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वास्तविक लागत और अवसर लागत (Actual Cost and Opportunity Cost)
वास्तविक लागत— किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन या प्राप्त करने में किये गये वास्तविक व्यय को वास्तविक लागत कहते हैं। जैसे—कच्चा माल के क्रय पर भुगतान की गई राशि, श्रमिकों की मजदूरी, पूँजी पर ब्याज आदि वास्तविक लागत कहलाती हैं।
अवसर लागत—इसका आशय अतीत या खोये हुए अवसरों की लागत से होता है। एक साधन के कई वैकल्पिक प्रयोग हो सकते हैं किन्तु जब हम उसे किसी एक विशेष प्रयोग में लगा देते हैं तो इससे उसके अन्य प्रयोगों में उपयोग के अवसर समाप्त हो जाते हैं। अन्य वैकल्पिक प्रयोग से अर्जित किया जा सकने वाला आगम ही साधन की अवसर लागत कहलायेगी । अर्थशास्त्री बैनहम के शब्दों में, “किसी वस्तु की अवसर लागत वह दूसरा सर्वोत्तम विकल्प है जिसका उन्हीं साधनों से या उनके समान उतनी ही मौद्रिक लागत के साधनों के समूह से उसकी अपेक्षा उत्पादन किया जा सकता था।” अवसर लागत की धारणा इस मान्यता पर आधारित है कि सीमित साधनों के वैकल्पिक प्रयोग होते हैं। यदि किसी साधन का कोई वैकल्पिक प्रयोग सम्भव नहीं तो उस साधन की अवसर लागत शून्य मानी जायेगी। इसीलिये अवसर लागत को वैकल्पिक लागत (Alternative Cost) अथवा हस्तान्तरण आय (Transfer Earnings) भी कहते हैं। चूँकि ये लागतें त्यागे हुए विकल्पों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं, अतः लेखा-पुस्तकों में इनका उल्लेख नहीं किया जाता हैं।
विहित लागत और निहित लागत (Explicit Cost and Implicit Cost)
ऐसी लागतें जिनके लिए फर्म को किसी बाहरी पक्ष को भुगतान करना पड़ता है, विहित लागत या स्पष्ट लागत कहलाती है; जैसे कच्चे माल का मूल्य, मजदूरी, विक्रय व्यय, कर, बीमा आदि। दूसरी ओर ऐसी लागतें जिनके लिये फर्म को किसी और को भुगतान नहीं करना पड़ता, निहित लागतें कहलाती हैं। ये मालिक के निजी स्वामित्व में साधनों की लागतें होती हैं। यदि ये साधन उसके स्वामित्व में नहीं होते तो उसे ये व्यय दूसरों को चुकाने पड़ते है; जैसे मालिक का वेतन, पूँजी पर ब्याज, अपने स्वामित्व के भवन का किराया आदि। ऐसी लागतों को आकलित लागतें (Imputed Costs) भी कहते हैं। प्रबन्धकीय निर्णयों में इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती और इन्हें कुल लागत का एक भाग ही समझा जाता है, यद्यपि लेखांकन के अन्तर्गत केवल विहित लागतों के योग को ही उत्पादन लागत माना जाता है।
अल्पकालीन लागत और दीर्घकालीन लागत (Short-term Cost and Long-term Cost)
अल्पकाल और दीर्घकाल में लागतों के व्यवहार में काफी अन्तर रहता है। अर्थशास्त्र में अल्पकाल उस अवधि को कहते हैं जिसके अन्तर्गत फर्म के स्थिर संयंत्रों व अन्य स्थिर कारकों में परिवर्तन न किया जा सके जबकि दीर्घकाल उस अवधि को कहते हैं जिसके अन्तर्गत फर्म के स्थिर संयंत्रों व अन्य स्थिर कारकों में परिवर्तन किया जा सके। अतः अल्पकाल में परिवर्तनीय साधनों की मात्रा में समायोजन करके स्थिर संयंत्रों की वर्तमान क्षमता की सीमा के अन्तर्गत ही उत्पादन मात्रा में समायोजन किया जा सकता है जबकि दीर्घकाल में सभी साधनों में वांछित समायोजन किया जा सकता है। अल्पकाल में परिवर्तनशील और स्थिर दोनों लागतों का अस्तित्व रहता है किन्तु दीर्घकाल में सभी लागतें परिवर्तनशील होती हैं। इसीलिए प्रबन्धकीय निर्णयन के लिये अल्पकालीन और दीर्घकालीन लागतों के बीच भेद किया जाता है।
अर्थशास्त्र के अन्तर्गत अल्पकालीन और दीर्घकालीन लागत-व्यवहार में अन्तर एक आधारभूत बात मानी जाती है। यह अन्तर समस्त आदान कारकों की उत्पादन की दर और प्रकार के मेल की मात्रा पर आधारित है। जब संयंत्र के आकार, श्रम शक्ति, तकनीकी ज्ञान आदि में पूर्ण लोच है, दीर्घकालीन लागत-व्यवहार सन्निहित होता है। जब पूर्ण लोच का अभाव हो तो अल्पकालीन लागत-व्यवहार सन्निहित होता है।
इन लागतों का अध्ययन लागत, मात्रा, मूल्य और लाभ सम्बन्धी प्रबन्धकीय निर्णयों में पर्याप्त उपयोगी होता हैं। वर्तमान संयंत्र का अति प्रयोग, प्रचलित मूल्य से कम मूल्य पर कोई विशेष आदेश स्वीकार करना आदि समस्याओं पर निर्णय लेने में अल्पकालीन लागतें महत्वपूर्ण होती हैं जबकि दीर्घकालीन लागतों का महत्व नये संयंत्र की स्थापना के सम्बन्ध में निर्णय लेने में होता है।
प्रत्यक्ष लागत और अप्रत्यक्ष लागत (Direct Cost and Indirect Cost)
जिस लागत को निर्विवाद एवं स्पष्ट रूप से किसी वस्तु, सेवा, उत्पादन विधि या विभाग विशेष से सम्बन्धित किया जा सके, वह प्रत्यक्ष लागत कहलाती है; जैसे विभागीय कर्मचारियों का वेतन, सामग्री के क्रय की लागत आदि । इन लागतों के बंटवारे की कोई समस्या नहीं उठती क्योंकि ये तो वस्तु, सेवा, विधि या विभाग से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखती हैं। लागत कई वस्तुओं, विभागों या विधियों के लिये इकट्ठी चुकायी जाती है; जैसे प्रबन्धकीय कार्यालय का व्यय, सामूहिक विज्ञापन व्यय आदि। प्रत्येक वस्तु, विभाग या विधि की लाभप्रदता के मूल्यांकन के लिये इन लागतों का सही बंटवारा बहुत आवश्यक होता है। सामान्यतः प्रत्यक्ष लागतें परिवर्तनीय होती हैं तथा अप्रत्यक्ष लागतें अपरिवर्तनीय या स्थिर। किन्तु कुछ स्थितियों में अप्रत्यक्ष लागतें परिवर्तनीय भी हो सकती हैं; जैसे विद्युत शक्ति व्यय एक अप्रत्यक्ष लागत होते हुए भी एक परिवर्तनशील लागत है।
रोकड़ी लागत और किताबी लागत (Out-of-Pocket Cost and Book Cost)
रोकड़ी लागत अथवा बाह्य लागत (Out-of-Pocket Cost) – ये वे व्यय होते हैं जिनके लिये तुरन्त या किसी भावी तिथि पर भुगतान की आवश्यता होती है। इन व्ययों का भुगतान व्यवसाय के बाहरी व्यक्तियों को किया जाता है। उदाहरण के लिये कच्चा माल का मूल्य, श्रमिकों का वेतन, किराया आदि भुगतान व्यवसाय के बाहर के पक्षों को किया जाता है, अतः ये रोकड़ी व्यय कहलाते हैं। प्रबन्धकीय निर्णयों में ये लागतें सम्बद्ध तत्व होती हैं क्योंकि विभिन्न विकल्पों के साथ इनमें भी परिवर्तन आ सकता है।
किताबी लागत (Book Cost) इसका आशय उन लागतों से होता है जिनके भुगतान के लिये कोई नकदी की आवश्यकता नहीं होती। ये तो व्यवसाय के शुद्ध लाभ की गणना के लिये केवल किताबी समायोजनों के लिये दिखलायी जाती हैं, जैसे स्थायी सम्पत्तियों पर ह्रास की राशि |
अत्यावश्यक लागत तथा स्थगनयोग्य लागत (Urgent Cost and Postponable Cost)
वे लागतें जो उत्पादन कार्य चालू रखने के लिये आवश्यक हैं, अत्यावश्यक लागतें कहलाती हैं; जैसे कच्चा माल, श्रम आदि के व्यय। इसके विपरीत ऐसी लागतें भी हैं जिन्हें कुछ समय के लिये स्थगित किया जा सकता है, स्थगन-योग्य लागतें कहलाती हैं; जैसे पुताई का व्यय रेलवे व अन्य यातायात कम्पनियों में इस धारणा का बहुत महत्व है। व्यावसायिक मंदी के काल में कुछ लागतों को स्थगित करके एक फर्म आर्थिक कठिनाइयों से बच सकती है।
नियन्त्रणीय व अनियन्त्रणीय लागतें (Controllable and Uncontrollable Costs)
किसी लागत की नियन्त्रणीयता सम्बन्धित उत्तरदायित्व के स्तर पर निर्भर करती है। नियन्त्रणीय लागत का आशय ऐसी लागत से होता है जिस पर सम्बन्धित उत्तरदायी अधिकारी का नियन्त्रण हो। इसके विपरीत, कोई ऐसी लागत जिस पर सम्बन्धित उत्तरदायी अधिकारी का नियन्त्रण सम्भव नहीं है अथवा जो प्रबन्ध के नियन्त्रण के बाहर है, अनियन्त्रणीय लागत कहलाती है। ध्यान रहे कि एक ही लागत उत्तरदायित्व के एक स्तर पर अनियन्त्रणीय हो सकती है तथा दूसरे स्तर पर, सामान्यतया उच्च स्तर पर, नियन्त्रणीय इस प्रकार कुछ लागतों पर एक से अधिक अधिकारियों का भी नियन्त्रण हो सकता है। उदाहरण के लिये, कच्चे माल की लागत में कच्चे माल के क्रय पर दिखाये गये मूल्य का उत्तरदायित्व क्रय अधिकारी का होगा तथा उसके प्रयोग में बरती गई कुशलता या अकुशलता का उत्तरदायित्व उत्पादन अधिकारी का होगा। व्ययों के नियन्त्रण तथा उत्तरदायित्व के निर्धारण में प्रबन्ध को इन लागतों के बीच भेद करना अति आवश्यक होता है।
लागत के नियन्त्रणीय और अनियन्त्रणीय तत्वों में भेद करने के लिये प्रमाप परिव्ययन की तकनीक की सहायता ली जा सकती है। जिन लागतों के प्रमाप और वास्तविक निष्पादन समान रहें, वे लागत तत्व अनियन्त्रणीय कहलायेंगे तथा जिन लागतों के प्रमाप और वास्तविक निष्पादनों में विचलन आयें, वे लागतें नियंत्रणीय मानी जायेंगी। प्रत्यक्ष कच्चा माल और प्रत्यक्ष श्रम सामान्यतया नियन्त्रणीय होते हैं, जबकि उपरिव्ययों में कुछ नियन्त्रणीय होते हैं और कुछ अनियन्त्रणीय। बाँटी गई लागतें (Allocated Costs) सदैव ही अनियन्त्रणीय होती हैं तथा अप्रत्यक्ष श्रम, प्रदाय और बिजली सामान्यतया नियन्त्रणीय होते हैं।
तालाबन्दी या कार्य निरस्ति लागत तथा कार्य परित्याग लागत (Shut Down and Abandonment Cost)
तालाबन्दी लागत (Shut Down Cost ) – यह वह लागत होती है जो किसी फर्म को उत्पादन कार्य कुछ समय के लिये बन्द कर देने पर व्यय करनी पड़ती है। संयंत्र के चालू रहने की स्थिति में इन लागतों का कोई महत्व नहीं होता है। संयंत्र को सुरक्षित रखने के लिये किये गये व्यय, बाहर पड़े माल के लिये भंडार व्यवस्था पर व्यय, चौकीदार का वेतन, कार्य पुनः चालू करने पर संयंत्र के पुनः चालू करने के व्यय, श्रमिकों की पुनः नियुक्ति व उनके प्रशिक्षण के व्यय तालाबन्दी लागत के ही उदाहरण हैं। संयंत्र को कुछ समय के लिये बन्द कर देने या चालू रहने देने की समस्या पर निर्णयन में यह लागत अवधारणा पर्याप्त उपयोगी होती है। मौसमी उत्पादन में लगी इकाइयों में इस बिन्दु का निर्धारण बहुत आवश्यक होता है।
कार्य परित्याग लागत (Abandonment Cost) – यह वह लागत होती है जो कि किसी प्लाण्ट को सदा के लिये हटा देने पर व्यय करनी पड़ती है। वस्तुतः यह कार्य के स्थायी तौर पर बन्द कर देने की स्थिति होती है। इस स्थिति में सम्पत्ति का निपटारा करने की समस्या आती है और इसमें फर्म को व्यय करना पड़ता है। इस लागत का महत्व तभी उत्पन्न होता है जबकि बन्द फर्म का स्वामी अपनी फर्म की सम्पत्तियों के निपटारे का निर्णय लेता है । उदाहरण के लिये ट्रामें बन्द हो जाने की दशा में इनको हटाने का खर्चा, किसी स्थान पर रेलवे सेवा समाप्त कर देने पर उसको हटाने का खर्चा आदि परित्याग लागतें कहलाती हैं। इस लागत का प्रयोग प्रतिस्थापन लागत की गणना में तथा फर्म को स्थायी रूप से बन्द करने सम्बन्धी समस्या पर निर्णय लेने में किया जाता है।
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