भारतीय संविधान की प्रस्तावना से आप क्या समझते हैं ? प्रस्तावना का शिक्षा पर प्रभाव की विवेचना कीजिए।
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भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble of Indian Constitution)
भारतीय संविधान का निर्माण कार्य संविधान निर्मात्री सभा द्वारा 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन में किया गया। भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। संविधान की प्रस्तावना के अन्तर्गत संविधान के मूल उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को स्पष्ट किया गया है।
प्रस्तावना एक वैधानिक प्रलेख के प्राक्कलन के रूप में होता है। विधि के अनुसार प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है परन्तु यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसमें संविधान के आदर्श और दर्शन निहित होते हैं। संविधान की प्रस्तावना संविधान के अनुसार ही है इसलिए भारत संविधान की प्रस्तावना को संविधान सभा ने संविधान के अनुसार ही रखा और संविधान की प्रस्तावना संविधान पारित करने के उपरान्त ही तैयार हुई। प्रस्तावना में भारतीय संविधान के मूल उद्देश्यों और लक्ष्यों को स्पष्ट किया गया है। वास्तव में हम कह सकते हैं कि प्रस्तावना हमारे संविधान का ‘बीजमन्त्र’ अथवा ‘आत्मा’ है।
भारत के गणतन्त्रीय संविधान की प्रस्तावना निम्नवत् है-
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुता सम्पन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के हेतु उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त कराने के लिए उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के हेतु दृढ़ संकल्प होकर अपने इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 जनवरी, 1949 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् 2006 विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
42वें संविधान संशोधन 1976 ई. के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में कुछ और शब्दों और भावों को जोड़ा गया और अब संविधान की प्रस्तावना निम्नलिखित है- “हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुता सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के हेतु उसके समस्त नागरिकों को, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपने इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 जनवरी, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी संवत् 2006 विक्रमी) को एतद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित एवं आत्मार्पित करते हैं।” भारतीय संविधान की प्रस्तावना के कुछ मूल तत्त्वों का उल्लेख इस प्रकार है-
(1) हम भारत के लोग- संविधान की प्रस्तावना में हम भारत के लोग संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं, जिससे स्पष्ट है कि संविधान के द्वारा अन्तिम प्रभुसत्ता भारतीय जनता में निहित है, संविधान निर्माता भारतीय जनता के प्रतिनिधि हैं और भारतीय संविधान भारतीय जनता की इच्छा का प्रतिफल है।
(2) सम्पूर्ण सम्प्रभुता सम्पन्न, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य- संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक सम्पूर्ण सम्प्रभुता सम्पन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित किया गया है जिसके अनुसार भारत की आन्तरिक और बाह्य दृष्टि से भारत पर किसी विदेशी सत्ता का अधिकार नहीं है।
(3) सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय- प्रस्तावना के अन्तर्गत इन शब्दों के आधार पर संविधान के लक्ष्य का वर्णन है। इससे स्पष्ट है कि सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करने का अधिकार है। सामाजिक न्याय का तात्पर्य है किसी विशिष्ट व्यक्ति को महत्त्व न दिया जाकर सभी धर्मों, वर्णों, लिंगों अथवा अन्य किसी आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। आर्थिक न्याय, सामाजिक न्याय का पूरक है, इसका अर्थ है कि ऐसी व्यवस्था का अन्त कर दिया जाय जिसमें साधन सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा बहुसंख्यक साधन-हीन व्यक्तियों का शोषण हो । राजनीतिक न्याय का तात्पर्य है कि सभी नागरिकों को राजनीतिक क्षेत्र में स्वतन्त्र और समान रूप से भाग लेने का अवसर प्राप्त होना चाहिए। भारतीय संविधान के द्वारा लोकतान्त्रिक व्यवस्था और वयस्क मताधिकार अपनाकर राजनीतिक न्याय, मौलिक अधिकार आदि की व्यवस्था है। धर्मनिरपेक्षता भी इस विषय में एक कदम है।
(4) स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृत्व- भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अन्तर्गत केवल न्याय को ही नहीं बल्कि स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व भी संविधान का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसी दृष्टि से संविधान में विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना का अन्तिम आदर्श भ्रातृत्व अथवा बन्धुता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना आज तक लिखे गये सभी प्रकार के प्रलेखों में सर्वश्रेष्ठ है। वह संविधान की कुंजी और आत्मा है।
प्रस्तावना का शिक्षा पर प्रभाव (Influence of Preamble on Education)
भारतीय संविधान की ‘प्रस्तावना’ को हम संविधान की आत्मा कह सकते हैं। प्रस्तावना से शिक्षा पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। इसके द्वारा भारतीय संविधान में शिक्षा सम्बन्धी अनेक प्रावधान विकसित किये गये हैं।
भारतीय संविधान में ऐसी विभिन्न महत्त्वपूर्ण धाराएँ एवं उपबन्ध हैं जो भारतीय शिक्षा की नीति का निर्धारण करती हैं। ये धाराएँ एवं उपबन्ध संविधान की निम्नलिखित तीन अनुसूचियों में बिखरे हुए हैं- 1. संघ सूची (Union List), 2. राज्य सूची (State List), 3. समवर्ती सूची (Concurrent List)।
संघ सूची में संघ अर्थात् केन्द्र के विषय हैं, राज्य सूची में राज्यों के विषय हैं और समवर्ती सूची में दिए गए विषयों पर संघ सरकार और राज्य सरकार दोनों को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। यहाँ इन तीनों सूचियों के विभिन्न अनुच्छेदों और उपबन्धों में दिए गए शिक्षा सम्बन्धी प्रावधानों का उल्लेख किया जा रहा है।
1. अनुच्छेद 28- “राज्य द्वारा पूर्णतः पोषित किसी संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी किन्तु प्राइवेट संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा दी जा सकेगी जिन्हें सरकार या राज्य ने मान्यता दे दी है या जिन संस्थाओं को सरकारी धन से सहायता मिलती है या जिन संस्थाओं का प्रबन्ध तो सरकार करती है परन्तु जो गैर-सरकारी धन से बनी हैं और चलती हैं और जिनके निर्माताओं और दाताओं ने साथ में यह शर्त लगा दी है कि उनमें धार्मिक शिक्षा दी जायेगी, किन्तु शर्त यह होगी कि उक्त संस्था में पढ़ने वाले किसी व्यक्ति को उक्त संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए अथवा धार्मिक उपासना में भाग लेने के लिए अथवा उक्त संस्था की इमारत में उपस्थित होने के लिए उस समय तक बाध्य नहीं किया जायेगा जब तक कि उक्त व्यक्ति ने, या यदि वह वयस्क न हो तो उसके संरक्षक ने, इसके लिए स्वीकृति न दे दीं हो ।”
2. अनुच्छेद 29 (1)– “भारत के राज्य-क्षेत्र अथवा उसके किसी भाग के निवासियों के किसी विभाग को अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति बनाये रखने का अधिकार होगा।”
इस अधिकार पर संविधान के अनुच्छेद 343 के उपबन्धों का प्रभाव नहीं पड़ेगा जिससे समस्त संघ के लिए देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा को अधिकृत भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है।
अनुच्छेद 29 (2)– “राज्य द्वारा घोषित या राज्य निधि से सहायता प्राप्त करने वाली किसी शिक्षा संस्था में किसी नागरिक को धर्म, प्रजाति, जाति, भाषा या उनमें से किसी एक के आधार पर प्रवेश देने से नहीं रोका जायेगा।”
3. अनुच्छेद 30- “धर्म या भाषा पर आधारित सब अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना का अधिकार होगा।”
उक्त शिक्षा-संस्थाओं सहायता देने में राज्य किसी विद्यालय के विरुद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रशासन में है।
राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व (Directive Elements of State)
1. अनुच्छेद 41- “राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार यथाशक्ति काम पाने, शिक्षा पाने तथा बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और अंग-हानि तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में सार्वजनिक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का कार्य-साधक उपबन्ध करेगा।”
2. अनुच्छेद 45 “राज्य सब बालकों को चौदह वर्ष की अवस्था की समाप्ति तक निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करने का प्रयास करेगा।”
3. अनुच्छेद 46- “राज्य जनता के दुर्बलतर विभागों के विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन जातियों के शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करेगा तथा सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करेगा।”
संविधान की सातवीं सूची
(अ) संघ सूची
संविधान की सातवीं अनुसूची की प्रथम सूची (संघ सूची) के निम्नलिखित उपबन्धों ने केन्द्रीय सरकार को कुछ शैक्षिक उत्तरदायित्व प्रदान किये हैं
1. उपबन्ध 63- “इस संविधान के प्रारम्भ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय नामों से ज्ञात संस्थाएँ तथा संसद से विधि द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व की घोषित कोई अन्य संस्थाएँ ।”
2. उपबन्ध 64– “भारत सरकार से पूर्णतः या अंशतः वित्त पोषित तथा संसद से विधि द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व की घोषित वैज्ञानिक या शिल्पिक शिक्षा संस्थाएँ ।”
3. उपबन्ध 65- संघीय साधन तथा संस्थाएँ जो (क) “वृत्तिक (Professional), व्यावसायिक या प्राविधिक प्रशिक्षण के लिए हैं।” इनमें पुलिस पदाधिकारियों के प्रशिक्षण से सम्बन्धित संस्थाएँ भी आती है।
(ख) “विशेष अध्ययनों या अनुसन्धान की उन्नति के लिए हैं।”
(ग) “अपराध क अनुसन्धान या पता चलाने में वैज्ञानिक या शिल्पिक सहायता के लिए हैं।”
4. उपबन्ध 66- “उच्चतर शिक्षा या अनुसन्धान की संस्थाओं में तथा वैज्ञानिक एवं शिल्पिक संस्थाओं में एकसूत्रता लाना और मानदण्डों (Standards) का निर्धारण करना ।”
(ब) राज्य-सूची
उपबन्ध 11- “शिक्षा विश्वविद्यालयों सहित संघ सूची के उपलब्ध 63, 64, 65 तथा 66 और समवर्ती सूची के उपबन्ध 25 के अतिरिक्त एक राजकीय विषय है।”
(स) समवर्ती सूची
उपबन्ध 25- “श्रमिकों का व्यावसायिक तथा प्राविधिक प्रशिक्षण ।”
मूलतः भारतीय संविधान में शिक्षा को एक राज्यीय विषय माना गया है परन्तु 1976 में शिक्षा को समवर्ती सूची में स्थान प्रदान करने के लिए सफल प्रयास किया गया है। इस प्रावधान से केन्द्र सरकार भी शिक्षा पर कानून बनाने की अधिकारिणी हो गई है। अब केन्द्र एवं राज्य सरकारें दोनों शिक्षा के विषय में विधायन कर सकती हैं। यदि दोनों के द्वारा बनाये गये कानून में कोई विरोध है तो केंद्र द्वारा बनाये गये कानून को लागू किया जायेगा। अतः शिक्षा को समवर्ती सूची में स्थान प्रदान करने से निम्न स्थिति हो गई है-
1. राज्य सरकारें शिक्षा पर अपने कानून बना सकती हैं।
2. केन्द्र सरकार भी शिक्षा पर कानून बनाने की अधिकारिणी है।
3. यदि राज्य कानून तथा केन्द्रीय कानून में कोई विरोध है तो केन्द्रीय कानून लागू होगा। उक्त स्थिति ने केन्द्र को शैक्षिक मामलों में अधिक दायित्व प्रदान कर दिया है। अब शिक्षा को अधिक धनराशि भी प्राप्त हो सकेगी। साथ ही दोनों की भागीदारी से शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिल सकेगी।
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