शिक्षा के साधन के रूप में गृह की भूमिका का वर्णन कीजिए। अथवा एक बालक को शिक्षित करने में शिक्षा के किस अभिकरण की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका है ? उचित उदाहरणों सहित वर्णन कीजिए।
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शिक्षा के साधन के रूप में गृह अथवा परिवार (Home or Family as an Agency of Education)
शिक्षा के अनौपचारिक साधनों में परिवार अथवा गृह का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में परिवार समाज का लघु रूप है। परिवार सामाजिक व्यवस्था का आधार है। व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। बालक आरम्भ से ही परिवार की सहायता प्राप्त करने हेतु बाध्य होता है। मानव के विकास की समस्त अवस्थाओं में शैशवावस्था का विशेष महत्त्व है। यह अवस्था सीखने का आदर्श काल है और परिवार इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। समाजशास्त्री यंग और मैक ने लिखा है, “परिवार सबसे पुराना और मौलिक मानव समूह है। पारिवारिक ढाँचे का विशिष्ट स्वरूप एक समाज से दूसरे समाज में भिन्न हो सकता है और होता है, परन्तु सब जगह परिवार के मुख्य कार्य हैं- बच्चे का पालन-पोषण करना और उसे समाज की संस्कृति से परिचित कराना, सारांश में उसका समाजीकरण करना।” परिवार शिक्षा का प्रभावशाली साधन है। बालक की शिक्षा में परिवार किस प्रकार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, इस प्रश्न पर विचार करने के लिए परिवार के अर्थ, परिभाषा, महत्त्व तथा शैक्षिक कर्त्तव्यों की विवेचना करना अत्यन्त आवश्यक है।
परिवार का अर्थ (Meaning of Family)
परिवार वह संस्था है जिसमें बालक का जन्म होता है, विकास होता है और उसी में उसका अन्त होता है। यंग एवं मैक के अनुसार- “परिवार प्राचीनतम एवं मौलिक मानव-समूह है। इसका ढाँचा समाज विशेष में भिन्न हो सकता है, परन्तु केन्द्रीय कार्य जैसे-बच्चे का पालन करना, समाज की संस्कृति से परिचित कराना, सारांश रूप में उसका समाजीकरण करना परिवार के सामान्य कार्य हैं।” परिवार की रचना पति-पत्नी और बच्चों से होती है। इसके स्वरूप भिन्न-भिन्न समाजों में अलग-अलग हैं, परन्तु वे सभी रूप अपने सदस्यों को सामान्य घरेलू शिक्षा देते हैं और उनके गुण विकास में सहायता देते हैं।
परिवार की परिभाषा (Definition of Family)
परिवार शिक्षा का अनौपचारिक साधन है और इतना होते हुए भी इसका महत्व अपने में अत्यधिक है। रेमण्ट के अनुसार- “दो बच्चे भले ही एक विद्यालय में पढ़ते हों, समान रूप से शिक्षकों से प्रभावित होते हों, समान अध्ययन करते हों, फिर भी वे अपने सामान्य ज्ञान, रुचियों, व्यवहार और नैतिकता में अपने घरों के कारण, जहाँ से वे आते हैं, पूर्णतया भिन्न होते हैं।”
(1) मैकाइवर एवं पेज- “परिवार वह समूह है जिसमें स्त्री-पुरुष के यौन सम्बन्ध पर्याप्त निश्चित होते हैं और इनका साथ इतनी देर तक रहे जिसमें संतान उत्पन्न हो एवं उसका पालन-पोषण हों।”
(2) क्लेयर- परिवार से हमारा तात्पर्य माता-पिता और बच्चों के सम्बन्धों की व्यवस्था से है।
(3) डाकरमैन- परिवार वह समूह है जिसमें पुरुष गृह-पति होता है, उसकी स्त्री या स्त्रियों और उसके बच्चों को मिलाकर बनता है और इसमें कभी-कभी एक या अधिक अविवाहित पुरुष भी होते हैं।
(4) पेस्टालॉजी- रूसो के विचारों से विपरीत पेस्टालॉजी शिक्षा के अनौपचारिक साधन के रूप में शिक्षा को महत्व देता है। उसके अनुसार घर शिक्षा का सर्वोत्म साधन है और बालक का प्रथम विद्यालय है।
(5) फ्रोबेल- फ्रोबेल पर भी पेस्टालॉजी का प्रभाव था। उसने बालक की शिक्षा में माता का महत्त्व बताते हुए कहा है- मातायें आदर्श अध्यापिकायें हैं और घर द्वारा दी जाने वाली अनौपचारिक शिक्षा सबसे प्रभावशाली और स्वाभाविक है।
शिक्षा के साधन के रूप में गृह अथवा परिवार की भूमिका (Role of Home or Family as an Agency of Education)
शैक्षिक दृष्टि से हम परिवार के कार्यों अथवा भूमिका को निम्नलिखित भागों में विभक्त कर सकते हैं –
(I) बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना (Harmonious Development of Child’s Personality) –
परिवार से हमारी यह अपेक्षा है कि वह बालक के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण, समग्र या सन्तुलित विकास करे। व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करने का अभिप्राय यह है कि बालक के व्यक्तित्व के सभी पक्षों का पारिवारिक परिवेश में विकास किया जाना चाहिए। व्यक्तित्व के विभिन्न पक्ष निम्नलिखित हैं-
(1) बालक का मानसिक विकास (Mental Development of the Child) – पारिवारिक वातावरण का यह दायित्व है कि वह बालक की मानसिक शक्तियों, यथा—चिन्तन, तर्क, स्मृति, निर्णय, कल्पना, विभेदीकरण आदि का विकास करे। माँ-बाप का यह उत्तरदायित्व भी है कि वह इनके विकास हेतु बालक को उचित अवसर प्रदान करे। जैसे बालक के मानसिक विकास पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से परिवार का प्रभाव पड़ता ही है। मनोवैज्ञानिक शोधों से यह स्पष्ट हो चुका है कि बुद्धि पर वंशानुक्रम का प्रभाव पड़ता है। अतः जो माँ-बाप बौद्धिक दृष्टि से स्वयं भी परिपक्व हैं, वह यदि बालक को अच्छा वातावरण प्रदान करें तो बालक स्वतः ही बौद्धिक दृष्टि से परिपक्व होगा। इसके साथ ही प्रारम्भ से ही यदि परिवार का वातावरण मानसिक विकास पर बल देता है एवं बालक को खेलने के समय भी मानसिक व्यायाम कराया जाये तो बालक मानसिक दृष्टि से पूर्णरूपेण विकसित होगा।
(2) बालक का शारीरिक विकास (Physical Development of the Child) – बालक को शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ रखना परिवार का प्राथमिक कार्य है। हमें सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास है। (Healthy mind is in healthy body) । माता-पिता का यह दायित्व है कि वह बालक को शारीरिक व्यायाम, शारीरिक स्वच्छता व सफाई आदि के प्रति जागरूक करे। इसके साथ ही साथ पारिवारिक वातावरण में वातावरण की स्वच्छता के सम्बन्ध में भी बालक को प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। बालक के शारीरिक विकास की दृष्टि से यह भी आवश्यक है कि परिवार में बालक को सन्तुलित आहार व पोषक तत्त्वों के सम्बन्ध में जागरूक रखा जाये। यदि पारिवारिक वातावरण बालक के विकास हेतु इन सभी बातों पर ध्यान दे तो परिवार में विकसित होने वाला बालक निःसन्देह ही शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ होगा।
(3) बालक का व्यावसायिक विकास (Vocational Development of the Child ) – जब व्यवसाय का निर्धारण जन्म के आधार पर होता था, तब परिवार का ही यह उत्तरदायित्व था कि वह बालक को किसी भी व्यवसाय हेतु प्रशिक्षित करे परन्तु आज व्यवसाय चयन हेतु बालक स्वतन्त्र है। इस कारण परिवार का यह उत्तरदायित्व हो जाता है कि वह बालक के अन्दर श्रम या परिश्रम के प्रति आस्था उत्पन्न करे, साथ ही उसके दृष्टिकोण को व्यावहारिक बनाये। यह दोनों ही बातें बालक के अन्दर उचित व्यावसायिक दृष्टिकोण करने में सहयोग देंगी।
(4) बालक का सामाजिक विकास (Social Development of the Child) – परिवार एक लघु समाज है अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि बालक का जिस सामाजिक परिवेश में सर्वप्रथम साक्षात्कार होता है, वह है उसका परिवार परिवार की यह जिम्मेदारी है कि वह बालक के अन्दर वांछनीय सामाजिक गुणों को विकसित करे एवं उसका समाज के साथ तादात्म्य या अनुकूलन करे या दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि परिवार ही बालक के समाजीकरण की प्रथम संस्था है।
(5) बालक का संवेगात्मक विकास (Emotional Development of the Child) – पारिवारिक वातावरण का बालक के संवेगों पर भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। परिवार का भौतिक वातावरण यदि बालक को सौन्दर्य की अनुभूति कराता है अर्थात् वातावरण स्वच्छ व कलात्मक है तो बालक में उचित संवेगों का विकास सम्भव है इसके साथ ही यदि परिवार का संवेगात्मक वातावरण प्रेम, त्याग आदि गुणों से परिपूर्ण है, माँ-बाप के मध्य तथा माँ-बाप और बच्चों के मध्य यदि सम्बन्ध अच्छे हैं तो इसका भी सकारात्मक प्रभाव बालक पर पड़ता है इसके विपरीत यदि परिवार के वातावरण से बालक को सौन्दर्यानुभूति का अनुभव न हो एवं वातावरण तनावमय हो तो बालक के अन्दर नकारात्मक संवेग, यथा तनाव, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, भय इत्यादि का विकास होगा।
(6) भाषा का विकास (Development of Language) – बालक जिस भाषा को सर्वप्रथम सीखता है एवं अपने विचारों का आदान-प्रदान करता है, वह उसकी वह भाषा होती है जो उसके परिवार में बोली जाती है या जिसे हम उसकी मातृ-भाषा भी कहते हैं। इसके साथ ही बालक का बातचीत करने या अभिव्यक्ति का तरीका भी स्वतः रूप में ही उस परिवार पर आधारित होता है जिसमें वह विकसित होता है। अतः परिवार का यह उत्तरदायित्व हो जाता है कि वह बालक को बोलचाल के उचित तरीके सिखाये एवं उसे संयत भाषा का प्रयोग करने का प्रशिक्षण दे।
(7) बालक का नैतिक व चारित्रिक विकास (Moral and Character Development of Child)- प्रत्येक परिवार के अपने कुछ आदर्श या मूल्य होते हैं एवं परिवार के बड़े सदस्य अपने छोटे सदस्यों से यह अपेक्षा करते हैं कि वह उन आदर्शों का अनुपालन करें। परिवार द्वारा स्थापित यह आदर्श या मूल्य नैतिकता पर आधारित होते हैं जो बालक को शनैः शनैः इस बात का भी ज्ञान कराते जाते हैं कि उसके लिए क्या अच्छा है एवं क्या बुरा ? साथ ही उसे सदैव इस बात के लिए अनुप्रेरित किया जाता है कि वह अच्छे मार्ग पर चले। परिवार में रहते हुए बालक यदि कोई गलत कार्य भी करता है तो उसे दण्डित किया जाता है। पारिवारिक दण्ड की यह प्रक्रिया बालक को गलत कार्य करने से रोकती है। अतः हम यह कह सकते हैं कि परिवार में बालक के अच्छे आचरण की नींव रखी जाती है उसे प्रारम्भ से ही सही व गलत का ज्ञान दिया जाता है जिससे वह भविष्य में भी सही मार्ग की ओर उन्मुख होता है।
(8) बालक का आध्यात्मिक विकास (Spiritual Development of the Child) – प्रत्येक परिवार का अपना एक धर्म होता है और बालक उस धर्म के सिद्धान्तों को प्रारम्भ से ही पारिवारिक वातावरण में रहकर अपने व्यवहार में ढालता है। भारत जैसे धर्म निरपेक्ष राज्य में सिर्फ परिवार ही वह संस्था है जो बालक को धर्म व आध्यात्मिकता की शिक्षा देती है। वास्तव में देखा जाये तो धर्म के नियम बालक को सही रास्ते का पालन करने को प्रेरित करते हैं और धर्म में व्यक्ति किसी भी ईश्वर की उपासना करे। वह ईश्वर को एक सत्ता के रूप में देखता है और उसके भय से गलत कार्य करने से डरता है।
(II) संस्कृति का स्थानान्तरण (Transmission of Culture)-
परिवार वह वातावरण है जहाँ बालक पारिवारिक संस्कृति को स्वतः ही अनुपालित करता है। प्रत्येक परिवार का यह दायित्व है यह अपने वातावरण में वृहत् समाज की संस्कृति को सन्निहित करें एवं उसी संस्कृति का हस्तान्तरण अपने बालकों को करे। परिवार की भी अपनी कोई-न-कोई संस्कृति होती है परन्तु परिवार के सदस्यों को इस बात पर विशेष रूप से ध्यान देना होगा कि समाज की संस्कृति एवं उनकी संस्कृति में कोई टकराव की स्थिति उत्पन्न न होने पाये।
(III) देश-भक्ति की भावना का विकास (Development of a Sense of Patriotism)
जिस देश के हम नागरिक हैं, उस देश के प्रति आस्था, प्रेम व वफादारी की भावना का विकास भी पारिवारिक वातावरण द्वारा किया जाना चाहिए। माँ-बाप के लिए यह आवश्यक है। कि वह स्वयं भी देश-प्रेम का भाव अपने अन्दर रखें एवं विभिन्न उत्सवों, कहानियों, पुस्तकों इत्यादि के माध्यम से यह भाव अपने बच्चों के अन्दर भी जाग्रत करें।
(IV) उचित आदतों एवं रुचियों का विकास (Development of Proper Habits and Interests)
माँ-बाप को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि वह अपने बालकों के अन्दर उचित आदतों एवं रुचियों को उत्पन्न करें। हमें इस बात को सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि बालक की आदतें एवं रुचियाँ ही उसके व्यवहार के प्रारूप को निर्धारित करती हैं यदि प्रारम्भ से ही उसमें अच्छी आदतें एवं रुचियाँ विकसित की जायेंगी तो उसका व्यवहार भी अच्छा होगा एवं यदि उसकी आदतें एवं रुचियाँ खराब होंगी तो उसका व्यवहार भी खराब होगा।
(V) बालक की वैयक्तिकता का विकास (Development of the Individuality of the Child)
पारिवारिक वातावरण में प्रत्येक बालक के एक निजी व्यक्तित्व का विकास होना भी आवश्यक है यदि बालक अपने बारे में कोई दृष्टिकोण नहीं बनायेगा तो उसका कोई निजी व्यक्तित्व भी नहीं होगा एवं वह बहुत ही शीघ्रता से स्वयं को दूसरों की विचारधारा के अनुकूल ढाल देगा। इस कारण यह जरूरी है कि बालक अपने व्यक्तित्व का तार्किक विश्लेषण कर सके एवं अपने एक निजी व्यक्तित्व का निर्माण कर सके।
हम निःसन्देह यह कह सकते हैं कि यदि परिवार अपने इन दायित्वों का निर्वाह करे तो बालकों के गलत दिशा की ओर उन्मुख होने की सम्भावना ही न रहे, परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि वर्तमान में भारतीय परिवार इन आदर्शों से कोसों दूर है एवं वहाँ जो वातावरण विद्यमान है, वह बालकों के विकास की दृष्टि से श्रेयस्कर नहीं। अतः हमारे लिए यह जानना भी जरूरी है कि वर्तमान में भारतीय परिवारों की क्या स्थिति है एवं इस स्थिति को कैसे सुधारा जा सकता है। भारतीय परिवारों की स्थिति के सम्बन्ध में प्रो० के० जी० सैय्यदन का विचार सही है, “आज के परिवार में सही एवं गलत सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पा रहे हैं तथा माता-पिता व अन्य के मध्य सहयोग भावना नहीं है जिससे माता-पिता एवं बालकों के मध्य अन्तराल बढ़ता जा रहा है जिसका भयंकर परिणाम यह हो रहा है कि भारतीय विद्यालय वह कर सकने में असमर्थ हैं जिनकी उनसे अपेक्षा है।”
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