शिक्षण के प्रत्यय की व्याख्या कीजिए। आधुनिक शिक्षण का प्रत्यय परम्परागत शिक्षण से किस प्रकार भिन्न है ?
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शिक्षण की अवधारणा या प्रत्यय (Concept of Teaching)
ईश्वर की समस्त कलाकृतियों में मानव ही सर्वश्रेष्ठ है। ईश्वर ने उसे अन्य जीवों से अधिक बुद्धि प्रदान की है। शिक्षा के माध्यम से वह अपनी बुद्धि का विकास करता है। संसार की समस्त वस्तुओं से वह कुछ-न-कुछ सीखा करता है। व्यापक अर्थ में यह सीखने की प्रक्रिया ही शिक्षण है या शिक्षण वह प्रक्रिया है जिससे कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति व्यक्ति समूह को कुछ बातों का ज्ञान प्रदान करता है और जिस ढंग से यह ‘शिक्षण’ प्राप्त किया जाता है, उसकी कला ‘संज्ञा’ है। प्रो० एच० एस० चटर्जी ने लिखा है, “कला का दृष्टिकोण व्यावहारिक उद्देश्य होता है।” दूसरे शब्दों में सम्पूर्ण आचरण ‘ज्ञान’ तथा ‘व्यवहार’ में विभाजित किया जा सकता है। ज्ञान को ‘विज्ञान’ तो व्यवहार को ‘कला’ कहा जाता है।
शिक्षा के क्षेत्र में ‘शिक्षण’ का एक ‘अर्थ विशेष’ होता है। वह अपनी अति व्यापक परिधि से मुक्त रहता है। प्रस्तुत ‘शिक्षण कला’ विद्यालयी सीमाओं में दी जाने वाली शिक्षा से अनुबद्ध है। अध्यापक जो कुछ भी कक्षा-शिक्षण में या व्यक्तिगत रूप में बालक के लिए सर्वतोन्मुखी विकास के लिए करता है वह सब ‘शिक्षण कला’ के अन्तर्गत आता है।
शिक्षण-कला में व्यावहारिक के साथ-साथ शास्त्रीय ज्ञान की भी नितांत आवश्यकता होती है। अन्य कलाओं की सामग्री प्रायः जड़ पदार्थ हैं किन्तु शिक्षण की सामग्री होती है। पाठ्यक्रम, जिसके अन्तर्गत सतत् विकास ज्ञान प्रस्फुटनशील सजीव बालक और प्रगतिशील शक्ति-गर्भा अनुभव भण्डार आदि आते हैं। जड़ पदार्थ की ओर से क्रियान्वित किया जावे तो उसकी ओर से कोई प्रक्रिया नहीं होती, इसलिए कलाकार निश्चिततापूर्वक उस पर अपनी कूची, कन्नी या रूखानी चला सकता है, किन्तु शिक्षक को अपनी योजना, विधि और सामग्री में तुरन्त परिवर्तन करना होगा, निश्चितता के स्थान पर उसे सतर्कता तथा सावधानी बरतनी पड़ेगी। उसे बालकों की प्रकृति, स्वभाव, रुचि, प्रतिक्रिया इत्यादि का अच्छा ज्ञान रखना होगा, साथ ही उसे उन पद्धतियों तथा उपायों की भी जानकारी आवश्यक होगी जिससे वह बालक की प्रतिक्रियाओं द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों का सामना कर सके।
शिक्षण की दृष्टि से सीखने की क्रिया को उत्प्रेरित करना, प्रोत्साहन देना तथा दिशा दिखाना शिक्षण कला की आत्मा का सार है। अध्यापन का अर्थ है बच्चे को स्वयं बातों को सीखने तथा करने में सहायता देना, क्योंकि शिक्षा का क्षेत्र अब केवल ज्ञान तक ही नहीं है, उसके अन्तर्गत बालक भी है। अब शिक्षा ज्ञान केन्द्रित न होकर बाल केन्द्रित हो गयी है। इस प्रकार अध्यापक एक साधन होता है जिसका कार्य यह है कि वह बच्चों को सिखायें, विकास में सहायता दें और बच्चे को अपने विषयों तथा वातावरण से स्वयं अपना सम्बन्ध स्थापित करने योग्य बना दे।
शिक्षण का अर्थ- शिक्षण के अर्थ को दो प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है प्रथम व्यापक अर्थ दूसरा संकुचित अर्थ व्यापक अर्थ के अनुसार शिक्षण का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें परिवार पड़ोसी मित्र इत्यादि व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा के बीच सिखाते हैं। संकुचित अर्थ के अनुसार शिक्षण का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा शिक्षक या जाति के अनुभवी सदस्य किसी शिक्षा संस्थान या अन्य संस्थान पर बालकों के पूर्व निश्चित विषय या जातीय अनुभवों को सिखाते हैं ताकि वे जीवन में अपना व्यवस्थापन करने में समर्थ हो। जेराड महोदय का कहना है कि, “शिक्षण से तात्पर्य उस प्रक्रिया या उस साधन से लिया जाता है जिसके द्वारा किसी वर्ग के वे सदस्य जो अनुभवी हों अपरिपक्व एवं शिशु सदस्यों को जीवन में अपना व्यवस्थापन करने में पथ-प्रदर्शन करते हैं।” शिक्षण की परिभाषाएँ निम्न हैं-
शिक्षण की परिभाषाएँ
शिक्षण को विद्वानों ने निम्नवत् परिभाषित किया है-
(1) मैन के अनुसार- “शिक्षण बताना नहीं बल्कि प्रशिक्षण है”।
(2) रायबर्न के अनुसार- “शिक्षण एक सम्बन्ध है जो बालक को अपनी समस्त शक्तियों का विकास करने में सहायता देता है।”
अब हम यहाँ शिक्षण के अर्थ पर विस्तारपूर्वक विचार करेंगे।
(1) शिक्षण का अर्थ बालक को क्रियाशील रहने का अवसर देना (Teaching is to provide opportunities activities) – प्रत्येक बच्चे के भीतर क्रियाशील होने की जन्मजात प्रवृत्ति निहित रहती है, जो विभिन्न मूल-प्रवृत्ति के रूप में प्रकट होती रहती है। शिक्षक को चाहिए कि वह बालकों की इस प्रवृत्ति को ऐसी दिशा प्रदान करे जिससे उसके व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास हो सके। बालकों के अध्ययन और सीखने की विधि तथा चिन्तन करने के उचित ढंग और सामग्री के मूल्यांकन करने की उचित पद्धतियों में अध्यापक को अपने बच्चों का सतर्क होकर पथप्रदर्शन करना होता है। इस प्रकार शिक्षण द्वारा अध्यापक बालकों की क्रियाशीलता को स्वाभाविक गति से विकसित होने का अवसर प्रदान करता है।
(2) शिक्षण का अर्थ उत्प्रेरणा प्राप्त करना है (Teaching is to secure motivation) – कोई कार्य तभी सफल होता है जब कर्त्ता के भीतर उस कार्य के प्रति उल्लास हो। सीखने के प्रति बालक में रुचि उत्पन्न कर देना ही उत्प्रेरणा है। यदि बालक को पढ़ने के लिए उचित उत्प्रेरणा नहीं मिलेगी, तो वह अपना पाठ अधूरा ही छोड़ देगा। इस प्रकार शिक्षण का कार्य अधूरा रह जायगा। यही कारण है कि इसका शिक्षण में महत्त्वपूर्ण स्थान है। निष्क्रियता और उदासीनता के वातावरण में बालक नवीन ज्ञान को प्राप्त करने में उत्सुक नहीं होता। एक विद्वान ने ठीक ही कहा है, “प्रेरणा या उत्साह शिक्षण में महत्त्वपूर्ण अंग है और जब तक हम शिक्षक के उत्प्रेरण अंग की ओर ध्यान नहीं देंगे तब तक शिक्षण के वास्तविक रूप को नहीं समझ सकते।”
पथ-प्रदर्शन के अभाव में बालकों के दिग्भ्रमित हो जाने की सदैव आशंका बनी रहती है। पथ-प्रदर्शन की सामान्यतः तीन विधियाँ हैं-
(अ) बालकों की विशिष्ट योग्यताओं का पता लगाकर उत्प्रेरणा द्वारा,
(ब) निर्देश तथा उदाहरणों द्वारा, तथा
(स) वाद-विवाद, व्यक्तिगत बातचीत तथा समस्याओं के उत्पन्न होने पर परामर्श देकर।
(3) शिक्षण का अर्थ बालक के संवेगों को प्रशिक्षित करना है ( Teaching means training of emotion of the child) – शिक्षण बालकों में उचित भावनाएँ उत्पन्न करने का एक साधन है। शिक्षण द्वारा हमारे संवेगों की उचित प्रशिक्षा होती है, स्थिर संवेगात्मक जीवन का विकास होता है। यह विकास शिक्षक को सहानुभूति, प्रेम, उचित कार्य, वैयक्तिक सम्पर्क तथा उचित पथ-प्रदर्शन द्वारा सुगमता से सम्भव होता है। जो बच्चे वहाँ आयें वे यह अनुभव करें कि वह पाठशाला में स्नेहमय और सहानुभूतिपूर्ण व्यक्तियों के मध्य में हैं।
(4) शिक्षण का अर्थ सीखना है (Teaching is causing to learn) – शिक्षण प्रक्रिया का एक मुख्य कार्य है बालक में उत्प्रेरणा उत्पन्न कर देना जो सीखने के लिए उसे उत्कंठित बना दे, उसमें ललक भर दे। अध्यापक की इसी क्रिया में सहायता करता है। शिक्षण का यह मौलिक सिद्धान्त सभी शिक्षा मनीषियों द्वारा स्वीकार किया गया है। श्री बर्टन महोदय ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, “शिक्षण सीखने में उत्तेजना, पथ-प्रदर्शन और प्रोत्साहन देता है।” शिक्षक द्वारा ऐसे वातावरण की सृष्टि होनी चाहिए जिसके मध्य बालक को अपने विषय के प्रति स्वाभाविक रुचि उत्पन्न हो जाये और सोत्साह उसे सीखने हेतु कर्मरत हो।
(5) शिक्षण का अर्थ सम्बन्ध स्थापित करना है (Teaching is establishing relationship) – ‘शिक्षा’ एक त्रिभुजी प्रक्रिया है। बालक, शिक्षक तथा विषय इस क्रिया के केन्द्र-बिन्दु हैं। शिक्षण के द्वारा इन तीनों के मध्य सम्बन्धों की स्थापना होती है।
इनको सम्बन्धित करते समय अध्यापक को कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है, जिनमें सर्वप्रथम है— बालक प्रकृति का ज्ञान क्योंकि उनमें विविध दृष्टियों से भिन्नता होती है। उनके स्वास्थ्य, शारीरिक शक्तियों, रुचियों, योग्यताओं, संवेगों, नैतिक स्वभाव, बुद्धि इत्यादि में पर्याप्त असमानता होती है। वही शिक्षक सफल हो सकता है जो बालकों की इन व्यक्तिगत भिन्नताओं तथा उनको व्यवहार में लाने की कला को समझता है।
दूसरी बात यह है कि शिक्षक में स्वयं समझने की क्षमता होनी चाहिए जिससे कि वह अपनी भावनाओं और बालकों के प्रति अपने व्यवहार तथा मनोवृत्ति को पूर्ण रूप से जान सके। विषय और विद्यार्थियों के बीच सम्बन्ध स्थापित करने की कला का उसे ज्ञान होना चाहिए। शिक्षण पद्धतियों के ज्ञान से अनभिज्ञ अध्यापक अन्ततः असफल होता है। उसका अपना एक जीवन-दर्शन भी होना चाहिए जिससे कि वह बालकों को प्रभावित कर सके।
आधुनिक शिक्षण एवं परम्परागत शिक्षण में भिन्नता (Difference between Modern Teaching and Traditional Teaching)
आधुनिक शिक्षण एवं परम्परागत शिक्षण में निम्नलिखित अन्तर हैं-
(1) आधुनिक शिक्षण में सहयोग, सुझाव व अध्यापकों को अधिक प्रोत्साहन दिया जाता है, जबकि परम्परागत शिक्षण में आलोचना का पुट अधिक होता है।
(2) आधुनिक पर्यवेक्षण मूल्यांकन केन्द्रित होता है, जबकि परम्परागत पर्यवेक्षण शिक्षक-केन्द्रित अधिक होता है।
(3) आधुनिक पर्यवेक्षण मौलिक, प्रभावशाली व रचनात्मक है, जबकि परम्परागत पर्यवेक्षण स्थित व प्रभावशून्य है।
(4) आधुनिक पर्यवेक्षण सुव्यवस्थित, निश्चित एवं योजनारूप होता है, जबकि परम्परागत पर्यवेक्षण अव्यवस्थित, अनिश्चित व योजनारहित होता है।
(5) आधुनिक शिक्षण प्रशासन के अलावा समुदाय से भी सम्बन्धित है किन्तु परम्परागत शिक्षण केवल प्रशासन से ही सम्बन्धित है।
(6) आधुनिक शिक्षण पर्यवेक्षक, अध्यापक एवं विद्यार्थियों के प्रभावों से युक्त होता है, जबकि परम्परागत शिक्षण केवल निरीक्षक द्वारा निर्देशित होता है।
(7) आधुनिक शिक्षण अध्ययन एवं विश्लेषण सेवा पर आधारित है जबकि परम्परागत शिक्षण केवल निरीक्षण पर आधारित है।
(8) आधुनिक शिक्षण समस्याओं के निराकरण हेतु सदैव जागरूक रहता है, जबकि परम्परागत शिक्षण के अन्तर्गत समस्याओं की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता।
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