शिक्षा मनोविज्ञान / EDUCATIONAL PSYCHOLOGY

शिक्षण अधिगम में मानसिक स्वास्थ्य का क्या महत्व है ?

शिक्षण अधिगम में मानसिक स्वास्थ्य का क्या महत्व है ?
शिक्षण अधिगम में मानसिक स्वास्थ्य का क्या महत्व है ?

शिक्षण अधिगम में मानसिक स्वास्थ्य का क्या महत्व है ? छात्रों में मानसिक स्वास्थ्य को विकसित करने में शिक्षा के साधनों के योगदान का वर्णन करो। 

मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया में विशेष महत्व है। सभी मनोवैज्ञानिक इस बात पर एक मत हैं कि मानसिक स्वास्थ्य का ज्ञान एवं विनियोग शिक्षण अधिगम के वातावरण के लिए महत्वपूर्ण है। आज की जटिल परिस्थितियों में जबकि सामान्य जीवन व्यतीत करने में कठिनाई आ रही है, मानसिक स्वास्थ्य का ज्ञान विद्यालय से सम्बन्धित सभी अभिकरणों के लिए समायोजन का मार्ग प्रशस्त करता है।

शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया में मानसिक स्वास्थ्य का महत्व इस प्रकार है-

  1. विद्यालय के वातावरण को सुन्दर एवं स्वस्थ बनाना ।
  2. प्रजातांत्रिक विद्यालयी व्यवस्था का निर्माण करना।
  3. पाठ्य सहगामी क्रियाओं पर बल देना।
  4. शिक्षक की शैक्षिक भूमिका का निर्धारण करना ।
  5. अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं अवसर प्रदान करना ।
  6. रुचि वैभिन्नय के आधार पर शिक्षा की व्यवस्था करना ।
  7. मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी साहित्य के अध्ययन पर बल ।
  8. मानवीय सम्बन्धों के विकास पर बल ।
  9. यौन एवं नैतिक शिक्षा की व्यवस्था ।
  10. कला-कौशल की शिक्षा तथा मार्ग दर्शन कार्यक्रम ।

समायोजन की प्रक्रिया

शिक्षण अधिगम में समायोजन की प्रक्रिया का विशेष महत्व है। इसके अभाव में मानसिक संघर्ष होते हैं। मनुष्य अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अपने वातावरण तथा परिस्थितियों के साथ समायोजन करता है। यह आवश्यक नहीं है कि वह समायोजन की प्रक्रिया में सफलता प्राप्त करे ही, इसलिए उसके मस्तिष्क में संघर्ष उत्पन्न होता ही है। प्रश्न है— मानसिक संघर्ष क्यों होता है ?

मानसिक संघर्ष के कारण इस प्रकार हैं –

1. अभिप्रेरक की विफलता- अभिप्रेरणा से व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित होता है। शारीरिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरक जब कार्य के सम्पादन में सफल हो जाते हैं तो मानसिक तनाव उत्पन्न होता ही है।

2. बाधाएँ– मानसिक कुण्ठा का दूसरा कारण है— कार्य के मध्य बाधाएँ उत्पन्न होना। ये बाधाएँ मानसिक, आर्थिक, सामाजिक आदि होती हैं।

3. प्राकृतिक प्रकोप – प्राकृतिक बाधाएँ भी मानसिक तनाव उत्पन्न करती हैं। बाढ़, भूकम्प, वर्षा, तूफान, युद्ध आदि मानसिक तनाव में वृद्धि करते हैं।

4. अन्तर्द्वन्द्व – अन्तर्द्वन्द्व भी तनाव के विकास में सहायक होते हैं। यह भी तीन प्रकार के होते हैं-

(1) पहली परिस्थिति में व्यक्ति के समक्ष समान शक्ति वाले उद्देश्य आ जाते हैं। व्यक्ति को यह तय करना कठिन हो जाता है कि वह कौन-सा कार्य करे। इसे ‘एप्रोच-एप्रोच कन्फ्लिक्ट कंडीशन’ (Approach-approach conflict condition) कहते हैं।

(2) दूसरी परिस्थिति में दोनों प्रकार के उद्देश्य नकारात्मक हैं। यह भी अन्तर्द्वन्द्व के लिए उत्तरदायी हैं। यह स्थिति ‘एवायडेन्स-एवायडेन्स’ ( Avoidance avoidance) एप्रोच कहलाती है।

(3) तीसरी स्थिति में सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही प्रकार के उद्देश्य समझ होने से भी अन्तर्द्वन्द्व की गति बढ़ती है। यह स्थिति ‘एवायडेन्स-एप्रोच’ (Avoidance-approach) स्थिति कहलाती है।

तनाव कम करने के उपाय (Methods of Reducing Tensions)

मनुष्य के मस्तिष्क में जब भी बाधा उत्पन्न होती है, तभी तनाव उत्पन्न हो जाता है। तनाव को कम करने की दो विधियाँ हैं –

1. प्रत्यक्ष (Direct) विधि-

इस विधि में व्यक्ति स्वयं ही उन उपायों का प्रयोग करता है, जो मानसिक तनाव को कम करते हैं। वह इन उपायों का अनुसरण करता है-

(i) बाधा को नष्ट या दूर करना- जब किसी उद्देश्य की प्राप्ति में कोई बाधा उत्पन्न हो जाती है तो व्यक्ति उस बाधा को दूर करता है या उसको समाप्त करके अपना रास्ता साफ कर लेता है और लक्ष्य की ओर बढ़ता है। जैसे, डिमेथियस, यूनान के एक राजनीतिज्ञ थे। उनमें कुछ शारीरिक दोष होने के कारण वे जनता में भाषण देने के योग्य नहीं थे। ऐसी स्थिति में उन्होंने अपने मुँह में कंकड़ रखकर बोलने का प्रयास किया और अपनी शारीरिक बाधाओं पर विजय प्राप्त कर ली। बाधा को व्यक्तिगत या सामूहिक, दोनों रूपों में दूर किया जा सकता है।

(ii) कार्य विधि में परिवर्तन – जब व्यक्ति यह देखता है कि बाधा को सरलता से पार नहीं किया जा सकता है, तब वह अपनी पहली योजना पर फिर से विचार करता है और लक्ष्य प्राप्ति के साधनों में परिवर्तन करता है। जैसे-जब एक विद्यार्थी एक वर्ष परीक्षा में असफल रहता है तो अगले वर्ष वह अपनी पहले की विधि में (काम के घण्टों में) परिवर्तन करता है।

(iii) प्रतिस्थापन – यदि व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुँचने में असफल रहता है तो वह उस लक्ष्य को छोड़कर दूसरा लक्ष्य अपना लेता है, जैसे यदि कोई नौजवान मानसिक सीमाओं के कारण डॉक्टर नहीं बन पाता तो अध्यापन को अपना लक्ष्य बना लेता है। हमारे समाज में ऐसे बहुत व्यक्ति हैं, जो स्थापन के द्वारा अपने आपको समाज में समायोजित कर रहे हैं।

(iv) पलायन- बाधाओं से परेशान होकर व्यक्ति कार्य को छोड़ देता है। बार-बार फेल होने पर छात्र पढ़ना छोड़ देते हैं।

2. अप्रत्यक्ष (Indirect) विधि-

इन विधियों के अन्तर्गत मनुष्य मानसिक द्वन्द्व, निराशा, असफलता से बचने के उपाय करते हैं। इन विधियों के अन्तर्गत ये उपाय प्रयोग में लाए जाते हैं-

(i) आत्मीकरण (Indentification)- आत्मीकरण द्वारा व्यक्ति अपना सम्बन्ध दूसरे व्यक्तियों से स्थापित करता है। व्यक्ति समाज तथा समुदाय एवं संस्थाओं के आदर्शों तथा मान्यताओं के अनुकूल स्वयं को ढालने का प्रयत्न करता है। आत्मीकरण के द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के विकास में प्रयत्न करता है।

(ii) औचित्य स्थापन (Rationalization)- अपनी असफलताओं का दोष दूसरों पर थोपकर अपनी बात के औचित्य की स्थापना करते हैं। परीक्षा में फेल हुआ छात्र परीक्षकों, कठिन प्रश्न-पत्र तथा अध्यापकों पर दोष मढ़ता है। औचित्य स्थापन दो प्रकार का होता है – (1) कोई व्यक्ति किसी कार्य में असफल होने पर उस कार्य में ही दोष निकालने लगता है। इसे खट्टे अंगूर (Sour grapes) भी कहते हैं। (2) दूसरे प्रकार के औचित्य स्थापन में व्यक्ति अरुचि कार्य में फँसकर जब उससे बाहर नहीं निकल पाता, तब वह उसे ही अच्छा बताने लगता है। इसे मीठे नींबू (Sweet lemon) कहते हैं।

(iii) क्षतिपूर्ति (Compensation) – व्यक्ति जीवन के एक क्षेत्र की कमी को जीवन के दूसरे क्षेत्र में पूरा करता है। शारीरिक दृष्टि से कमजोर व्यक्ति व्यायाम द्वारा हृष्ट-पुष्ट और बलशाली बन जाता है। क्षतिपूर्ति दो प्रकार से होती है- (1) प्रत्यक्ष रूप से तथा (2) अप्रत्यक्ष रूप से प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति जिस क्षेत्र में कमजोर होता है उसी में सफलता प्राप्त करता है और अप्रत्यक्ष में व्यक्ति दूसरे क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करता है।

(iv) प्रक्षेपण (Projection) – मानसिक चिन्ताओं से बचने के लिए व्यक्ति अपने कार्यों की असफलता को दूसरे व्यक्तियों की सफलता पर आरोपित करता है। जैसे एक खिलाड़ी जब खेल में हार जाता है तो दूसरे साथियों को हार के लिए दोषी ठहराता है। प्रक्षेपण से व्यक्ति चिन्तामुक्त हो जाता है।

(v) दमन (Repression)- अनेक कारणों से व्यक्ति अपनी बहुत-सी इच्छाओं को व्यक्त नहीं कर पाता है। इच्छाओं का दमन किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति करता है। दमन जान-बूझकर नहीं किया जाता है वरन् स्वयं होता है। कभी-कभी हमारे विचार अचेतन रूप में इतने गहरे पहुँच जाते हैं कि उनको फिर से याद करने के लिए मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

(vi) प्रत्यावर्तन (Regression)- जब व्यक्ति मानसिक कठिनाइयों से दुःखी हो जाता है तो वह अपने साधारण व्यवहार की ओर लौट जाता है, जैसे कि शोर से परेशान होकर वह जोर-जोर से रोने लगता है।

(vii) प्रतिक्रिया निर्माण (Reaction formation ) – तीव्र इच्छाओं और वृत्तियों का दमन कभी-कभी इनसे विपरीत प्रतिक्रियाओं के निर्माण में बदल जाता है, जैसे जिस व्यक्ति की काम सम्बन्धी इच्छाओं का दमन हो गया हो, वह चेतन रूप में कामुकता के विपरीत हो जाता है और बड़े-बड़े आदर्शों को लोगों के सामने रखता है।

(viii) पलायन (Withdrawal)- पलायन के द्वारा व्यक्ति अपने आपको मानसिक द्वन्द्व की परिस्थिति से बचा लेता है। वह उस समस्या को हल करने का प्रयत्न ही नहीं करता है। व्यक्ति की जब यह प्रक्रिया अधिक हो जाती है तो वह एकान्तप्रिय हो जाता है और उसमें प्रत्येक कार्य के प्रति विपरीत दृष्टिकोण बन जाता है।

(ix) मनतरंग (Phantasy)- यथार्थ जीवन की असफलताओं से परेशान होकर मनुष्य कल्पना का आश्रय लेता है। इस प्रकार वह दिवास्वप्न की स्थिति से स्वयं को मानसिक तनाव से बचाता है।

मानसिक अस्वस्थता की रोकथाम

मानसिक स्वास्थ्य पर अनेक कारणों का प्रभाव पड़ता है। इन कारणों में यदि सुधार किया जाए तो मानसिक स्वास्थ्य ठीक हो सकता है। ये कारण इस प्रकार हैं-

1. घर तथा परिवार-

बालकों के मानसिक स्वास्थ्य पर घर तथा परिवार के अन्य सदस्यों का प्रभाव पड़ता है। घर तथा परिवार बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में योग दे सकते हैं।

(i) अच्छी आदतों का निर्माण- माता-पिता तथा अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों में अच्छी आदतों का निर्माण करें। सत्य, आदर, समय पालन, कर्त्तव्य पालन के गुणों का विकास होने पर बालक मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है।

(ii) आवश्यकताओं की पूर्ति- बालकों की अपनी आवश्यकताएँ होती हैं। माता-पिता तथा अभिभावकों को उन आवश्यकताओं को समझना चाहिए तथा उनकी पूर्ति करनी चाहिए।

(iii) सद्व्यवहार – माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों से भेद-भावपूर्ण व्यवहार न करें। लड़के-लड़कियों में अन्तर न समझें। सहानुभूति तथा प्रेम रखें। बच्चों की आलोचना न करें।

2. विद्यालय का दायित्व-

घर के पश्चात् विद्यालय का दायित्व और भी अधिक बढ़ जाता है। विद्यालय की यह भूमिका मानसिक स्वास्थ्य का निर्माण करने में होनी चाहिए।

(i) विद्यालय का वातावरण- विद्यालय का वातावरण बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में बड़ा सहयोग दे सकता है। यह सहानुभूति, प्रेम, सद्भावना और सहयोग से ओत-प्रोत हो। बच्चों में पार्टीबाजी, जातीयता तथा ऊँच-नीच की भावना नहीं होनी चाहिए। प्रत्येक बालक अपने आपको सुरक्षित अनुभव करे तथा बच्चों में समूह भावना का विकास किया जाए।

(ii) सन्तोषप्रद अनुभव- विद्यालयों में बच्चों को सन्तोषप्रद अनुभव मिलने चाहिए, क्योंकि असन्तोष से मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। बच्चों को जो भी शिक्षा दी जाए, वह उनके जीवन से सम्बन्धित हो तथा उसका उनके जीवन में महत्व हो ।

(iii) व्यक्तिगत भेदों पर ध्यान- कक्षा के बच्चों में कई प्रकार के व्यक्तिगत भेद होते हैं। इन भेदों पर उचित ध्यान दिया जाना चाहिए। बच्चों की समस्याओं को हल करने के लिए निर्देश दिए जाएँ। पाठ्यक्रम के चुनने में सहायता की जाए।

(iv) स्वतन्त्रता- बच्चा विद्यालय को जेल न समझे, जहाँ पर उसे कुछ घण्टे के लिए प्रतिदिन बन्द कर दिया जाता है, बल्कि वह यहाँ आनन्द अनुभव करे तथा उचित स्वतन्त्रता दी जाए। बच्चों को स्कूल के कार्यों में हाथ बटाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। बच्चों को विद्यार्थी संघ, बालगोष्ठी, ड्रामा, लेख-पत्रिका आदि कार्यों में भाग लेने के लिए तथा विचारों को व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

(v) पुस्तकालय तथा वाचनालय – प्रत्येक विद्यालय में वाचनालय तथा पुस्तकालय का प्रबन्ध होना ही चाहिए। बच्चों को समय-समय पर पढ़ने तथा लिखने, सामाजिक समस्याओं के चिन्तन-मनन की आदत डालनी चाहिए।

(vi) खेल तथा मनोरंजन विद्यालयों में आयु के अनुसार प्रत्येक छात्र के लिए खेल तथा मनोरंजन की सुविधा होनी चाहिए। ऐसा करने से तनाव कम हो जाते हैं।

(vii) पाठ्यक्रम-पाठ्यक्रम का निर्माण बालकों की योग्यताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। बच्चों के व्यक्तिगत भेदों का ध्यान अवश्य रखा जाए।

(viii) अध्यापन शैली इस बात का प्रयत्न होना चाहिए कि पढ़ाते समय अध्यापक नवीन एवं रोचक शिक्षण विधियाँ अपनाएँ। इससे बालकों की रुचि विकसित होगी।

(ix) अध्यापक का व्यवहार- अध्यापक का व्यवहार छात्रों के प्रति भेद-भावपूर्ण नहीं होना चाहिए। सहानुभूति तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार छात्रों के मानसिक तनाव को दूर करता है।

(x) मूल्यांकन छात्रों के वर्ष भर के कार्य तथा प्रगति के आधार पर मूल्यांकन करना आधुनिक में गलत इससे बालक की क्षमता तथा योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। अत मूल्यांकन में सुधार आवश्यक है।

(xi) गृह-कार्य बच्चों को एक जैसा गृह-कार्य नहीं देना चाहिए। गृहकार्य उनकी के अनुसार दिया जाना चाहिए।

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About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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