शैक्षिक मापन और मूल्यांकन के उपकरण के रूप में वर्तमान परीक्षा प्रणाली का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। अथवा वर्तमान परीक्षा प्रणाली का वर्णन कीजिए और इसके दोषों पर प्रकाश डालिए।
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वर्तमान परीक्षा प्रणाली (Present Examination System)
शिक्षा का लक्ष्य बालक का सर्वांग विकास करना है। यह विकास क्रमशः होता हैं। अतः समय-समय पर विद्यार्थी की परीक्षा लेकर यह जॉच करना आवश्यक है कि विकास कहाँ तक हुआ। स्कूल में विद्यार्थी अनेक विषयों का अध्ययन करता है। समय-समय पर इन विषयों में उसकी योग्यता की जाँच करते रहने से ज्ञात होता है कि उसने कहाँ तक सीखा हैं। भिन्न-भिन्न विषयों में सीखी गई यह योग्यता बालक की सम्प्राप्ति परीक्षाओं से ज्ञात होता है। अतः सभी स्कूलों के समय-समय पर सम्प्राप्ति परीक्षाओं के द्वारा विभिन्न विषयों में बालक की योग्यता की जाँच की जाती है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि – भारत में प्रचलित शिक्षा प्रणाली अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजी सरकार के क्लर्को को प्रशिक्षित करने के लिये आरम्भ की गई थी। उसका उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांग विकास करना नहीं था। अंग्रेजी शिक्षा के क्रमश: बढ़ने के साथ-साथ प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणालियों पर आधारित पाठशालायें बन्द होती गई। ईसाई मिशनरियों ने भारत में बहुत से स्कूल इस उद्देश्य से खोले कि पाश्चात्य भाषा, धर्म और संस्कृति की शिक्षा के द्वारा बालकों को ईसाई-साँचे में ढाला जाय। राष्ट्रीय आंदोलन के समय भारत में राष्ट्रीय दृष्टिकोण से बहुत स्कूल और कालिज खोले गये। परन्तु उनमें सामान्य शिक्षा प्रणाली लगभग वही थी जो कि अंग्रेजी सरकार ने आरम्भ की थी। तब से आज तक देश में शिक्षा का प्रसार बराबर बढ़ता जा से रहा है। परन्तु अनेक आयोगों के बार-बार जबर्दस्त सिफारिश करने के बावजूद भी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार नहीं हुआ।
वर्तमान परीक्षा प्रणाली- वर्तमान परीक्षा प्रणाली में विद्यार्थियों को सत्र के अन्त में परीक्षा कक्षा में एक साथ बैठाया जाता है और कापियाँ दे दी जाती हैं। घन्टा लगने पर पर्चे बांट दिये जाते है और दो या तीन घंटें की निश्चित अवधि में विद्यार्थी को उत्तर-पुस्तिका पर कुछ निश्चित प्रश्नों का उत्तर लिख देना होता है। अन्त में विद्यार्थियों से कापियों समेट कर एकत्रित करके परीक्षक के पास भेज दी जाती हैं। कभी-कभी परीक्षक पर्चा बनाने वाले से भिन्न व्यक्ति होता है। उत्तर पुस्तकों में किये गये अंको में पूर्णांक का 33 प्रतिशत मिलने पर परीक्षार्थी को . उत्तीर्ण मान लिया जाता है और इससे कम मिलने पर अनुत्तीर्ण माना जाता है। अनुत्तीर्ण बालक को अगले वर्ष फिरसे उसी कक्षा में पढ़ना पड़ता है।
प्रचलित परीक्षा प्रणाली के दोष
स्पष्ट है कि प्रचलित परीक्षा प्रणाली बालक के लिये उपयुक्त उपलब्धि परीक्षा नही है। इसमें निम्नलिखित दोष है जिनकी ओर समय-समय पर भिन्न-भिन्न शिक्षा शास्त्रियों और आयोगों ने संकेत किया है।
1- परीक्षार्थी वर्ष भर अध्ययन नहीं करता – आधुनिक परीक्षा के लिये बहुत से परीक्षार्थी वर्ष भर अध्ययन नही करते बल्कि परीक्षा आने के पूर्व कुछ सप्ताह या कुछ माह परिश्रम करके परीक्षा में बैठ जाता है। इस प्रकार पढ़ने वाले विद्यार्थी में पास होने के बाद भी विषय की योग्यता नही होती क्योंकि जितनी शीघ्रता से वह विषय को याद करता है उतनी ही शीघ्रता से भूल भी जाता है। सत्र प्रारम्भ होने पर 2-3 महीने तक तो बहुत ही कम विद्यार्थी पढ़ाई की ओर ध्यान देते हैं। इस प्रकार पढ़ाई के अनेक माह बिल्कुल व्यर्थ जाते हैं।
2- प्रश्नोत्तर और कुंजियों से पढ़ना- वर्तमान परीक्षा में मिले हुए अंको से विद्यार्थी की योग्यता निश्चित की जाती है। परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि बहुत सी किताबें पढ़ी जायें। प्रत्येक प्रश्नपत्र में 4 से 6 तक प्रश्न करने होते हैं और लगभग 9 या 10 प्रश्न दिये जाते है। अतः विद्यार्थी पूरा कोर्स पढ़ता ही नही क्योंकि तीन चौथाई कोर्स पढ़ने पर भी उसको काम लायक प्रश्न मिल जाते है। प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में 4 से 10 तक पृष्ठ लिखने होते हैं। अतः विद्यार्थी मोटी-मोटी किताबें पढ़ कर क्यों परेशान है? उनसे तो उसे यह पता नहीं चलता कि प्रश्नगत के किसी विशेष प्रश्न का उत्तर क्या होगा। बहुत विद्यार्थी पिछली परीक्षाओ मे आये हुए प्रश्नों के उत्तर लिखकर शिक्षको को दिखलाते हैं। परीक्षा की तैयारी की यह अच्छी विधि मानी जाती है। अब यदि विद्यार्थी को बाजार में कोई ऐसी पुस्तक मिल जाती है जिसमें परीक्षा में आये हुए प्रश्नों के उपयुक्त उत्तर दिये गये हों तो फिर स्वयं प्रश्नोत्तर लिखने की आवश्यकता ही क्या है। अतः यह पाठ्य-पुस्तकों को न पढ़कर इस तरह की प्रश्नोत्तर पुस्तकों को पढ़कर परीक्षा में अच्छे अंको से उत्तीर्ण हो जाता है। प्रश्नोत्तर पुस्तकें बहुत छोटी नहीं होती अस्तु कुछ विद्यार्थी जो और भी कम परिश्रम करना चाहते है, सम्भावित प्रश्नोत्तर पढ़ते हैं। इनमें 25 से 50 पृष्ठों में परीक्षा में आने वाले सम्भावित प्रश्नों के उत्तर दिये रहते हैं। और यदि अनुभव सही निकला तो विद्यार्थी अंको से उत्तीर्ण हो जाता है। स्पष्ट है कि इस प्रकार के सफल विद्यार्थी का विषय का ज्ञान न के बराबर है और शिक्षा का उद्देश्य तो सिद्ध हुआ ही नहीं।
3- परीक्षा का भय- आधुनिक परीक्षा प्रणाली में सत्र के अन्त में परीक्षा ली जाती है। अतः परीक्षार्थी को पूरे सत्र में परीक्षा का भय लगा रहता है। अध्यापक और परीक्षार्थी सभी पाठ्य पुस्तकों पर जुटे रहते है। विद्यार्थी को इतना समय नहीं मिलता कि वह कुछ सामान्य ज्ञान की पुस्तकें पढ़ें, कुछ शौक विकसित करें। इस तरह परीक्षार्थी पाठ्यक्रम की पुस्तकों से बाहर कुछ नहीं जानता। कोई भी पाठ्यपुस्तक, कभी भी किसी विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं दे सकती। उसके लिये अनेक पुस्तकों का अध्ययन अवश्य होता है। आधुनिक परीक्षा प्रणाली में परीक्षा का भय विस्तृत अध्ययन नहीं करने देता।
4- परीक्षा में सफलता संयोग पर निर्भर- प्रचलित परीक्षा प्रणाली में परीक्षार्थी की सफलता संयोग पर निर्भर होती है क्योंकि दो या तीन घंण्टो में उसके भाग्य का फैसला हो जाता है। चाहे उसने पूरे सत्र पर कितना भी परिश्रम करके विषय में कैसी भी योग्यता प्राप्त की हो, यदि वह किसी कारण से इन तीनों घंण्टो में अपनी योग्यता नही दिखला सकता तो उसका पढ़ा-लिखा व्यर्थ हो जाता है। कुछ विद्यार्थी परीक्षा के दिन अस्वस्थ हो जाने से, दुर्घटना के शिकार हो जाने * से या किसी अन्य कारण से परीक्षा में नहीं बैठ पाते अथवा यदि बैठते भी हैं तो अपनी पूरी योग्यता नहीं दिखला पाते। इनसे उनका साल भर का परिश्रम व्यर्थ हो जाता है।
5- यान्त्रिक प्रणाली- इस प्रकार वर्तमान शिक्षा प्रणाली का एक यन्त्र है जिसमे मानवीय तत्वों का विचार किये बिना परिणाम निकाले जाते हैं। अत: इस यन्त्र में सफलता प्राप्त करने के लिये नई-नई तरकीबें निकाली गई है। कुछ विद्यार्थी तो परीक्षा से दो चार हफ्ते पहले सम्भावित प्रश्नोत्तर पढ़कर परीक्षा में बैठते हैं। इससे कुछ विषय में तो उनको मौका ही लग जाता है। जिन विषयों में आशा के प्रतिकूल प्रश्न आ जाते हैं। उनमें वे परीक्षकों के पास जाकर अपने अंक बढ़वा लेतें हैं। इस प्रकार किसी व्यक्ति के किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद भी उसमें उस विषय की कोई योग्यता नहीं होती।
6- कापी जाँचने से सम्बन्धित दोष- वर्तमान परीक्षा प्रणाली में किसी विषय में परीक्षार्थी की उपलब्धि उत्तर पुस्तिका में उसको मिले अंको से ऑकी जाती है। अत: उसका भाग्य कापियों में ठीक जाँचने पर निर्भर है। इसमें अनेक दोष आने की सम्भावना रहती है-
(i) यदि परीक्षक की चित्तवृत्ति ठीक नहीं है, तो वह कापियों को ठीक से नहीं जाँचता । बहुधा होता यह है कि कापियों के बंडल में शुरू की कापियाँ तो अच्छी तरह पढ़ी जाकर जॉची जाती है परन्तु क्रमश: परीक्षक थकता जाता है और इसलिये बाकी कापियों को ज्यो-ज्यों करके निपटाता जाता है।
(ii) – स्पष्ट है कि सभी कापियों एक ही मापदण्ड से नही जॉची जातीं । भिन्न-भिन्न परीक्षक तो सब ही कापी को जाँचने में भिन्न-भिन्न अंक देते ही हैं परन्तु यदि एक ही शिक्षक से भी वही कापी दोबारा जॅचवाई जाये तो भी वह एक से अंक नहीं देता।
(iii)-किसी परीक्षार्थी को अधिक से अधिक कितने अंक दिये जा सकते हैं यह परीक्षक की अपनी मनोवृत्ति पर निर्भर है। अनेक परीक्षक जिनको किसी विशेष विषय में परीक्षा में 60 प्रतिशत से अधिक अंक नहीं मिले, किसी भी परीक्षार्थी को इतने अंक नहीं देते क्योंकि उनके समान योग्य कौन हो सकता है, उनसे अधिक योग्य होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरी ओर कुछ परीक्षक कापियों को जाँचने में काफी उदार वृत्ति दिखलाते हैं और 100 में 90 अंक तक दे देते हैं। यदि किसी विषय की सारी कापियाँ एक ही परीक्षक के पास गई हों तब भी गनीमत परन्तु कल्पना कीजिये कि एक विषय में हजारों परीक्षार्थी होने पर बीसों परीक्षकों को उनकी कापियाँ भेजी जाती हैं। अब जो कापी कठोर परीक्षक के पास फंस गई उसको अंक कम मि और जो काफी उदार परीक्षक के पास पहुँच गई उसको अंक बहुत मिले। विद्यार्थियों की उपलब्धि जाँचने में यह खिलवाड़ की तरह है।
(iv) बहुधा अनेक कारणों से परीक्षकों को कापियों जाँचने के लिये पर्याप्त समय नही मिलता। इसका कारण कभी-कभी तो कापियों का देर से पहुँचना होता है और कभी-कभी तो शिक्षक का व्यस्त होना या लापरवाही परिणाम यह होता है कि बहुत से शिक्षक आधे पैसे दूसरों को देकर कापियाँ जँचवा लेते हैं। कुछ परीक्षक अपनी पत्नी या विद्यार्थियों को भी कापियाँ जाँचने को दे देते है। इससे परीक्षार्थियों के साथ कैसा अत्याचार बन पड़ता है, यह सहज ही समझा जा सकता है।
(v) अनेक परीक्षक पक्षपातपूर्ण होते हैं या उनको विषय का अच्छा ज्ञान नहीं होता। फिर कुछ परीक्षक स्वयं प्रश्नपत्र में दिये गये प्रश्न का ठीक अर्थ नहीं समझ पाते। इन स्थितियों में स्वाभाविक है कि उत्तर पुस्तिकाओं के साथ न्याय नहीं हो सकता।
(vi) लम्बा परीक्षा काल- प्रचलित परीक्षायें हफ्तों और महीनों तक चलती हैं। कभी-कभी दो प्रश्नपत्रों में कई हफतों का अवकाश मिलता है। इस लम्बे अवकाश में परीक्षार्थी ऊब जाता है और परीक्षा के प्रति ठीक मनोवृत्ति नहीं रख पाता। दूसरे, विभिन्न प्रश्न-पत्रों में समय का विभाजन भी ठीक नहीं होता। किन्हीं दो प्रश्न-पत्रों में तो केवल कुछ घन्टों का अवकाश मिलता है जबकि अन्य में हफ्तों का अन्तर होता है। स्पष्ट है कि इससे विभिन्न विषयों की परीक्षा में एकसा अवसर नहीं मिलता।
7- गलत उद्देश्य – प्रचलित परीक्षा का उद्देश्य परीक्षा में अंक प्राप्त करके प्रमाण-पत्र प्राप्त करना है, विषय की योग्यता प्राप्त करना नहीं हैं। अतः परीक्षा में अंक प्राप्त करने और प्रमाण पत्र प्राप्त करने की ओर ही विशेष ध्यान दिया जाता है। परीक्षा में अंक प्राप्त करने की कितनी तरकीबें हैं। कुछ लोग तो परीक्षा के बिना ही प्रमाण-पत्र प्राप्त कर लेते हैं चाहे यह बात प्रकट होने पर उन्हें इसके लिये कोई भी दण्ड क्यों न भुगतना पड़े। प्रमाण-पत्र का उद्देश्य भी कोई अच्छी नौकरी प्राप्त करना होता है। अतः जिन विद्यार्थियों को नौकरी की खास जरूरत या परवाह नहीं होती वे प्रमाण-पत्र प्राप्त करने की और इसलिये पढ़ने-लिखने की परवाह नहीं करते। परीक्षा प्रणाली के दूषित और एकांगी उद्देश्यों के कारण वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में घोर भ्रष्टाचार फैल गया है। .
8- निबन्ध प्रणाली के दोष – वर्तमान शिक्षा प्रणाली में परीक्षार्थी को निबन्ध के रूप में प्रश्नों के उत्तर देने होते हैं। अतः उसमें निबन्ध प्रणाली के सभी दोष आ जाते हैं। इसमें विद्यार्थी विषय को समझने की अपेक्षा प्रश्नों के उत्तर रटने की ओर विशेष ध्यान देते हैं और इन रटे हुए उत्तर को उत्तर-पुस्तिकाओं पर उगल देते हैं। इसके बाद उन्हें ये रटे हुए तथ्य भी याद नहीं रहते क्योंकि उत्तर-पुस्तिकाओं में लिखे जाने के बाद उन तथ्यों का उनके लिये कोई महत्व नहीं है। परिणाम यह होता है कि किसी विषय में उत्तीर्ण होने के बाद भी परीक्षार्थी कोरा का कोरा ही रहता है।
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