Contents
संविधान की रचना में प्रमुख दृष्टिकोण, मत एवं प्रवृत्तियाँ (The Main Attitudes, Approaches and Trends in the making of the Constitution)
जिस समय संविधान सभा द्वारा भारत के संविधान का निर्माण किया जा रहा था उस समय संविधान सभा के अन्दर तथा बाहर अपने-अपने दृष्टिकोण का ध्यान रखकर अपने मत प्रकट किये जा रहे थे। मुख्य विषय जिसके ऊपर ऐसा किया गया वे इस प्रकार हैं-
(1) संविधान की प्रस्तावना (Preamble of the Constitution)
प्रस्तावना में जो शब्द व्यक्त किये हैं वे बड़े महत्वपूर्ण हैं। प्रस्तावना इस प्रकार है-“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिये तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़-संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिती मार्गशीर्ष शुक्ला, सप्तमी, सम्वत् दो हजार छः विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।” इसमें जो भाव व्यक्त किये गये हैं उसका आधार पं. जवाहरलाल नेहरु द्वारा प्रस्तावित उद्देश्य प्रस्ताव है-“यह प्रस्ताव सर्वसम्मति के संविधान सभा द्वारा स्वीकार किया गया यद्यपि कुछ क्षेत्रों में इसकी आलोचना इस तर्क पर की गई थी कि संविधान सभा को इस प्रकार के प्रस्ताव पारित करने का अधिकार प्राप्त नहीं है, क्योंकि वह सर्वप्रभुता सम्पन्न संस्था नहीं है और उसकी कुछ सीमायें मन्त्रिमण्डल योजना द्वारा निर्धारित कर दी गई हैं तथा इसके साथ-साथ अभी वह समय भी नहीं है जब प्रारम्भ में इसको पारित कर दिया जाये।” गणतंत्र शब्द पर पर्याप्त मतभेद हुआ, किन्तु अन्त में संविधान सभा ने इसको ही उपयुक्त समझा। इस शब्द पर आपत्ति उठाने का मुख्य कारण यह था कि एक गणतंत्र को राष्ट्रमण्डल का सदस्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि उसका सदस्य होने के कारण उसको इंग्लैण्ड के राजा के प्रति अपनी निष्ठा रखनी होगी। यह प्रश्न उस समय अपने आप समाप्त हो गया जब 27 अप्रैल, 1949 ई. को प्रधानमन्त्रियों के सम्मेलन में भारत को राष्ट्रमण्डल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया और उसे सर्वप्रभुत्वपूर्ण स्थिति की स्वीकृति प्रदान कर दी गयी। भारत को एक सर्वप्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित कर दिया गया। संविधान सभा में ‘हम भारत के लोग’ शब्द पर भी आपत्ति उठायी गयी और यह कहा गया कि संविधान सभा का निर्माण वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ है, वरन् यह अप्रत्यक्ष रूप से एक निर्मित संस्था है। इसका उत्तर डॉ. अम्बेडकर ने यह कह कर दिया कि सम्प्रभुता जनता में निहित है और जो कुछ वह पारित करती है वह जनता के प्रतिनिधि के रूप में ही करती है। प्रस्तावना में ईश्वर का नाम न होने पर भी आपत्ति उठायी गयी। इस प्रसंग में जो संशोधन प्रस्तुत किये गये उनको बाद में वापस ले लिया गया। अन्त में प्रस्तावना उक्त रूप में ही स्वीकृत हो गयी। इस प्रसंग में यह भी स्मरणीय है कि यह प्रस्तावना गाँधीजी द्वारा अनेक बार व्यक्त किये गये विचारों पर आधारित है।
(2) मौलिक अधिकार (Fundamental Rights)
मौलिक अधिकार को संविधान के अन्तर्गत एक अध्याय में स्थान देने पर संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में जो 1946 ई. में हुआ था किसी भी क्षेत्र में आपत्ति नहीं उठायी गयी। पर्याप्त विचार-विमर्श के उपरान्त प्रारूप संविधान में इनको स्थान दिया गया। इसके अध्ययन से स्पष्ट होता है कि संविधान निर्माता देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं का अति शीघ्र आधुनिकीकरण करने के विचार से प्रेरित थे। पाश्चात्य देशों के संविधानों में भी इसको स्थान दिया गया है और सार्वभौमिक मानव अधिकार पत्र का निर्माण भी उस समय तक हो चुका था।
संविधान निर्माताओं का विचार था कि भारत में लोक कल्याणकारी राज्य के दायित्वों को पूरा करने की आर्थिक क्षमता नहीं है। अपनी इस धारणा के आधार पर उन्होंने अधिकारों को दो भागों में बाँटा–वाद योग्य अधिकार (Justiciable rights) और अपवाद योग्य अधिकार (Non-justiciable rights ) । इस प्रकार का विभाजन संवैधानिक परामर्शदाता बी. एन. राव के सुझाव के आधार पर किया गया था लेकिन संविधान सभा के अनेक सदस्य इस प्रकार के विभाजन से सहमत नहीं थे। संविधान सभा के अनेक सदस्यों—विशेषतया कुँजरू, प्रमोद रंजन ठाकुर, सोमनाथ लाहिड़ी और आर. के. सिधावा आदि ने विचार व्यक्त किया था कि वाद योग्य और अवाद योग्य अधिकारों में विभाजन रेखा खींचना कठिन है और ‘रोजगार के अधिकार’ आदि आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों की सूची में स्थान दिया जाना चाहिए, जिससे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय की वास्तविक रूप में प्राप्ति की जा सके।
जिस अधिकार और धारा ने संविधान सभा में सबसे अधिक विवाद को जन्म दिया, वह सम्पत्ति का अधिकार था और उससे सम्बन्धित धारा 31 थी। 19 मार्च, 1955 को संसद में चौथे संवैधानिक संशोधन पर डॉ. अम्बेडकर के भाषण का यह अंश उल्लेखनीय है- “जब 31वीं धारा की रचना हो रही थी, उस समय काँग्रेस दल अपने भीतर इस तरह विभाजित था कि हम यह नहीं जानते थे कि हम क्या करें, उसमें क्या व्यवस्था करें और क्या व्यवस्था न करें।” संविधान सभा में व्यक्त किया गया एक दृष्टिकोण व्यक्ति के अधिकार से सम्बन्धित था तो दूसरा सामाजिक हित से सम्बन्धित सम्पत्ति के अधिकार की व्यवस्था इस रूप में की गयी कि इन दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों में समन्वय स्थापित हो ।
(3) निर्देशक तत्व (Directive Principles)
संविधान के चौथे अध्याय ‘नीति निदेशक सिद्धान्तों पर अपेक्षाकृत संक्षिप्त वाद-विवाद ही हुआ।
संविधान सभा के कुछ सदस्यों-विशेषतया काजी सैय्यद करीमुद्दीन, हरिविष्णु कामथ, प्रो. नासिरुद्दीन और के. टी. शाह आदि ने इस बात पर बल दिया कि इन सिद्धान्तों का क्रियान्वयन राज्य के लिए अनिवार्य होना चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए यह संशोधन प्रस्तुत किया गया कि शीर्षक में निर्देशक’ के स्थान पर ‘मौलिक’ शब्द का प्रयोग किया जाय। डॉ. अम्बेडकर और अन्य सदस्यों द्वारा इस प्रकार के संशोधन और उसके पीछे निहित भावना को अस्वीकार कर दिया गया। उनके द्वारा कहा गया कि ‘मौलिक’ शब्द का प्रयोग अनावश्यक है, क्योंकि ‘मौलिक’ शब्द का प्रयोग न करते हुए भी इन्हें राज व्यवस्था के मौलिक सिद्धान्तों के रूप में ही मान्यता प्रदान की गयी है। द्वितीय, इन सिद्धान्तों का प्रयोजन आने वाली व्यवस्थापिकाओं और कार्यपालिका को निर्देशन देना ही है और इस दृष्टि से ‘निर्देशक’ शब्द ही उचित है।
इन तत्वों का उद्देश्य आर्थिक सामाजिक न्याय की प्राप्ति ही कहा जा सकता है, लेकिन इस सम्बन्ध में की गयी समस्त व्यवस्था में स्पष्टता को अपनाने के बजाय अस्पष्टता और अनिश्चितता को ही बनाये रखा गया। संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के सम्बन्ध में तीन वर्ष की समय सीमा प्रस्तावित की थी, लेकिन अन्तिम रूप में टी. टी. कृष्णामाचारी आदि के इस विचार को अपनाया गया कि “समय सीमा की कोई आवश्यकता नहीं है और पृथक्करण के विचार की अभिव्यक्ति मात्र ही पर्याप्त है।” संविधान सभा के कुछ मुस्लिम सदस्यों ने एकसमान नागरिक संहिता पर आपत्ति की थी और कहा था कि इससे मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों पर चोट पहुँचती है। श्री मुंशी ने इन आलोचनाओं का उत्तर देते हुए कहा कि “संविधान सभा ने धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त को पहले सी ही मान्यता दे रखी है और यह व्यवस्था उसके ही अनुकूल है।” संविधान के प्रारूप में गाँधीवादी आदर्शों को कोई स्थान नहीं दिया गया था, इस अभाव की पूर्ति ग्राम पंचायतों, कुटीर उद्योगों, नशाबन्दी तथा कृषि एवं पशुपालन को प्रोत्साहन आदि की नीति निर्देशक तत्वों में करते हुए की गयी। नीति निर्देशक सिद्धान्तों को संविधान में स्थान देकर संविधान निर्माताओं ने जनता के सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों को मान्यता प्रदान की और इस प्रकार उन्होंने समाजवादी आदर्शों में अपनी आस्था व्यक्त की, लेकिन वस्तुतः उनमें समाजवादी आदर्शों की अपेक्षा उदारवादी आदर्शों की प्रबलता थी और इसी कारण इन नीति निर्देशक तत्वों को अवाद- योग्य स्थिति ही प्रदान की गयी।
(4) राष्ट्रपति (President)
संविधान सभा में इन प्रश्न पर बड़ा वाद-विवाद रहा कि भारत में अध्यक्षात्मक प्रजातन्त्र की स्थापना की जाये या संसदीय प्रजातंत्र की। अन्त में यह निश्चय हुआ कि भारत के लिये संसदीय प्रजातन्त्र ही उपयुक्त है परन्तु फिर भी इस विषय पर है उस समय संविधान सभा एकमत नहीं थी और कुछ क्षेत्रों द्वारा यह व्यक्त किया गया कि यहाँ असंसदीय कार्यपालिका रखी जाये। इसके साथ राष्ट्रपति का पद सम्मान और प्रभुत्व का हो । एक सदस्य द्वारा यह भी प्रस्तावित किया गया कि यहाँ स्विट्जरलैण्ड के समान बहुल कार्यपालिका की स्थापना की जाये। राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली के सम्बन्ध में संविधान सभा में विभिन्न मत प्रगट किये गये। कुछ लोगों द्वारा यह विचार प्रगट किया गया कि राष्ट्रपति का निर्वाचन दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत द्वारा होना चाहिए। दूसरे मत द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि राष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में समानुपातिक प्रतिनिधित्व और एकल संक्रमणीय मत द्वारा गुप्त रीति से होना चाहिए। अन्त यह स्वीकार किया गया और उनमें राज्यों के विधान-मण्डलों के निर्वाचित सदस्य भी सम्मिलित कर लिये गये। कुछ क्षेत्रों ने उसके प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित करने का भी प्रस्ताव किया, किन्तु यह स्वीकार नहीं किया गया। इसके विरोध में प्रमुख तर्क यह दिया गया कि यदि उसका निर्वाचन प्रत्यक्ष रूप से होगा तो वह अपने पद का दुरुपयोग कर संवैधानिक प्रधान के रूप में शासन नहीं करेगा और उसका निरन्तर संघर्ष मन्त्रिमण्डल से होगा और परिणामस्वरूप अराजकता उत्पन्न हो जायेगी जिससे संविधान का अभिप्राय ही नष्ट हो जायेगा। राष्ट्रपति की शक्तियों के सम्बन्ध में संविधान सभा में पर्याप्त मतभेद रहा। कुछ क्षेत्रों द्वारा यह प्रतिपादित किया गया कि उसको पर्याप्त अधिकार प्राप्त होने चाहिए और कुछ क्षेत्रों से यह व्यक्त गया कि उसको केवल एक नाम मात्र का शासक बनना चाहिए। संसदीय प्रणाली को स्वीकार करने पर उसको बहुत अधिक शक्तियाँ प्रदान नहीं की जा सकी, किन्तु उसको शक्तियों और कर्तव्य का भण्डार अवश्य बना दिया और वह केवल राज्याध्यक्ष ही रहा, शासनाध्यक्ष नहीं बन पाया।
संविधान ने भारत के राष्ट्रपति को संकटकालीन अधिकार पर्याप्त मात्रा में प्रदान किये। वह आपातकालीन उद्घोषणा के समय समस्त भारत का या किसी राज्य का शासन अपने अधिकार में कर सकता है। ऐसा वह तीन परिस्थितियों में कर सकता है- (i) युद्ध अथवा विदेशी आक्रमण के समय अथवा आन्तरिक अशान्ति के उत्पन्न होने पर, (ii) वैधानिक संकट के उत्पन्न होने पर और (iii) अर्थव्यवस्था के भंग होने पर। संविधान सभा में उस समय बहुत अधिक वाद-विवाद हुआ, जब इन पर विचार किया जा रहा था। इसकी आलोचना का मुख्य कारण यह था कि ऐसे शासनाध्यक्ष को इतने अधिक अधिकारों से सुशोभित किया जाना गलत है, जिसका निर्वाचन प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष हो रहा हो। संविधान सभा ‘वाद-विवाद’ के अध्ययन से यह नितान्त स्पष्ट है कि संविधान निर्माता यह कभी नहीं सोचते थे कि संकटकालीन शक्तियों का प्रयोग इतने लम्बे समय के लिए और बार-बार किया जायेगा। डॉ. अम्बेडकर ने तो आशा व्यक्त की थी कि इन व्यवस्थाओं को “कभी भी कार्य रूप में परिणित नहीं किया जायेगा।” कहने की आवश्यकता नहीं कि व्यवहार में शासन का आचरण संविधान निर्माताओं की आशा के प्रतिकूल ही रहा है।
(5) मन्त्रिपरिषद् (Council of Ministers)
संविधान द्वारा यह व्यवस्था की गयी की राष्ट्रपति को उसके कार्यों में परामर्श एवं सहायता देने के लिए एक मन्त्रिपरिषद होगी जो उसके प्रति उत्तरदायी होगी और उसका नेतृत्व प्रधानमन्त्री करेगा। यहाँ पर ब्रिटिश व्यवस्था को ही स्वीकार किया गया। यह मन्त्रिपरिषद् अपने समस्त कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होगी। इसके निर्माण आदि के सम्बन्ध पर्याप्त मतभेद विद्यमान थे। एक क्षेत्र से यह प्रतिपादित किया गया कि भारत की स्थायी मन्त्रिपरिषद् के निर्माण के लिये कुछ ऐसे उपबन्धों का निर्माण किया जाये जो उसको स्थायित्व रूप प्रदान कर सकें, किन्तु यह स्वीकार नहीं किया गया, क्योंकि ऐसा करने पर संसदीय कार्यपालिका अपनी वास्तविकता का अन्त कर देगी। ऐसा भी सुझाव दिया गया कि ऐसी मन्त्रिपरिषद् का निर्माण किया जाये जिसमें विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व सुरक्षित हो, किन्तु इसको भी स्वीकृति प्रदान नहीं की गयी। इसको यह कहकर समाप्त कर दिया गया कि इसको अभी समय के ऊपर छोड़ दिया जाना चाहिए और इसको विधि की सुरक्षा प्रदान नहीं करनी चाहिए। यह भी कहा गया कि राष्ट्रपति को सभी विषयों में मन्त्रिपरिषद की सलाह मानना आवश्यक नहीं है। कुछ क्षेत्र ऐसे भी होने चाहिए जब वह अपने विवेक से कार्य कर सकें। इसके अतिरिक्त इस दिशा में यह भी सुझाब दिया गया कि एक कौंसिल ऑफ स्टेट का निर्माण किया जाये जो राष्ट्रपति को इन कार्यों में सलाह दे। यह भी स्वीकार नहीं किया गया और अन्त में यह निश्चय किया गया कि एक मन्त्रिपरिषद् हो जिसका नेतृत्व प्रधानमन्त्री करे और वह राष्ट्रपति को उसके कार्यों में परामर्श एवं सहायता प्रदान करे।
इस विषय पर विचार किया गया कि क्या राष्ट्रपति को सभी विषयों में मन्त्रिपरिषद् के परामर्श को स्वीकार करना आवश्यक है। इस प्रसंग में कहा गया कि साधारणतया तो ऐसा होना चाहिये, किन्तु फिर भी ऐसे अवसर उत्पन्न हो सकते हैं जब यह केवल एक बार उसके मत को स्वीकार न करे। उसको यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक को पुनर्विचार के लिये संसद को वापस कर सकता है, किन्तु जब यह संसद द्वारा दूसरी बार भी पारित हो जाये तो उसको उसे स्वीकार करना होगा। कुछ अवस्थाओं में वह अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है। जब लोकसभा में किसी एक दल का स्पष्ट बहुमत नहीं हो इस परिस्थिति में यह प्रधानमन्त्री की नियुक्ति के विषय में अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है। राष्ट्रपति की स्वेच्छा के क्षेत्र के स्पष्टीकरण के सम्बन्ध में डॉ. अम्बेडकर ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये कि “संविधान द्वारा राष्ट्रपति को स्वेच्छा से कार्य करने का अधिकार प्रदान नहीं किया गया, वरन् उसको स्वैच्छिक परमाधिकार प्रदान किये गये।”
(6) संघीय संसद (Union Parliament)
संविधान सभा में शिब्बनलाल सक्सेना, मोहम्मद ताहिर और लोकनाथ मिश्र आदि सदस्यों ने केन्द्र में द्विसदानात्मक विधानमण्डल की आलोचना करते हुए उसे प्रगति में बोधक बतलाया था, लेकिन एन. गोपालास्वामी आयंगर आदि ने द्विसदनात्मक विधानमण्डल के औचित्य का प्रतिपादन किया और सभा के द्वारा इस दृष्टिकोण को स्वीकार कर लिया गया। संविधान सभा में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि द्वितीय सदन, प्रथम सदन का प्रतियोगी नहीं होगा और उसे एक सीमित भूमिका ही प्राप्त हो सकती है।
प्रो. के. टी. शाह और अन्य सदस्यों ने आशंका व्यक्त की थी कि राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा के सदस्यों को मनोनीत किये जाने पर राष्ट्रपति आलोचना का शिकार हो सकता है, लेकिन इसके बावजूद संविधान सभा ने यह व्यवस्था की कि राज्यसभा में 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत होंगे। यह सुझाव दिया गया था कि द्वितीय सदन में सभी इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व प्राप्त हो, लेकिन संवैधानिक परामर्शदाता इसके विरुद्ध थे क्योंकि उस स्थिति में देशी राज्यों के प्रतिनिधियों की भरमार हो जायेगी और ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों की संख्या कम हो जायेगी।
प्रारूप समिति ने लोकसभा के निर्वाचन के लिए वयस्क मताधिकार की सिफारिश की थी और सभी ने इसका व्यापक स्वागत किया था परन्तु डॉ. राजेन्द्रप्रसाद और डॉ. कुंजरू जैसे व्यक्तियों ने कहा था कि सिद्धान्त रूप में वयस्क मताधिकार श्रेष्ठ होते हुए भी भारत की विशेष परिस्थितियों के कारण हमें इस दिशा में धीरे-धीरे ही कदम बढ़ाना चाहिए। इसी प्रकार प्रारूप समिति ने अल्पसंख्यकों के लिए स्थान सुरक्षित रखने की सिफारिश की थी। सरदार हुकमसिंह ने इसका विरोध करते हुए कहा कि “यदि पृथक् निर्वाचन प्रणाली ने सम्प्रदायवाद को बल पहुँचाया है तो स्थान सुरक्षित रखने की पद्धति से उसे कुछ कम बल नहीं मिलेगा।” संविधान सभा ने इस सम्बन्ध में प्रारूप समिति के दृष्टिकोण को ही स्वीकार किया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने विचार व्यक्त किया कि संसद सदस्यों के लिए शैक्षणिक योग्यता निश्चित की जानी चाहिए, लेकिन संविधान सभा ने इस सुझाव को अव्यावहारिक मानते हुए अस्वीकार कर दिया।
(7) संघीय न्यायपालिका (Union Judiciary)
भारत में दुहरी राजनीतिक व्यवस्था के होते हुए भी संविधान सभा द्वारा एकीकृत (Integrated) न्यायपालिका को ही अपनाया गया। प्रो. के. टी. शाह ने संविधान सभा में इस आशय का एक संशोधन प्रस्तुत किया था कि न्यायपालिका को “व्यवस्थापिका और कार्यपालिका से पूर्णतया पृथक् और स्वतंत्र रखा जायेगा।” प्रारूप समिति यद्यपि इस प्रस्ताव की वांछनीयता से सहमत थी, लेकिन उसने इसे अव्यावहारिक मानकर अस्वीकार कर दिया। श्री के. एम. मुंशी ने कहा था कि “अमेरिका में भी, जहाँ पृथक्करण के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है, ऐसे बहुत से अर्ध-न्यायिक कार्य हैं जिन्हें कार्यपालिका और प्रशासकीय अभिकरणों में निहित किया गया है।” न्यायपालिका की स्थिति के सम्बन्ध में सभा द्वारा अपनाये गये दृष्टिकोण को व्यक्त करते. हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि “हम राज्य के भीतर राज्य की रचना नहीं करना चाहते, परन्तु उसके साथ ही हम यह चाहते हैं कि न्यायापालिका को पर्याप्त स्वतंत्रता प्रदान की जाये, जिससे वह कार्यपालिका के भय अथवा पक्षपात के बिना कार्य कर सके।”
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए प्रो. के. टी. शाह का सुझाव था कि उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को किसी भी स्थिति में किसी कार्यपालिका पद पर नियुक्त न किया जाय। डॉ. अम्बेडकर ने अपने उत्तर में सेवारत न्यायाधीश और सेवा-निवृत्त न्यायाधीश में भेद किया और कहा कि सेवा-निवृत्त न्यायाधीश को कार्यपालिका पद पर नियुक्त किया जा सकता है कि क्योंकि “बहुत से ऐसे मामले होते हैं जिनमें विशिष्ट प्रकार की न्यायिक क्षमता से उत्पन्न व्यक्ति की नियुक्ति बहुत आवश्यक होती है।” संविधान सभा ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धान्त को मान्यता तो प्रदान की, लेकिन साथ ही उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि सर्वोच्च न्यायालय इतना शक्तिशाली न हो जाय कि वह राज्य के अन्य अभिकरणों के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगे। इस प्रकार उन्होंने न्यायापालिका और व्यवस्थापिका की सर्वोच्चता के बीत समन्वय स्थापित किया।
निष्कर्ष (Conclusion)
भारतीय संविधान के अन्तर्गत विभिन्न प्रावधानों के सन्दर्भ में संविधान निर्माताओं ने एक सन्तुलित दृष्टिकोण अपनाया है ताकि संविधान देश, काल व परिस्थितियों के अनुरूप सिद्ध हो सके। संविधान निर्माताओं ने प्रत्येक प्रावधान पर गम्भीर मन्त्रणा की और पृथक्-पृथक् मत प्रकट किये तत्पश्चात् सामान्य राय से निर्णय लिये गये। रजनी कोठारी के अनुसार, “इन दृष्टिकोणों से पता चलता है कि नये राष्ट्र की संस्थाओं का ढाँचा तैयार करते समय किस प्रकार निर्णय लिये गये। यह संविधान भारत के भविष्य की आधारशिला था और इसकी रचना में नेताओं ने पुराने और नये विचारों में अधिक से अधिक सामंजस्य लाने का प्रयत्न किया ।
IMPORTANT LINK
- स्वामी विवेकानंद का शिक्षा में योगदान | स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन
- गाँधीजी के शैक्षिक विचार | Gandhiji’s Educational Thoughts in Hindi
- विवेकानन्द का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान | Contribution of Vivekananda in the field of education in Hindi
- संस्कृति का अर्थ | संस्कृति की विशेषताएँ | शिक्षा और संस्कृति में सम्बन्ध | सभ्यता और संस्कृति में अन्तर
- पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi
- पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi
- मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा शिक्षा का किस प्रकार प्रभावित किया?
- मानव अधिकार की अवधारणा के विकास | Development of the concept of human rights in Hindi
- पाठ्यक्रम का अर्थ एंव परिभाषा | Meaning and definitions of curriculum in Hindi
- वर्तमान पाठ्यक्रम के दोष | current course defects in Hindi
- मानव अधिकार क्या है? इसके प्रकार | what are human rights? its types
- अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए शिक्षा के उद्देश्य | Objectives of Education for International Goodwill in Hindi
- योग और शिक्षा के सम्बन्ध | Relationship between yoga and education in Hindi
Disclaimer