‘मातृभूमि’ कविता में व्यक्त मैथिलीशरण गुप्त के विचार
मैथिलीशरण गुप्त ने इस कविता में अपनी मातृभूमि की महत्ता एवं उसके प्रति अपने प्रगाढ़ लगाव का वर्णन किया है। जो भूमि पैदा होते ही नवजात को सहारा देती है, ममतापूर्वक अपनी गोद में लेकर उसकी रक्षा करती है और जो उसकी जननी की भी पालनहार है, उस मातृभूमि-पृथ्वी वह पूज्यभाव से ‘मातामही’ के रूप में अपना अटूट नाता जोड़ता है। जिसकी गोद में प्रसन्नतापूर्वक खेलते-कूदते जवान हुआ है, उस मातृभूमि देखकर वह बारम्बार ‘मगनमन’ होता है। कवि इस बात को जानता एवं मानता है कि यह पृथ्वी सबके जन्म और पालनपोषण का कारम एवं माध्यम है, सबके निवास के निमित्त बनी घासफूस की कुटी-झोपड़ी से लेकर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं एवं विशालकाय भवन-महल इस पृथ्वी के तत्त्व से ही पृथ्वी पर अन्न, जो जीवन का आधार है, वह हमें पृथ्वी ही देती है, उसके बदले में वह हमसे कुछ भी नहीं लेती, कछ भी कामना नहीं करती। एक-से-एक मूल्यवान् पदार्थ प्रदान कर वह हमारा प्रेमपूर्वक पोषण करती है। यदि कभी ऐसा हुआ कि कृषि-उपज न हो तो हम सब ‘पटे की आग’ में तड़प-तड़प कर मरने लगते हैं। पृथ्वी पर उत्पन्न प्राकृतिक उपादानों से ही हम सारा वैभव भोगते हैं।
मिट्टी की यह देह इस मिट्टी (पृथ्वी) से ही विनिर्मित है, उसके ही रस में सनी-गुँथी है और यह देह जिस दिन निश्चल-निर्जीव हो जायेगी, उस दिन फिर इसी मातृभूमि-मिट्टी में मिल जायेगी।
देहधारी मनुष्य का इस दुनिया में जिससे भी हमारा नाता-रिश्ता जुड़ाव है, जो भी हमारी प्रसन्नता का कारण है, उस सब में भी इस मातृभूमि का ही तत्त्व व्याप्त है। इस लिहाज से भी उसकी दृष्टि में मातृभूमि का महत्त्व असन्दिग्ध है। वे प्राकृतिक उपादान जो मानवजीवन और मानव-प्रसन्नता के कारण हैं, उन सबका भी उद्भव-विकास इस मातृभूमि पृथ्वी से ही है। अर्थात् यह मातृभूमि पृथ्वी जन्म ही नहीं देती है, अपितु उसके भरण-पोषण, सुख-सुविधा, हर्ष-प्रसन्नता सब का प्रबन्ध भी करती है। अमृत-तुल्य निर्मल नीर, श्रमपरिहारी शीतल-मन्द- सुगन्धित वायु, शीतलतादायक चन्द्र तथा तमनाशक सूर्य, मनमोदक-सुखद नानारूपरंगधारी, प्रसून, तृप्तिदायक सरस-सुधोपम नानाविध फल, जीवनरक्षक एक-से-एक औषधियाँ, ऐश्वर्य वैभव की प्रतीक तथा बहुविध शुभ फलकारक सोने-चाँदी, पन्ना-पुखराज, हीरे-मोती, नीलम-माणिक-जैसी श्रेष्ठ धातुरलॉवाली खानें, दूर-दूर तक प्रसरित श्रृंग श्रेणियाँ एवं सघन वनालियाँ, जीवनदायिनी नदियाँ आदि इत्यादि इस मातृभूमि-पृथ्वी से ही व्युत्पन्न, पृथ्वी पर ही अधिराजित-प्रतिष्ठित है। “है। मातृभूमि के प्रति कवि अपनी कृतज्ञता एवं सारस्वत – भाव अभिव्यक्त करता है। उसके उपकार याद आते ही कवि-मन मुग्ध एवं भक्तिभाव से आपूरित हो जाता है। वह पूजायोग्य मातृभूमि की कीर्ति का अनेकशः बखान करता है, उसकी चन्दवर्णी धूल को सिर माथे लगाता है और प्रत्युपकार में अक्षम असमर्थ होने के कारण मातृभूमि के प्रति केवल नतमस्तक होकर, उसके द्वारा किये उपकार का बदला देता है।
गुप्तजी की यह भी मान्यता है कि उसकी मातृभूमि की धूल परमपवित्र है। यह धूल शोकदाह में दहते हुए प्राणी को दुःख सहने की क्षमता देती है। पाखण्डी-ढोंगी व्यक्ति भी इस धूल को तन माथे लगाकर साधु-सज्जन बन जाता है। इस मिट्टी में वह शक्ति है जो क्रूर-हिंसा में भी भक्तिभाव पैदा कर सकती है। इस मातृभूमि की वह रेखांकरनीय विशिष्टता है कि वह सभी प्राणियों को सम समानभाव से देखती है, उसे सब जीव एक जैसे प्रिय हैं, उसके लिए कोई भी विशेष अपना पराया नहीं है, मात्र कर्मफल के कारण सबकी स्थिति अलग-अलग है। जो इस तथ्य सत्य को नहीं समझता और इसमें ‘भेद-दृष्टि’ मानता है, वह ‘लोचनयुक्त अन्ध’ है। अपनी मातृभूमि के प्रति कवि का आत्मिक लगाव है।
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