शैशवावस्था की संवेगात्मक तथा सामाजिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
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शैशवावस्था की संवेगात्मक विशेषतायें (Emotional Characteristics of Infancy)
अथवा
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास (Emotional Development in Infancy)
शैशवावस्था की संवेगात्मक विशेषतायें निम्न प्रकार हैं-
1. शिशु अपने जन्म के समय से ही संवेगात्मक व्यवहार की अभिव्यक्ति करता है, उसका रोना, चिल्लाना और हाथ-पैर पटकना इस बात का प्रमाण है।
2. शिशु के संवेगात्मक व्यवहार में अत्यधिक अस्थिरता होती है। उसका संवेग कुछ ही समय के लिये रहता है और फिर सहसा समाप्त हो जाता है, उदाहरणार्थ-रोता हुआ शिशु, खिलौना पाकर तुरन्त रोना बन्द करके हँसना आरम्भ कर देता है। जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसके संवेगात्मक व्यवहार में स्थिरता आती जाती है 1
3. शिशु के संवेगों में आरम्भ में अत्यधिक तीव्रता होती है। धीरे-धीरे इस तीव्रता में कमी होती चली जाती है, उदाहरणार्थ-2 या 3 माह का शिशु भूख लगने पर तब तक रोता है, जब तक उसको दूध नहीं मिल जाता है। 4 या 5 वर्ष का शिशु इस प्रकार का व्यवहार नहीं करता है।
4. शिशु के संवेगात्मक विकास में क्रमशः परिवर्तन होता चला जाता है, उदाहरणार्थ-शिशु आरम्भ में प्रसन्न होने पर मुस्कराता है। कुछ समय के बाद वह अपनी प्रसन्नता को हँसकर, विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न करके या वोलकर व्यक्त करता है।
5. शिशु के संवेगों में पहले अस्पष्टता होती है, पर धीरे-धीरे उसमें स्पष्टता आती जाती है, उदाहरणार्थ-जन्म के बाद प्रथम 3 सप्ताहों में उसकी चिल्लाहट से उसका संवेग स्पष्ट नहीं होता है। गेसेल (Gesell) ने अपने परीक्षणों के आधार पर बताया है कि 5 सप्ताह के शिशु की भूख, क्रोध और कष्ट की चिल्लाहटों में अन्तर हो जाता है और उसकी माँ उनका अर्थ समझने लगती है।
6. जस्टिन (Justin) के अनुसार- “3 वर्ष की आयु से शिशु में अपने साथियों के प्रति प्रेम का विकास हो जाता है और वह उनके साथ खेलता एवं हँसता है। “
7. जोन्स (Jones) के अनुसार- “2 वर्ष का शिशु, साँप से नहीं डरता है, पर धीरे-धीरे उसमें भय का विकास होता चला जाता है। 3 वर्ष की आयु में वह अँधेरे में, पशुओं से और अकेले रहने से डरता है। 5 वर्ष की आयु तक वह अपने भय पर नियन्त्रण नहीं कर पाता है। “
8. एलिस को (Alice Crow) के अनुसार-“शिशु अपने साथियों और बड़े लोगों के संवेगात्मक व्यवहार का | अनुकरण करता है। उसे किन्हीं बातों से भय लगता है, वह क्रोध का क्रोध से और प्रेम का प्रेम से उत्तर देता है। वह अपनी माता और अपने किसी प्रिय साथी के अतिरिक्त और किसी के प्रति सहानुभूति प्रकट नहीं करता है।”
9. स्किनर एवं हैरिमन (Skinner and Harriman) के अनुसार-“शिशु का संवेगात्मक व्यवहार धीरे-धीरे अधिक निश्चित और स्पष्ट होता जाता है। उनके व्यवहार के विकास की सामान्य दिशा अनिश्चित और अस्पष्ट से विशिष्ट की ओर की होती है। “
शैशवावस्था की सामाजिक विशेषतायें (Social Characteristics of Infancy)
अथवा
शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Infancy)
क्रो व क्रो (Crow and Crow) ने लिखा है— “जन्म के समय, शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता है और न असामाजिक, पर वह इस स्थिति में बहुत समय तक नहीं रहता है।” दूसरे व्यक्तियों के निरन्तर सम्पर्क में रहने के कारण उसकी स्थिति में परिवर्तन होना और फलस्वरूप उसका सामाजिक विकास होना आरम्भ हो जाता है।
हरलॉक (Hurlock) ने इस अवस्था की विशेषताओं का वर्णन निम्न प्रकार किया है-
1. पहले माह में शिशु साधारण आवाजों और मनुष्यों की आवाज में अन्तर नहीं जानता है।
2. दूसरे माह में वह मनुष्य की आवाज पहिचानने लगता है। वह दूसरे व्यक्तियों को अपने पास देखकर मुस्कराता है।
3. तीसरे माह में वह अपनी माँ को पहिचानने लगता है और यदि वह उसके पास से चली जाती है, तो वह रोने लगता है।
4. चौथे माह में वह आने वाले व्यक्ति को देखता है और जब कोई उसके साथ खेलता है, तब वह हँसता है।
5. पाँचवें माह में वह क्रोध और प्रेम के व्यवहार में अन्तर समझने लगता है।
6. छठे माह में वह परिचित व्यक्तियों को पहिचानने और अपरिचित व्यक्तियों से डरने लगता है।
7. आठवें माह में वह बोले जाने वाले शब्दों और हाव-भाव का अनुकरण करने लगता है।
8. एक वर्ष की आयु में वह मना किये जाने वाले कार्य को नहीं करता है।
9. दो वर्ष की आयु में वह वयस्कों के साथ कोई न कोई कार्य करने लगता है और इस प्रकार वह परिवार का सक्रिय सदस्य हो जाता है।
10. तीसरे वर्ष में वह दूसरे बालकों के साथ खेलने लगता है और इस प्रकार उनसे सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करता है।
11. तीन वर्ष की आयु तक उसका सामाजिक व्यवहार आत्म-केन्द्रित रहता है। पर यदि इस आयु में वह किसी स्कूल में प्रवेश करता है, तो उसके व्यवहार में परिवर्तन होना आरम्भ हो जाता है और वह नये सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करता है।
12. पाँचवें वर्ष तक शिशु के सामाजिक व्यवहार के सम्बन्ध में हरलॉक (Hurlock) ने लिखा है- “शिशु दूसरे बच्चों के सामूहिक जीवन से अनुकूलन करना उनसे लेन-देन करना और अपने खेल के साथियों को अपनी वस्तुओं में साझीदार बनाना सीख जाता है। वह जिस समूह का सदस्य होता है, उसके स्वीकृत प्रतिमान के अनुसार अपने को बनाने की चेष्टा करता है। “
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