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भारत के संविधान की आलोचना (Criticism of Indian Constitution)
भारत का संविधान अनेक विशेषताओं से युक्त होता हुआ भी आलोचनाओं से मुक्त नहीं है। सामान्यतया आलोचक इस संविधान को अनेक नामकरणों; जैसे- भानुमती का कुनबा, कैंची व गोंद का खिलवाड़, उधार का थैला व वकीलों का स्वर्ग आदि के रूप में कटु आलोचना करते हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ ऐसे ही विचार, जिनके आधार पर हम भारतीय संविधान की समीक्षा कर सकते हैं-
(1) अत्यधिक लम्बा या विस्तृत संविधान
डॉ. जैनिंग्ज का मत है कि भारतीय संविधान अत्यधिक विस्तृत और प्रपंची है। एक विद्वान् ने इसे हाथी का आकार रखने वाला संविधान बताया है। आलोचकों का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद और परिशिष्ट काफी लम्बे हैं जिसके कारण इस संविधान का आकार विश्व के अन्य देशों के संविधानों की अपेक्षाकृत बहुत बड़ा है। इसमें 397 अनुच्छेद हैं, जबकि अमेरिका के संविधान में 7 अनुच्छेद और सोवियत रूस के संविधान में 146 अनुच्छेद हैं। इस प्रकार यह एक विशाल संविधान है।
आलोचकों का यह तर्क सत्य है किन्तु इसे संविधान का दोष नहीं माना जा सकता है क्योंकि भारत की तत्कालीन जटिल परिस्थितियों एवं जनता की अनुभवहीनता के कारण संविधान निर्माताओं ने सभी बातों का स्पष्ट उल्लेख संविधान में कर देना उचित समझा था। इस आलोचना के उत्तर में डॉ. अम्बेडकर ने कहा है कि-“भारत के लिए लोकतन्त्र एक अनोखी वस्तु है क्योंकि भारतीय जनता अप्रजातन्त्रीय है। अतः यह आवश्यक है कि विधान-मण्डलों पर पूर्ण विश्वास न किया जाये कि वे संविधान को स्वस्थ रूप दे सकेंगे। अतः सब बातों को संविधान में रखना उचित है। “
(2) भारत सरकार अधिनियम, 1935 की नकल है संविधान
आलोचकों का कहना है कि भारतीय संविधान सन् 1935 के भारत शासन अधिनियम की नकल मात्र है। संघीय शासन, केन्द्र तथा राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन आदि अनेक बातें सन् 1935 के अधिनियम में भी पायी जाती हैं लेकिन आलोचकों के इस मत को कि भारतीय संविधान 1935 के अधिनियम की नकल मात्र है, को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि सन् 1935 के अधिनियम का निर्माण पराधीन भारत में हुआ था और वह जनता पर जबरन लादा गया था, जबकि भारत का नवीन संविधान स्वतन्त्र भारत की संविधान सभा द्वारा निर्मित किया गया है और जनता ने इसे प्रसन्नता के साथ स्वीकार किया है।
सन् 1935 का अधिनियम ब्रिटिश शासकों की कूटनीति का परिणाम था। उन्होंने छल-प्रपंच से काम लेकर इस अधिनियम द्वारा जितनी सुविधाएँ भारतीयों को प्रदान की थीं, उससे अधिक उन पर नियन्त्रण लगा दिये थे। इसके विपरीत नवीन संविधान में भारत की आत्मा दृष्टिगोचर होती है और वह छल-कपट एवं चातुर्यपूर्ण भाषा से रहित है।
(3) भानुमती का पिटारा है संविधान
भारत के संविधान को भानुमती के कुनबे या पिटारे के रूप में भी सम्बोधित किया जाता । आलोचकों के अनुसार, भारतीय संविधान विभिन्न संविधानों से ग्रहण किये गये अनेक तत्वों की गड़बड़ (Hotch-potch) है और इसी कारण से भारतीय संविधान में अनेक विरोधी तत्व पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ, भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी एकात्मक है, लिखित होते हुए भी अलिखित है। कठोर होते हुए लचीला है आदि।
आलोचकों का यह मत भी सत्य नहीं है क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान को व्यावहारिक और आदर्शयुक्त बनाने के लिए विश्व के विभिन्न संविधानों से अनेक महत्त्वपूर्ण बातें ग्रहण की और उन पर विवेकपूर्वक विचार करके उन्हें अपने संविधान में स्थान दिया।
(4) वकीलों का स्वर्ग
कुछ आलोचकों का कथन है कि भारत का नवीन संविधान वकीलों का स्वर्ग (Lawyers Paradise) है। उनका मत है कि भारतीय संविधान को वकीलों ने बनाया है, अत: वह वकीलों का ही हित साधन करता है क्योंकि भारतीय संविधान की भाषा और शब्दावली गूढ़, अस्पष्ट और चातुर्यपूर्ण है। उसके एक शब्द के अनेक अर्थ निकलते हैं और साधारण जनता उन्हें समझ नहीं पाती और वह वकीलों की सहायता लेती है जिससे वकीलों को भारी आर्थिक लाभ होता है।
संविधान की इस आलोचना में सत्य का कुछ अंश अवश्य है, परन्तु फिर भी भारतीय संविधान को वकीलों का स्वर्ग कहना उपयुक्त नहीं है। यह सत्य है कि संविधान निर्माता प्रसिद्ध वकील थे परन्तु वे ऐसे जनप्रिय, त्यागी एवं तपस्वी नेता थे, जिनका कोई व्यावसायिक स्वार्थ नहीं था। इसके साथ ही साथ प्रत्येक संविधान में कुछ ऐसे लेख अवश्य होते हैं जिनका स्पष्ट अर्थ केवल उच्च कोटि के विधिवेत्ता ही लगा सकते हैं।
(5) भारत का संविधान अभारतीय है
कुछ विचारकों का कथन है कि भारतीय संविधान भारतीय परम्परा के विरुद्ध है। उनके मतानुसार, भारत के नवीन संविधान को किसी प्राचीन भारतीय नमूने (Hindu mode) के आधार पर निर्मित होना चाहिए।
इस आलोचना का उत्तर देते हुए डॉ. एम. पी. शर्मा ने लिखा है कि “प्राचीन हिन्दू प्रणाली के आधार पर संविधान बनाने से दो व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं, एक तो प्राचीन भारत में अनेक प्रकार की शासन प्रणालियाँ चलती थीं जिसके कारण यह निर्णय करना बहुत कठिन होगा कि इनमें से कौन-सी शासन प्रणाली को अपनायें, दूसरे प्राचीन भारतीय शासन प्रणालियाँ वर्तमान परिस्थितियों तथा समस्याओं को हल करने का उचित मार्ग-दर्शन नहीं कर पातीं।”
(6) केन्द्र को अधिकांश शक्तियाँ प्रदान करना अनुचित
आलोचकों का मत है कि भारतीय संविधान में केन्द्र को बहुत अधिक शक्तिशाली बनाया गया है तथा राज्यों को बहुत कम शक्तियाँ दी गई हैं। इस प्रकार वह संघात्मक संविधान के स्थान पर एकात्मक संविधान बन गया है।
इस आलोचना का उत्तर देते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा है, “इस आधार पर एक गम्भीर दोषारोपण यह किया जाता है कि केन्द्रीयकरण की मात्रा बहुत अधिक हो गई है तथा राज्यों की स्थिति नगरपालिकाओं के सदृश्य कर दी गई है। यह स्पष्ट है कि यह अतिशयोक्ति ही नहीं वरन् एक भ्रान्तिमूलक धारणा पर ही आधारित है। जहाँ तक केन्द्र और राज्यों के बीच सम्बन्ध का प्रश्न है, उन मौलिक सिद्धान्तों को मस्तिष्क में लाना वांछनीय है जिन पर कि यह आधरित है। संघवाद का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि केन्द्र और राज्य के बीच विधायिका और कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकारों का विभाजन केन्द्र द्वारा निर्मित किसी कानून के द्वारा नहीं वरन् स्वयं संविधान द्वारा कर दिया गया है न कि केन्द्रीय कानून के द्वारा इस प्रकार राज्य तथा केन्द्र समान स्तर रखते हैं। राज्य, केन्द्र पर इस मामले में आधारित नहीं है। “
(7) राष्ट्रपति के असीमित अधिकार
आलोचकों का कथन है कि नवीन संविधान में संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति को असीमित और विस्तृत अधिकार प्रदान कर दिये हैं। इन अधिकारों के कारण भारत का राष्ट्रपति तानाशाह बन सकता है। इन विचारकों ने राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों की कटु आलोचना की है। शंकरदेव राव के अनुसार- “जर्मनी के संविधान के समान ही, हमारे संविधान ने राष्ट्रपति को तानाशाह बनने का पूरा अवसर दिया है।”
श्री ए. सी. गुहा के मतानुसार- “राष्ट्रपति में बहुत अधिक शक्तियाँ निहित कर दी गई हैं, जो कि जर्मनी के राष्ट्रपति की उस समय की शक्तियों के समान हैं जो कि हिटलर के आने के समय उसको प्राप्त थीं।”
यह आलोचना भी साररहित है क्योंकि संकटकाल में अध्यादेश जारी करने की शक्ति राष्ट्रपति को प्रदान करना सर्वथा उचित है, परन्तु राष्ट्रपति यह शक्ति भी स्वेच्छानुसार प्रयुक्त नहीं कर सकता है। वह इन शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री के परामर्श से ही कर सकता है। वास्तव में राष्ट्रपति देश का संवैधानिक अध्यक्ष है। व्यावहारिक रूप में उसकी समस्त शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिमण्डल ही करता है, जिस पर भारतीय संसद का पूर्ण नियन्त्रण रहता है। इस आलोचना का उत्तर देते हुए कृष्णपाचारी ने लिखा है-“राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों को हमें आवश्यक बुराई के रूप में सहन कर लेना चाहिए क्योंकि इसके अभाव में सम्भव है कि हमारे संविधान निर्माण सम्बन्धी प्रयास ही विफल हो जायें।”
(8) संशोधन की अत्यधिक जटिल प्रक्रिया
भारतीय संविधान कठोर है और उसके अनेक भागों (मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्व आदि) में तभी परिवर्तन किया जा सकता है जबकि संसद के दोनों सदन अलग-अलग अपने कुल बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करें। संविधान के कुछ प्रावधानों (संघात्मक व्यवस्था से सम्बन्धित) में परिवर्तन के लिए आवश्यक है कि उपर्युक्त प्रक्रिया के आधार पर संसद के दोनों सदन प्रस्ताव पारित करें और इस प्रकार के प्रस्ताव की पुष्टि भारतीय संघ के आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा की जाये। अब तक तो इस संशोधन प्रक्रिया के कारण 1969-70 के काल में ही कठिनाई आयी है, लेकिन भविष्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जबकि संविधान में आर्थिक विकास के लिए आवश्यक परिवर्तन न किये जा सकें।
निष्कर्ष
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि, संविधान एक परिवर्तनशील व प्रगतिशील ग्रन्थ होता है। भारत के संविधान की आलोचना करते समय हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक धारा के निर्माण के समय संविधान के निर्माताओं की भावना क्या थी ? वास्तव में संविधान के प्रावधानों का प्रवर्तन यदि उसकी भावना के अनुरूप किया जाये तो न तो कोई बाधा आयेगी और न ही संविधान के सन्दर्भ में मन में कोई शंका ही उत्पन्न होगी।
निःसन्देह भारत के संविधान के सम्बन्ध में प्रस्तुत आलोचनाएँ या संविधान के स्वरूप के सन्दर्भ में उपस्थित की जाने वाली शंकाएँ एकपक्षीय ही हैं। वास्तविकता तो यह है कि भारत के संविधान ने न्याय, स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुता, एकता, अखण्डता, लोक कल्याण, मानवाधिकार, समग्र विकास, साम्प्रदायिक सद्भाव व अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सद्भाव का मार्ग-प्रशस्त किया है। वास्तव में यह एक अनूठा प्रलेख है किन्तु रचनात्मकता के लिए किये जाने वाले संशोधन भी सदैव प्रशंसनीय व वांछनीय हैं।
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