बाल कल्याण एंव स्वास्थय / Child Care & Health

शिशु मृत्यु क्या है ? शिशु मृत्यु के कारण तथा इसको प्रभावित करने वाले कारक

शिशु मृत्यु क्या है ? शिशु मृत्यु के कारण तथा  इसको प्रभावित करने वाले कारक
शिशु मृत्यु क्या है ? शिशु मृत्यु के कारण तथा इसको प्रभावित करने वाले कारक

शिशु मृत्यु क्या है ? शिशु मृत्यु के कारण तथा शिशु मृत्यु को प्रभावित करने वाले कारकों पर प्रकाश डालिए। जन्मे शिशु की देखभाल तथा रोगों से बचाव किस प्रकार करेंगे ?

शिशु मृत्यु (Childhood Mortality)

शिशु का अर्थ अंग्रेजी में Child से है, परन्तु सामाजिक चिकित्सा में बाल्यावस्था को तीन भागों में विभाजित किया गया है-

  1. एक माह की उम्र के बच्चे (Neonates),
  2. एक वर्ष तक की आयु के बच्चे (Infants),
  3. पाँच वर्ष तक की आयु के बच्चे (Under 5)

हमारे देश में होने वाली मृत्युओं में 20% एक वर्ष से कम उम्र (Infant Mortality) के बच्चे होते हैं। इनमें से

लगभग आधी मौतें जन्म के पहले माह में होती हैं तथा इनमें से लगभग आधे जन्म के पहले सप्ताह में ही मर जाते हैं। भारत में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की बाल मृत्यु दर (हर उम्र में) अधिक है।

शिशु मृत्यु के कारण (Causes of Childhood Mortality) 

वैसे तो भारत में शिशु मृत्यु के कई कारण हैं, मगर उम्र के अनुसार कुछ विशेष कारण हैं, जिनसे शिशु मृत्यु होने की सम्भावनायें अधिक रहती हैं, जैसे-

  1. जन्म के समय चोट (Birth Trauma),
  2. टिटनेस (Neonatal Tetanus),
  3. समय पूर्व जन्म (Pre term Mortality),
  4. दस्त (Diarrhoea),
  5. जन्मजात विकृति (Congenital Anomalies),
  6. निमोनिया (Acute Respiratory Infection),
  7. नाल में संक्रमण (Cord Infection) |

 सारणी 2: विश्व में बाल मृत्यु (Infant Mortality) दर (1990)

देश मृत्यु प्रति 1,000 जीवित जन्म
भारत
  • 129 (1970)
  • 114 (1980)
  • 80 (1990)
फ्रांस 7
अमेरिका 8
इंग्लैण्ड 7
जापान 5
न्यूजीलैण्ड 8
स्वीडन 5

उत्तर प्रदेश में बच्चों की स्थिति-

(i) यहाँ की जन्म दर सभी प्रदेशों में सर्वाधिक है।

(ii) हर 8 में से एक बच्चा 5 वर्ष की आयु पूरी करने से पहले मर जाता है।

(iii) होने वाली कुल मौतों का 20% बच्चे 1 वर्ष से छोटी आयु के होते हैं।

(iv) प्रतिदिन लगभग 1900 बच्चे मौत का शिकार होते हैं।

(v) लगभग 10% बच्चे गम्भीर कुपोषण का शिकार हैं।

(vi) हर हजार जन्मे बच्चों में से 23 बच्चे एक माह के अन्दर मर जाते हैं।

(vii) एक समय में 5 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों में से लगभग 30 प्रतिशत दस्त (Diarrhoea) तथा 25 प्रतिशत निमोनिया (Pneumonia) का शिकार रहते हैं।

(viii) मरने वाले बच्चों में से 20% दस्त रोग से मरते हैं, जिसमें से अधिकांश को आसानी से बचाया जा सकता

(ix) हर 10 में से एक बच्चा 1 वर्ष की आयु पूरी करने से पहले मर जाता है। (x) आधे से भी कम बच्चों को रोग प्रतिरोधक टीके पहले वर्ष में लग पाते हैं।

1-11 माह के बच्चों की मृत्यु के कारण (Causes of Infant Mortality)

  1. निमोनिया (Acute Respiratory Infection),
  2. जन्मजात विकृति (Congenital Anamolies),
  3. दस्त (Diarrhoea),
  4. दुर्घटनायें (Accidents),
  5. कुपोषण (Malnutrition) |
  6. अन्य जैसे डिप्थीरिया, काली खाँसी, इन्फ्लूएन्जा आदि ।

शिशु मृत्यु के कारक (Factors Affecting Infant Mortality)

शिशु मृत्यु को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं, जिन्हें मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. जैविक कारक (Biological Factors) – कुछ मुख्य जैविक कारक निम्नलिखित हैं-

(i) माँ की उम्र (Age of Mother) – अगर माँ की उम्र 20 वर्ष से कम हो तो शिशु मृत्यु की सम्भावना बढ़ जाती है, क्योंकि तब तक उसका शरीर गर्भधारण के लिए पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता है या फिर आयु बहुत अधिक हो।

(ii) दो बच्चों के बीच अन्तराल (Spacing between Two Children)- यह अन्तराल जितना कम होगा शिशु मृत्यु का खतरा उतना ही अधिक होगा।

(iii) जन्म के समय कम वजन (Low Birth Weight) – जिन बच्चों का वजन जन्म के समय 2-5 किलोग्राम से कम होता है, उनकी मृत्यु की सम्भावनायें अधिक हो जाती हैं।

(iv) जन्म का क्रमांक (Order of Birth)- यह पाया गया है कि अगर शिशु क्रमानुसार पहला है तो उसकी मृत्यु की सम्भावनायें सबसे अधिक होती हैं तथा दूसरा होने पर सबसे कम। इसके साथ-साथ शिशु का जन्म क्रमांक जितना ऊपर होता है, उसकी मृत्यु की सम्भावनायें उतनी ही अधिक होती हैं।

2. सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक (Social and Cultural Factors)- कई ऐसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारण हैं जिनसे शिशु मृत्यु दर में वृद्धि होती है। इनमें से कुछ हैं-

  1. शिशु स्वास्थ्य सम्बन्धी अज्ञानता एवं अशिक्षा
  2. प्रशिक्षित प्रसव कराने वाले व्यक्तियों का अभाव।
  3. स्तनपान न कराना।
  4. गन्दगी भरा वातावरण ।
  5. लिंग-भेद (Sex Discrimination)।

3. आर्थिक कारक (Economic Reasons) – जिन परिवारों का आर्थिक स्तर निम्न होता है, वे साधारणतः अपने शिशुओं की पूरी देखभाल नहीं कर पाते। उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधायें, समय पर नहीं मिल पाती और कुछ अन्य कारण जैसे कुपोषण आदि के कारण शिशु मृत्यु दर अधिक होती है।

जन्मे बच्चे की देखभाल (Care of New Born) – तुरन्त जन्मे बच्चे को अत्यधिक सावधानी एवं देखभाल की आवश्यकता होती है। जैसे ही बच्चा जन्मे, तुरन्त ही उसका सिर एवं चेहरा, आँखें आदि साफ कपड़े से पोंछना चाहिये। इसके तुरन्त बाद यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि बच्चा रो रहा है तथा उसकी आवाज साफ है अर्थात् बच्चे के गले में कुछ अटका नहीं है, नहीं तो उसे प्रशिक्षित व्यक्ति की तुरन्त आवश्यकता पड़ सकती है। इसके बाद यह जाँच लेना आवश्यक है कि बच्चे में कोई जन्मजात विकृति तो नहीं है। इसके साथ ही नाल को सावधानी से काटकर साफ धागे से बाँध देना चाहिये।

कम वजन के बच्चे (Low Birth Weight Babies)- जन्म के समय बच्चे का औसतन वजन 2.75-3 किग्रा० तक होना चाहिये। यदि बच्चे का वजन 2.5 किमा० से कम है तो उसे कम वजन का आँका जायेगा। ऐसी स्थिति में, जरूरी है कि बच्चे के शरीर की गर्मी को बनाये रखा जाये। उसे नहलाया न जाये तथा कई कपड़े या फिर साफ रुई में लपेट कर जितना ज्यादा हो सके, माँ के समीप रखना चाहिये। माँ को चाहिये कि वह तुरन्त अपना दूध पिलाना शुरू कर दे। बच्चे को कम से कम लोगों को छूना चाहिये तथा उसे अन्य सभी प्रकार के संक्रमणों से बचाना चाहिये। यदि बच्चे का वजन 2 कि० प्रा० से भी कम है तो उपरोक्त उपायों के साथ-साथ जितनी जल्दी सम्भव हो, उसे चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध करानी चाहिये ।

शिशु टीकाकरण-एक वर्ष से कम उम्र के बच्चों में कई बीमारियों के पनपने का खतरा बना रहता है। इनमें से अधिकांश जैसे पोलियो, गलघोंटू, टिटनेस आदि का इलाज सम्भव नहीं है, परन्तु इन बीमारियों से बच्चों को पूरी तरह बचाया जा सकता है। अब ऐसे टीके उपलब्ध हैं, जिनके लगवाने से कई जानलेवा बीमारियों (डिप्थीरिया, काली खाँसी, टिटनेस, गलघोंटू, तपैदिक, पोलियो तथा खसरा) से बच्चों को पूरी तरह बचाया जा सकता है। आवश्यकता है कि सही समय पर ये टीके बच्चों को लगवाये जायें। एक वर्ष तक की आयु में लगने वाले सभी टीकों का विवरण निम्न तालिका में प्रस्तुत हैं-

उम्र टीके का नाम बीमारी से बचाव
जन्म के समय बी० सी० जी० (BCG) तपैदिक (T.B.)
डी० पी० टी० (पहली खुराक) (DPT I) डिप्थीरिया
डी० पी० टी० (दूसरी खुराक) (DPT II) पोलियो
डी० पी० टी० (तीसरी खुराक) (DPT III) टिटनेस
9 माह मीजल्स (Measles) खसरा
9 माह विटामिन ए की खुराक रतौंधी

कुछ ऐसी अवधारणायें विशेषकर ग्रामीण इलाकों में प्रचलित हैं कि इन टीकों से बच्चों को कोई नुकसान हो जाता है। जैसे बी० सी० जी० का टीका पक जाता है, डी० पी० टी० की पहली खुराक के बाद बुखार आता है। हालांकि ये दोनों तथ्य सही हैं, मगर इनके अपेक्षा बच्चे को इन टीकों से जानलेवा बीमारियों से बचाव मिलता है, जो कि नितान्त आवश्यक है।

इसके अतिरिक्त छोटी आयु के बच्चों में दो अन्य बीमारियाँ बहुतायत में होती हैं तथा जिनसे कई बच्चों की मृत्यु हो जाती है। इनसे बचने के कोई टीके तो उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु कुछ सावधानियाँ बरत कर इससे होने वाले गम्भीर परिणामों से अवश्य बचा जा सकता है-

(1) निमोनिया (Acute Respiratory Infection) – बच्चों को मौसम बदलने के साथ-साथ अक्सर खाँसी-जुकाम की तकलीफ हो जाती है और इसे गम्भीरता से न लिया जाये तो यह निमोनिया में बदल जाती है और बच्चे के लिए जानलेवा भी हो सकती है। साधारण भाषा में इसे पसली चलना भी कहा जाता है और आमतौर पर मातायें अथवा कुछेक प्रौढ़ महिलाएं बच्चे की इस दशा को आसानी से पहचान लेती हैं। ऐसी स्थिति में बच्चे को शीघ्र ही डॉक्टर को दिखाना चाहिए और घरेलू उपचार में समय नष्ट नहीं करना चाहिए।

(2) दस्त (Diarrhoea) – दस्त छोटे बच्चों में होने वाली एक आम समस्या है, तथा एक आंकलन के अनुसार भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के हर बच्चे को हर वर्ष औसतन 4-5 बार दस्त रोग का शिकार होना पड़ता है। दस्त होने से शरीर में पानी की कमी हो जाती है, जिसके कारण बच्चे की मृत्यु हो सकती है।

दस्त रोग का साधारणतः घर पर इलाज सम्भव है। बच्चे को जितना हो सके पानी तथा तरल पदार्थ पिलायें। घर में उपलब्ध पेय पदार्थ की पद्धति की आज विश्व भर में दस्त के उपचार के लिये मान्यता प्राप्त है। इसमें दाल, पतली खिचड़ी, चावल का पानी, दही, छाछ, नींबू की शिकंजी आदि दिये जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त दस्त के दौरान होने वाले लवणों (Salts and Minerals) की कमी को पूरा करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर आधारित पुनजलीकरण घोल (Oral Rehydration Salts), जिसे ओ० आर० एस० कहा जाता है, हर जगह उपलब्ध है। ओ० आर० एस० का घोल पैकेट पर बताई गई विधि के अनुसार बनाकर बच्चे को हर दस्त के बाद पिलायें। इसके बाद भी यदि दस्त नियंत्रित न हों और निम्न लक्षण दिखाई दें तो बच्चे को तुरन्त डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।

तीव्र निर्जलीकरण के लक्षण (Signs of Severe Dehydration)

  1. रोने पर आँसू नहीं निकलते हैं।
  2. बच्चा दस्त के साथ-साथ उल्टी भी कर रहा हो।
  3. बच्चा बिल्कुल निढाल हो जाता है।
  4. दस्त में खून भी आ रहा हो।
  5. पेट की त्वचा पर च्यूंटी काटने पर त्वचा बहुत धीरे-धीरे वापस जाती है।

(3) कुपोषण (Malnutrition) –पाँच वर्ष की आयु तक के बच्चों के विकास पर पूरा ध्यान दिया जाना अत्यन्त आवश्यक है। यदि बच्चे का वजन अचानक ही कम होना शुरू हो जाये अथवा विकास में कमी नजर आये तो यह चिन्ताजनक स्थिति है। ऐसी स्थिति में बच्चा कुपोषण का शिकार हो सकता है। पोषण वाले भोज्य पदार्थों का सेवन न करने के कारण बच्चे की प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है, जिससे बच्चा छोटी-छोटी बीमारियों से आये दिन बीमार रहने लगता है। ऐसे में बच्चे को पौष्टिक आहार जिसमें फल, दूध, हरी सब्जियाँ आदि पर्याप्त मात्रा में निरन्तर खिलायें, जिससे कुपोषण की स्थिति से बच्चे को उबारा जा सके। इसके साथ-साथ खून की कमी (Anaemia) को दूर करने के लिए आयरन की गोलियों का भी सेवन कराना चाहिए और विटामिन ‘ए’ की खुराक भी पिलवानी चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि बच्चे को सभी प्रतिरोधक टीके लग चुके हों।

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Anjali Yadav

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