श्वसन तन्त्र का संक्षेप में वर्णन कीजिए तथा श्वसन की प्रक्रिया के महत्व को समझाइए।
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श्वसन तन्त्र
श्वसन तन्त्र के अवयव – श्वसन तन्त्र के अवयव हैं—मुख, नास्या मार्ग, श्वर यन्त्र (Larynx), श्वासनली (Trachea) और फुफ्फुस ।
मुख तथा नास्या-मार्ग
वायु फुफ्फुसों तक या तो मुख से या नास्या मार्ग से होकर ही जा सकती है। वास्तव में वायु के भीतर जाने के लिए नास्या मार्ग ही है। नास्या मार्ग मुड़ा हुआ है और उस पर श्लैष्मिक कला का आवरण चढ़ा रहता है, जो एक लसलसा और चिपचिपा पदार्थ उत्पन्न करती है। जैसे रुधिर में जीवाणुओं को ग्रसित कर लेने वाले कण (Phagocytes) पाएं जाते हैं, उसी तरह से इस पदार्थ में भी वे कण पाए जाते हैं। ये जीवाणुओं को ग्रसित कर लेते हैं और वायु को शुद्ध कर देते हैं। जैसे ही वायु इस मार्ग से होकर गुजरती है वह नासिका की रक्त कोशिकाओं के सम्पर्क में आती है उसमें नमी आ जाती है और उसका तापक्रम शरीर के तापक्रम के बराबर हो जाता है। नास्या मार्ग पर बाल भी उगे रहते हैं, जिससे भीतर जाने वाली वायु छनकर जाती है। यदि कोई अस्वाभाविक वस्तु नासारन्ध्रों में पहुँच जाती है तो श्लैष्मिक कला के उत्तेजित होने से छीकें आने लगती हैं जिससे वह वस्तु बाहर निकल जाती है। परन्तु मुख से श्वास लेने पर यह सब नहीं हो पाता। यह स्पष्ट है जो लोग लगातार मुख से श्वास लेते हैं वे नासा से श्वास लेने वालों की अपेक्षा गले के रोग के अधिक और सरलता से शिकार हो जाते हैं। इसलिए नासिका से श्वास लेना बड़ा लाभदायक और महत्वपूर्ण है और उसकी आदत बचपन से ही डालनी चाहिए। कुछ बालकों की मुँह से श्वास लेने की बुरी आदत को सुधारा जा सकता है और कुछ यह आदत नासिका में किसी त्रुटि का लक्षण है; जिसका सावधानी से उपचार होना चाहिए।
स्वर-यन्त्र
नासिका या मुँह से ली गई श्वास जिह्वा की जड़ के पीछे स्थित मसनी-गुहा (Pharynx) से होती हुई स्वर-यन्त्र में जाती है, स्वर-यन्त्र श्वास-नैली के ऊपरी सिरे पर स्थित है। स्वर-यन्त्र में वायु जाने के रास्ते के घाटी द्वार (Glottis) पर उपास्थि का बना हुआ एक ढक्कन, जो काकमुख (Epiglottis) कहलाता है, खाने की चीजों को श्वास-नली में जाने से रोकता है। साधारणतः काकमुख सीधा रहता है, जिससे कि वायु आसानी से स्वर-यन्त्र में प्रवेश कर सके। लेकिन कोई वस्तु खाते समय वह ऊपर की ओर खिंच जाता है और स्वर-यन्त्र का मार्ग बन्द कर देता है ताकि भोजन या पानी आदि स्वर-यन्त्र में न जाए। स्वरन्यन्त्र में स्वर-रज्जु (Vocal Cords) स्थित होती हैं जिनके स्पन्दन में मूल स्वर जन्म लेते हैं, यह मुख्यतः उपास्थि के तत्वों से बने होते हैं: पहली उपास्थि उभरी हुई होती है, उसके सामने वाले भाग को टेंटुआ (Pomum Adami) या ‘एडम्स एपल’ (Adams Apple) कहते हैं, जिसको कि पुरुषों में बाहर से छूकर मालूम किया जा सकता है।
श्वास नली ( Trachen)
वायु, स्वर-यन्त्र के बाद नीचे स्थित, श्वास नली में आ जाती है। इसकी लम्बाई लगभग 5 इंच होती है। यह सौत्रिक धातु और सूक्ति से अंग्रेजी अक्षर C के आकार के छल्लों से बनी होती है। पीछे की तरफ छल्ले एक कला से पूर्ण होते हैं। जब अन्न-नली भोजन प्रसने के समय है तो श्वास-नली सिकुड़ जाती है और उसे फूलने का स्थान देती है। श्वास नली में श्लैष्मिक कला की परत बिछी होती है और उसके कुछ कोषों के रस से तर रहती है। इस कला भीतरी तह में बालों की तरह सूक्ष्म तन्त्र निकले होते हैं जिन्हें सीलिया (Cilia) कहते हैं। सीलिया लगातार सक्रिय रहते हैं और यदि श्वास के साथ धूल का कोई कण चला जाता है तो उसे अलग करने का काम करते हैं। श्वास नली गर्दन में होती हुई वृक्ष में जाती है। यहाँ यह दायीं और बायीं— दो वायु उपनलियों ( Bronchi) में विभाजित हो जाती है। एक-एक वायु उपनली प्रत्येक फुप्फुस को जाती है। श्वास नली की शालाएँ फुफ्फुसों में प्रवेश करने के पश्चात् फिर अनेक शालाओं में विभक्त होती हैं। ये नलिकाएँ कहलाती हैं। इनकी फिर शाखाएँ होती हैं। फिर शाखाओं से शाखाएँ निकलती चली जाती हैं। अन्त में ये उपनलिकाएँ (Bronchioles) इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि उनमें कोई शक्ति नहीं रहती, वे केवल सौत्रिक धातु की सूक्ष्म नलिकाएँ होती हैं। अन्त में ये उपनलिकाएँ वायु कोष्ठिका (Alevioli or Air Sacs) बनाती हैं। इस तरह फुफ्फुस में लाखों छोटे-छोटे वायु के कोष सूक्ष्म (Air Cells) वायु उपनलिकाओं से सम्बन्धित हैं। प्रत्येक वायु कोष का बाहर की वायु उपनलिकाओं द्वारा सम्पर्क होता है। यहाँ ही गैसों में परिवर्तन और रक्त की शुद्धि होती है। फुफ्फुस केवल वायु-कोषों के समूह का नाम है।
फुफ्फुस
वृक्ष के दोनों ओर स्थित फुफ्फुस श्वसन के प्रधान अवयव हैं। ये वायुरोधक गर्त में स्थित होते हैं जो सामने की तरफ पर्शकाएँ, पर्शकान्तर पेशियों (Intercostal Muscles) तथा उपरोस्थि (Sternum) से पीछे की ओर पर्शुकाओं तथा मेरुदण्ड से नीचे की ओर डायफ्राम (Diaphragm) से बना है। डायफ्राम का रंग भूरा होता है और देखने में स्पंज की तरह लचीला होता है। फुफ्फुसों की रक्षा एक कला द्वारा होती है, जिसे फुफ्फुसावरण (Pleural) कहते हैं। यह पर्शुकाओं की आन्तरिक सतह को भी आच्छादित किए हुए हैं। कला की दो परतों के बीच के स्थान को फुफ्फुस गुहा (Pleural Cavity) कहते हैं। फुफ्फुस गर्त में पानी भर जाने से ही प्लूरसी नाम का रोग हो जाता है।
प्रत्येक वायु-प्रणाली के साथ-साथ फुफ्फुसीय धमनी (Pulmonary Artery) की सूक्ष्म शाखाएँ, रक्त केशिकाएँ होती हैं। इनमें अशुद्ध रक्त फुफ्फुसों में वृद्धि के लिए आता है। जब रक्त इनमें से होकर बहता है तो रक्त और वायु कोष की वायु में केवल केशिकाओं की भित्ति और वायु कोषों की भित्ति की अवरुद्धता होती है। दोनों की भित्तियाँ सूक्ष्म दर्शनीय होती हैं। इसी से वायु-कोषों की वायु में पायी जाने वाली ऑक्सीजन गैस लाल रक्त-कण में पाए जाने वाले हीमोग्लोबिन के शक्तिशाली आकर्षण के कारण छनकर रक्त में आ जाना असम्भव होता है। इसी प्रकार कार्बन डाइऑक्साइड रक्त से छनकर आसानी से वायु नलिकाओं में चली जाती है।
केशिकाओं में ऑक्सीजन आ जाने से रक्त की शुद्धि हो जाती है और यह नीले के स्थान पर लाल चमकीला हो जाता है। ये कोशिकाएँ संयुक्त होकर फुफ्फुसीय शिरायें (Pulmonary Arteries) बन जाती हैं। ये शिराएँ ऑक्सीजन मिश्रित शुद्ध रक्त को हृदय के बाएँ भाग में ले जाती हैं, जहाँ से रक्त सारे शरीर में संचालित कर दिया जाता है।
श्वसन की प्रक्रिया का महत्व
वायु में ऑक्सीजन गैस होती है। यह शरीर के लिए बड़ी आवश्यक और महत्वपूर्ण है। शरीर को सक्रिय और स्वस्थ बनाए रखने के लिए इस गैस का नियमित रूप से शरीर में जाना नितान्त आवश्यक है। शरीर के विकास, पेशियों की क्रिया, पाचन रसों के उत्पादन और मस्तिष्क की प्रक्रिया – सभी को ऑक्सीजन गैस की आवश्यकता होती है। जिस क्रिया के द्वारा यह गैस शरीर में प्रवेश करती है, उसे ‘श्वसन’ कहते हैं। इस क्रिया के दो रूप हैं—(अ) वायु का भीतर खींचना अर्थात् निश्वसन, (ब) हवा को बाहर छोड़ना अर्थात् उच्छ्सन श्वास लेने में ऑक्सीजन शरीर में प्रवेश करती है और प्रधानतः उसका उपयोग शरीर के व्यर्थ पदार्थ को जलाने में होता है। इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन शरीर के अन्य तत्वों से मिलकर शरीर में गर्मी और शक्ति उत्पन्न करती है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप जो पदार्थ उत्पन्न होता है, वह मुख्यतः कार्बोनिक एसिड गैस होती है जो उसी मार्ग के द्वारा, जिसके द्वारा ऑक्सीजन शरीर में प्रवेश करती है, शरीर के बाहर निकाल दी जाती है।
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