रविन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचारों को शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियों एवं अनुशासन के सन्दर्भ में स्पष्ट कीजिए। अथवा रविन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक विचार क्या हैं ? भारतीय समाज में ये विचार किस प्रकार लाभप्रद हो सकते हैं ? अथवा रवीन्द्रनाथ टैगोर के शैक्षिक दर्शन की विवेचना कीजिए। शांति निकेतन में टैगोर के दर्शन व शिक्षण पद्धति की झलक पायी जाती है इसकी उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
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टैगोर के अनुसार शिक्षा का अर्थ (According to Tagore Meaning of Education)
टैगोर ने शिक्षा का व्यापक अर्थ लगाया है। उन्होंने शिक्षा का अर्थ-सृष्टि के साथ सामंजस्य स्थापित करना बताया है। उन्होंने अपनी पुस्तक परसौनेलिटी में लिखा हैं-
सर्वोच्च शिक्षा वही है जो सम्पूर्ण दृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है। सम्पूर्ण सृष्टि से तात्पर्य संसार की जीव और निर्जीव सभी वस्तुओं से है। इन वस्तुओं के साथ सामंजस्य करने के लिए मनुष्य की सभी स्थित शक्तियों का पूर्ण विकास होना चाहिए। इस स्थिति को टैगोर ने पूर्ण मनुष्यत्व कहा है। इस स्थिति में मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास पूर्ण होना चाहिए। टैगोर के अनुसार मनुष्य को अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान का संग्रह करना चाहिए और उसके उपयोगी अंग को प्रयोग करना चाहिए। टैगोर के अनुसार, “सच्ची शिक्षा संग्रह किये गये लाभप्रद ज्ञान के प्रत्येक अंग के प्रयोग करने में उस अंग के वास्तविक स्वरूप को जानने में और जीवन में जीवन के लिए सच्चे आश्रय का निर्माण करने में निहित है।”
शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education)
टैगोर ने शिक्षा के उद्देश्य किसी पुस्तक में प्रस्तुत नहीं किये हैं। उनके विचार उनके व्याख्यानों, लेखों तथा अन्य साहित्यिक रचनाओं से प्रकट हुए हैं। उनके विचार से शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
1. शारीरिक विकास – टैगोर के अनुसार बालकों का शारीरिक विकास किया जाना चाहिए। इसके लिए उन्हें प्राकृतिक वातावरण में रखना चाहिए। उसके शरीर के विभिन्न अंगों तथा इन्द्रियों का प्रशिक्षण होना चाहिए।
2. मानसिक विकास- टैगोर के अनुसार मानसिक विकास करने के लिए बालक को उसके जीवन की वास्तविक बातों से परिचित कराना चाहिए। उसको विभिन्न परिस्थितियों तथा वातावरणों का ज्ञान देना चाहिए जिससे वह उनके साथ सामंजस्य कर सकें।
3. संवेगात्मक विकास- टैगोर बालक के शारीरिक और मानसिक विकास के साथ ही साथ उसका संवेगात्मक विकास भी चाहते हैं। इसके लिए वे बालकों को कविता, संगीत, चित्रकला, नृत्य आदि की शिक्षा देने को कहते हैं।
4. नैतिक और आध्यात्मिक विकास- बालक के नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए बालकों को धैर्य, शान्ति, आत्म अनुशासन, आन्तरिक स्वतन्त्रता और आन्तरिक ज्ञान के मूल्यों से परिचित कराना चाहिए।
5. सामाजिक विकास- टैगोर के अनुसार बालकों का वैयक्तिक विकास करने के अतिरिक्त उनका सामाजिक विकास भी किया जाना चाहिए। इसके लिए बालकों से समाज सेवा करानी चाहिए।
टैगोर का शैक्षिक पाठ्यक्रम (Educational Curriculum of Tagore)
टैगोर ने शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विस्तृत पाठ्यक्रम की योजना बनाई है। उन्होंने भारतीय विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में दो प्रमुख दोष पाये थे। पहला दोष पाठ्यक्रम में अधिकांशतः सैद्धान्तिक ज्ञान का होना था और दूसरा व्यावसायिक शिक्षा पर अधिक बल देना था। इन दोषों को दूर करने के लिए टैगोर ने पाठ्यक्रम में निम्न विषय और पाठान्तर क्रियाओं को स्थान देने के लिए कहा है-
1. विषय (Subjects)- विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, इतिहास, भूगोल, साहित्य संगीत कला आदि।
2. क्रियायें- अभिनय, चित्रकला, भ्रमण, बागवानी, क्षेत्रीय अध्ययन, प्रयोगशाला कार्य, अजायबघर के लिए वस्तुओं का संग्रह आदि ।
3. पाठ्य-सहगामी क्रियायें – खेलकूद, समाज सेवा, छात्र स्वशासन आदि ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि टैगोर द्वारा प्रस्तुत पाठ्यक्रम विषय प्रधान न होकर क्रिया प्रधान है। ऐसे पाठ्यक्रम को क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम कहते हैं।
शिक्षण विधि (Teaching Method)
1. शिक्षण विधि में निरीक्षण करके सीखने पर बल दिया जाना चाहिए।
2. बालकों को मौखिक ज्ञान न देकर उन्हें वास्तविक वस्तु दिखाकर निरीक्षण कराना चाहिए जिससे उनकी निरीक्षण शक्ति तथा ‘तर्क शक्ति’ का विकास हो सके।
3. शिक्षण विधि में बालक के अनुभवों और इन्द्रियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। बालक इस प्रकार जो ज्ञान अर्जित करता है वह स्थायी होता है।
4. बालकों को मौखिक ज्ञान न देकर “क्रिया द्वारा सीखना” (Learning by doing) चाहिए। टैगोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं में समन्वय करना चाहते थे। इसीलिए वे पाठ्यक्रम में क्रियाओं को महत्त्व देते हैं।
5. टैगोर बालकों को भ्रमण द्वारा शिक्षा देना चाहते थे। उन्होंने भ्रमण को सर्वोत्तम विधि कहा है। उनके ही शब्दों में- “भ्रमण के समय पढ़ाना, शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है।”
“Teaching while walking is the best method of teaching.”
टैगोर ने इन सिद्धान्तों पर आधारित जिन शिक्षण विधियों का समर्थन किया है उनमें से अधोलिखित प्रमुख हैं- 1. क्रियाविधि, 2. भ्रमण विधि, 3. वाद-विवाद, 4. प्रश्नोत्तर विधि ।
शिक्षक का स्थान ( Place of a Teacher)
टैगोर ने शिक्षण में शिक्षक को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। वह शिक्षण विधियों से अधिक महत्त्व शिक्षक को देते हैं। उन्होंने कहा है- “शिक्षा केवल शिक्षक के द्वारा दी जा सकती है शिक्षण विधि के द्वारा कदापि नहीं दी जा सकती है। मनुष्य केवल मनुष्य से ही सीख सकता है।” टैगोर अध्यापक से आशा करता है कि वह बालकों के साथ प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करे। उसे बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना चाहिए। अध्यापक को अपना आचरण आदर्शपूर्ण रखना चाहिए जिससे छात्र उसका अनुकरण कर सकें। उसे विद्यालय में ऐसा वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए जिससे बालकों का पूर्ण विकास हो सके।
अनुशासन (Discipline)
टैगोर बाह्य अनुशासन में विश्वास नहीं करते हैं। वे स्वाभाविक अनुशासन पर बल देते हैं। स्वाभाविक अनुशासन को आत्मानुशासन या आन्तरिक अनुशासन भी कहते हैं। स्वाभाविक अनुशासन का अर्थ स्पष्ट करते हुए टैगोर ने लिखा है- “स्वाभाविक अनुशासन का अर्थ अपरिपक्व स्वाभाविक आवेगों की समुचित उत्तेजना और अनुचित दिशाओं में विकास से सुरक्षा है। स्वाभाविक अनुशासन की स्थिति में रहना छोटे बच्चों के लिए सुखदायक है। यह उनके पूर्ण विकास में सहायक होता है।”
शांति निकेतन (Shantiniketan)
टैगोर ने अपने जीवन दर्शन के विकास के साथ-साथ शिक्षा दर्शन का भी विकास दिया। अतः उनके जीवन दर्शन के विकास में जिन तत्वों का प्रभाव पड़ा उन्हीं तत्वों का प्रभाव उनके शिक्षा दर्शन के विकास में भी पड़ा। टैगोर के शिक्षा दर्शन के निर्माण में उनके परिवार का विशेष प्रभाव पड़ा जो कि सभी प्रकार के प्रगतिशील विचारों एवं कार्यों और विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आन्दोलनों का केन्द्र था। टैगोर ने अपनी तीव्र एवं विविध ग्रहण शक्ति का प्रयोग करके स्व-शिक्षा द्वारा ही शिक्षा एवं उसके रहस्यों का अनेक प्रकार से अनुभव कर ज्ञानार्जन किया। श्री एस. सी. सरकार (S. C. Sarlar) ने इस तथ्य की ओर संकेत करते हुए लिखा है, “उन्होंने स्वयं ही शिक्षा के उन सभी सिद्धान्तों की खोज की जिनका आगे चलकर उन्हें अपने लिए प्रतिपादन करना था और अपने ‘शान्ति निकेतन’ के प्रयोग में काम में लाना था।” परिवार के प्रभाव के अतिरिक्त उन पर पश्चिमी देशों के शिक्षाशास्त्रियों, विशेष तौर से रूसो (Rousseau), फ्रोबेल (Froebel), ड्युवी (Dewey) तथा पेस्टालॉजी (Pestalozzi) के विचारों का भी प्रभाव पड़ा जिनका वे 1921ई. में शान्ति निकेतन की स्थापना के पूर्व अध् ययन कर चुके थे। इसके अतिरिक्त टैगोर ने अपनी तीव्र बुद्धि प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था जिनका कि उनके शिक्षा दर्शन के निर्माण में पर्याप्त प्रभाव पड़ा। टैगोर ने अपने शिक्षा दर्शन के निर्माण में अपने समय की शिक्षा प्रणाली के दोषों को भी ध्यान में रखा। इस प्रकार टैगोर के शिक्षा दर्शन के विकास में अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का प्रभाव पड़ा।
टैगोर के शैक्षिक विचारों का मूल्यांकन (Evaluation of Tagore’s Educational Views)
टैगोर का नाम साहित्य के क्षेत्र में जितने आदर से लिया जाता है उतने ही आदर से शिक्षा के क्षेत्र में लिया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में आपने विशेष रूप से शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधि और अनुशासन के सम्बन्ध में योगदान दिया है। वे भारत में अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा प्रवर्तक माने जाते हैं। शिक्षा को वास्तविक जीवन से सम्बन्धित करने का श्रेय आपको ही है।
टैगोर के शैक्षिक विचारों का मूल्यांकन करते हुए एच० वी० मुखर्जी ने लिखा है- “टैगोर आधुनिक भारत में शैक्षणिक पुनरुत्थान के सबसे बड़े पैगम्बर थे। उन्होंने अपने देश के सामने शिक्षा के सर्वोच्च आदशों को स्थापित करने के लिए निरन्तर संघर्ष किया। उन्होंने अपनी शिक्षा संस्थाओं में शैक्षणिक प्रयोग सम्पादित किये जिन्होंने उनके आदर्शों का सजीव प्रतीक बना दिया।”
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