) में सभी राज्यों के बराबर संख्या में प्रतिनिधि नहीं होते।
(4) राज्यों के अपने संविधान नहीं हैं (States do not have their separate constitutions) — अमेरिका और स्विटजरलैण्ड में राज्यों के अपने अलग संविधान हैं और उनमें संशोधन करने की शक्ति भी राज्यों के विधान मण्डलों को ही प्राप्त है। परन्तु भारत में केवल एक संविधान है जो केन्द्र और राज्यों दोनों की शक्तियों का उल्लेख करता है। राज्यों को यह अधिकार नहीं कि वे संविधान की उन धाराओं में संशोधन कर सकें जिनका कि उनसे सम्बन्ध है। संशोधन की प्रक्रिया केवल संसद में ही शुरू हो सकती है। हाँ, कुछ धाराओं के संशोधन के लिए केवल संसद की स्वीकृति ही काफी नहीं है, इसके लिए कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों की अनुमति प्राप्त होना भी आवश्यक है। है
(5) दोहरी नागरिकता का अभाव (No Dual Citizenship) – भारतीय संविधान दोहरी नागरिकता के सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं करता है। अमेरिका में हर नागरिक एक ओर तो संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक है और दूसरी ओर अलास्का अथवा हवाई या अन्य किसी राज्य का, जहाँ वह निवास करता हो। केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार दोनों ही उसे अधिकार प्रदान करती हैं और दोनों के नियम एवं कानून उसे मानने पड़ते हैं। परन्तु भारत में सभी देशवासियों के लिए एक ही नागरिकता है। हालांकि हमें नियम और कानून तो दोनों ही सरकारों के मानने पड़ते हैं, परन्तु हम केवल भारत के नागरिक हैं, न कि बिहार अथवा पंजाब के ।
(6) एकात्मक न्याय व्यवस्था (Unified Judiciary)- आस्ट्रेलिया और अमेरिका में दोहरी अदालतें पाई जाती हैं—केन्द्रीय आदलतें और राज्यों की अपनी अलग-अलग अदालतें हैं। केन्द्रीय अदालतें केन्द्र के कानूनों की व्याख्या करती हैं तथा उन अपराधियों को दण्ड देती हैं जिन्होंने केन्द्रीय कानूनों को तोड़ा है, जबकि राज्य अदालतें उन लोगो को दण्ड देती हैं जो राज्यों के कानूनों का उल्लंघन करें। परन्तु भारत मे एकल न्यायपालिका है। सभी न्यायालय सभी प्रकार के कानूनों की व्याख्या करते हैं और सभी उच्चतम न्यायालय की अधीनता में कार्य करते हैं।
(7) अखिल भारतीय सेवाओं पर केन्द्र का नियन्त्रण (Centre’s control over all Indian Services) — अखिल भारतीय सेवाओं जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा (I. A. S.) तथा भारतीय पुलिस सेवा (I. P. S.) पर भार सरकार का नियन्त्रण है। इन सेवाओं से सम्बन्धित अधिकारी राज्यों में अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हैं। इन अधिकारियों के माध्यम से केंद्रीय सरकार राज्य सरकारों पर प्रभावी नियन्त्रण रख सकती है।
(8) राज्यपाल की भूमिका (Role of the Governor)- जहाँ तक राज्यपाल का प्रश्न है, उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। वह राज्य में केन्द्र के एजेण्ट के रूप में कार्य करता है। कुछ महत्त्वपूर्ण विधेयकों को राज्यपाल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख लेता है। राज्यपालों ने अनेक बार केन्द्र को प्रसन्न रखने का प्रयास किया, चाहे इसके लिए उन्हें राज्य मन्त्रिमंडल व विधानमंडल की इच्छाओं के विरुद्ध जाना पड़ा हो।
(9) आर्थिक दृष्टि से राज्य सरकारें केन्द्र पर आश्रित हैं (States are financially dependent upon the Centre)- आर्थिक दृष्टि से भी राज्यों को सदैव केन्द्र का मुँह देखना पड़ता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, कृषि और गाँवों के विकास के लिए अपार धन की आवश्यकता रहती है। योजना आयोग (Planning Commission) व केन्द्रीय सरकार कुछ इस प्रकार की शर्तें लगा सकते हैं जिन्हें पूर्ण किए बिना राज्यों को अनुदान नहीं निलेगा। उदाहरण के लिए, कानपुर मेडिकल कॉलेज की स्थापना के लिए केन्द्र ने तब तक कोई अनुदान नहीं दिया जब तक कि उत्तर प्रदेश सरकार ने यह नहीं मान लिया कि कॉलेज के कमरों की ऊँचाई उतनी हो होगी जितनी केन्द्रीय सरकार ने प्रस्तावित की है। इसी प्रकार सामुदायिक विकास योजनाओं के लिए भी केन्द्रीय अनुदान तब तक नहीं प्राप्त होता जब तक कि राज्य सरकारें केन्द्र के आदेशों के अनुसार चलने का आश्वासन न दें।
(10) आपातकाल में संघात्मक संविधान एकात्मक रूप धारण कर लेता है (In Emergencies the Federal Government may be converted into a Unitary One ) – संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया व स्विट्जरलैंड में केन्द्र को यह शक्ति प्राप्त नहीं कि वह राज्यो की स्वायत्तता (autonomy) अथवा स्वाधीनता को समाप्त कर सकें । परन्तु भारत में आपातकाल की घोषणा किए जाने पर संविधान एकात्मक रूप धारण कर लेता है। संकटकाल में संसद उन विषयों पर भी कानून बना सकती है जो राज्य सूची में सम्मिलित हैं। जब राष्ट्रपति यह घोषणा कर है कि किसी राज्य की सरकार संविधान की धाराओं के अनुसार नहीं चलाई जा सकती तो राज्य का विधानमंडल भंग कर दिया जाता है। उस स्थिति में राष्ट्रपति समस्त शक्तियाँ अपने हाथ में ले लेता है। दूसरे शब्दों में, राज्य का विधानमंडल और कार्यपालिका दोनों ही केन्द्र के नियंत्रण में आ जाते हैं। एक अधिकृत सूचना के अनुसार “जनवरी, 1987 तक विभिन्न राज्यों में 71 बार राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। पंजाब पहला राज्य था जिसमें संविधान लागू होने के दो वर्षों के अन्दर ही राष्ट्रपति शासन लागू करना आवश्यक हो गया था।” अप्रैल, 1977 और फरवरी, 1980 में एक साथ नौ राज्यों की विधान सभाओं को भंग कर दिया गया।
संविधान मूलतया संघात्मक है (Constitution Remain Basically a Federal Constitution)
यह ठीक है कि संविधान के अनेक ऐसे तत्व हैं जो यह दर्शाते हैं कि संविधान की आत्मा एकात्मक है। फिर भी, हम इस विचार से सहमत नहीं हैं कि संविधान संघात्मक है ही नहीं अथवा बुनियादी तौर पर वह एकात्मक संविधान है। यह कहना गलत है कि भारत में राज्यों को केवल प्रतिष्ठित नगरपालिकाओं (Glorified Municipalities) का दर्जा प्राप्त है। निम्नलिखित कारणों से भारत को हम संघीय राज्यों की श्रेणी में रखेंगे
(1) राज्य सरकारें केन्द्र द्वारा निर्मित नहीं की गई हैं (State Governments are not the creations of the Centre)- राज्यों को सभी शक्तियाँ संविधान से प्राप्त हैं न कि केन्द्रीय सरकार से संविधान राज्यों की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है। संविधान में परिवर्तन किए बिना किसी भी राज्य को समाप्त नहीं किया जा सकता।
(2) नागरिक दोहरे शासन के अंतर्गत रहते हैं (Citizens live under two sets of Government)- लॉर्ड ब्राइस के मतानुसार “संघीय शासन की पहचान यह है कि नागरिक दोहरे शासन के अंतर्गत रहें, दो प्रकार के कानूनों का पालन करें एवं दोहरे करों का भुगतान करें।” इस परिभाषा को यदि ध्यान में रखें तो हम कहेंगे कि भारत वास्तव में एक संघ राज्य है। यह ठीक है कि भारत में दोहरी नागरिकता नहीं है, परंतु दोहरी नागरिकता संघ शासन का अनिवार्य लक्षण नहीं है। भारत में राज्यों का अपना स्वतन्त्र कार्यक्षेत्र है और उनकी अलग शक्तियाँ हैं
(3) महत्वपूर्ण संशोधनों के लिए कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति आवश्यक हैं(Important Amendments require to be ratified by the संविधान की सातवीं Legislatures of not less than one half of the States)– अनुसूची केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बँटबारा करती है। इस अनुसूची में तीन सूचियाँ दी गई हैं—संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। समवर्ती अनुसूची में किया गया संशोधन तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक उसे कम से कम आधे राज्यों के विधान मंडलों की स्वीकृति प्राप्त नहीं होती। इसका प्रभिप्राय यह है कि केंद्रीय सरकार शक्तियों के बँटवारे को मनमाने तरीके से नहीं बदल सकती।
(4) आपातकालीन घोषणा संसद के समक्ष रखी जायेगी (Proclamation of Emergency has to be laid before Parliament)—यह ठीक है कि आपात घोषणा का यह प्रभाव होता है कि संविधान का संघात्मक रूप एकात्मक रूप में परिवर्तित हो जाता है। फिर भी, यह ध्यान रखना आवश्यक है कि संसद यदि इस घोषणा का समर्थन नहीं करती तो वह अपने आप समाप्त हो जायेगी। संसद में सभी राज्यों के प्रतिनिधि होते हैं। इसलिए वे अवश्य ही इस बात को देखेंगे कि राज्यों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ न किया जाये।
(5) राज्यों ने अनेक बार केन्द्र की नीतियों का सफलतापूर्वक विरोध किया है (State Governments have successfully resisted the Centre) — राज्य सरकारें जनता के अधिक निकट होती हैं। उनका अपने-अपने प्रदेशों की जनता के साथ सीधा सम्बन्ध होता है। । जनता के सहयोग से कई बार राज्य सरकारों ने केन्द्र की नीतियों का सफलतापूर्वक विरोध किया है। उदाहरण के लिए हिन्दी के प्रश्न पर बंगाल और तमिलनाडू की सरकारें इतनी उत्तेजित हो गयी थीं कि केन्द्रीय सरकार को अपनी नीति में परिवर्तन करना पड़ा। यदि राज्य सरकारें स्थिर हैं और राज्य के मुख्यमंत्री का व्यक्तित्व ऊँचा है तो केन्द्र राज्यों पर जबरदस्ती अपनी नीतियाँ नहीं लाद सकता।
शक्तिशाली केन्द्र का यह अर्थ नहीं कि भारतीय संविधान संघात्मक है ही नहीं। इस देश की अपनी अलग परिस्थितियाँ होती हैं। भारत की परिस्थितियों ने यह आवश्यक बना दिया कि हमारे देश में शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की जाये। इसके अतिरिक्त संघीय व्यवस्था में केन्द्र और राज्य एक दूसरे के विरोधी (adversaries) नहीं होते। दोनों का लक्ष्य जन कल्याण को और बढ़ावा देना है। यदि शिक्षा, कृषि, परिवार नियोजन, रोजगार और जन कल्याण के क्षेत्र में केन्द्र और राज्य सरकारें मिल-जुलकर कार्य करने लगी हैं तो इसमें क्या बुराई है ? वास्तव में केन्द्र और राज्यों के मध्य सहयोग की आवश्यकता है। इसलिए भारतीय संघवाद ने सहकारी संघवाद (Co-operative Federalism) का रूप ग्रहण कर लिया है। समूचे भारत के लिए एक चुनाव आयोग (Election Commission) है। योजना आयोग (Planning Commission) न केवल पंचवर्षीय योजनाओं का निश्चय करता है, बल्कि राज्यों के विकास का भी ध्यान रखता है।
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