राजनीति विज्ञान / Political Science

संविधान सभा का अर्थ, संरचना, प्रथम बैठक, समस्याएँ, आलोचना

संविधान सभा का अर्थ
संविधान सभा का अर्थ

संविधान सभा क्या है?

आधुनिक युग में शासन कानून पर आधारित है। यही कारण है कि प्रत्येक राष्ट्र के लिए उसका संविधान होना अत्यावश्यक है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र का भी एक संविधान है जो विश्व का अनूठा व विशालतम संविधान है। इसकी संरचना सन् 1946 में मन्त्रिमण्डलीय मिशन की योजना के अन्तर्गत गठित संविधान सभा ने की है।

संविधान सभा का अर्थ (Meaning of Constituent Assembly)

संविधान सभा वह सभा होती है जिसका गठन संविधान की रचना हेतु किया जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 17वीं व 18वीं शताब्दियों की लोकतान्त्रिक क्रान्तियों के परिणामस्वरूप ही संविधान सभाओं के गठन की प्रेरणा मिली थी।

जनतान्त्रिक क्रान्तियों के पश्चात् प्रायः यह माँग की जाने लगी थी कि कानून व विधान निर्माण हेतु एक विशिष्ट प्रतिनिधि सभा (संविधान सभा) का गठन होना चाहिए।

जैनिंग्ज के शब्दों में, “संविधान सभा एक ऐसी प्रतिनिध्यात्मक संस्था होती है जिसे नवीन संविधान पर विचार करने और अपनाने या विद्यमान संविधान में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने के लिए चुना जाता है।”

संविधान सभा की संरचना (Structure of Constituent Assembly)

कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार, जुलाई-अगस्त 1946 में संविधान सभा चुनाव सम्पन्न हुए।

कैबिनेट मिशन के फार्मूले के अनुसार, संविधान सभा में प्रान्तों के अधिक से अधिक 296 सदस्य हो सकते थे और देशी राज्यों के 93। प्रान्तों के 296 सदस्यों का साम्प्रदायिक आधार पर इस तरह से बँटवारा किया गया था— मुसलमानों के 79 प्रतिनिधि, सिक्खों के 4 प्रतिनिधि तथा 213 सामान्य सीटें (मुसलमान और सिक्खों को छोड़कर शेष सभी वर्गों को दिये गये स्थान)। पाकिस्तान के निर्माण और मुस्लिम लीग द्वारा संविधान सभा के बहिष्कार के कारण सदस्य संख्या गिर गई। उसमें प्रान्तों के केवल 235 और देशी रियासतों के 73 प्रतिनिधि रह गये थे। संविधान के अन्तिम मूल मसौदे पर इन्हीं 308 सदस्यों ने हस्ताक्षर किये थे।

संविधान सभा के लिए कुल 389 सदस्यों में से, प्रान्तों के लिए निर्धारित 296 सदस्यों के लिए ही ये चुनाव हुए थे। चुनावों के परिणामस्वरूप संविधान सभा में जो दलीय स्थिति बनी, वह इस प्रकार थी-

काँग्रेस 208
मुस्लिम लीग 73
यूनियनिस्ट पार्टी 1
यूनियनिस्ट पार्टी 1
यूनियनिस्ट शिड्यूल कास्ट 1
कृषक प्रजा पार्टी 1
अछूत जाति संघ 1
सिक्ख (काँग्रेस के अतिरिक्त) 1
साम्यवादी 1
स्वतंत्र 8
  296

संविधान सभा में अपनी स्थिति निर्बल देखकर मुस्लिम लीग ने संविधान सभा के बहिष्कार का निश्चय किया और 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि सम्मिलित नहीं हुए। अब लीग ने पाकिस्तान के लिए बिल्कुल पृथक् संविधान सभा की माँग प्रारम्भ कर दी। काँग्रेस और ब्रिटिश सरकार ने इस बात के प्रयत्न किये कि लीग व्यर्थ का हठ छोड़ दे और संविधान सभा के कार्य में सहयोग करे, किन्तु सभी प्रयत्न विफल हुए।

चुनाव की विधि (Election Method)

प्रान्तों के प्रतिनिधियों का चुनाव जुलाई, 1946 में प्रान्तीय विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा किया गया। देशी राज्यों के आधे प्रतिनिधि राजाओं द्वारा मनोनीत किये गये और आधे जनता द्वारा चुने गये। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत के बालिग स्त्री-पुरुषों ने प्रत्यक्ष रूप से संविधान सभा के सदस्यों को नहीं चुना। संविधान सभा की प्रथम बैठक का सभापतित्व सच्चिदानन्द सिन्हा ने किया। यह सम्मान उन्हें इसलिए प्रदान किया गया क्योंकि संविधान सभा के सबसे वयोवृद्ध सदस्य वे ही थे। बाद में संविधान सभा ने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को अपना अध्यक्ष चुना। उन्होंने बड़ी योग्यता, मर्यादा और निष्पक्षता से इस पद की जिम्मेदारी का निर्वाह किया।

संविधान सभा के सर्वाधिक प्रभावशाली सदस्य थे- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना आजाद, – जवाहरलाल नेहरू, बल्लभभाई पटेल, डॉ. अम्बेडकर, गोविन्द बल्लभ पन्त, एन. जी. आयंगर, कृष्णा स्वामी अय्यर, के. एन. मुंशी, आचार्य कृपलानी तथा श्यामाप्रसाद मुखर्जी। इनमें से अधिकांश काँग्रेस कार्यकारिणी समिति के सदस्य थे। नेहरू देश के प्रधानमन्त्री थे, पटेल गृहमन्त्री थे, आजाद शिक्षा मन्त्री थे और अम्बेडकर, एन. जी. आयंगर तथा श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी मन्त्री पद पर आसीन । गोविन्द बल्लभ पन्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री थे। ये सभी सुशिक्षित थे।

संविधान सभा की प्रथम बैठक (First Meeting of Constituent Assembly)

संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को सम्पन्न हुई। मुस्लिम लीग ने इस संविधान सभा का बहिष्कार किया। पहली बैठक में 207 सदस्यों ने हिस्सा लिया। 11 दिसम्बर, 1946 को सर्वसम्मति से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सभा का अध्यक्ष चुना गया और अन्त तक वे ही अध्यक्ष रहे।

उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution )

पं. जवाहरलाल नेहरू के द्वारा इस सभा में दिनांक 13 दिसम्बर, 1946 के दिन ही उक्त संविधान सभा के उद्देश्यों का एक संकल्प प्रस्तुत किया जोकि 22 जनवरी, 1947 ई. के दिन सभा में भारी बहुमत से पारित हुआ।

इस उद्देश्य प्रस्ताव को पं. जवाहरलाल नेहरू ने 13 दिसम्बर, 1946 को सभा में प्रस्तुत करते हुए कहा था कि “इसमें हमारे उद्देश्यों की व्याख्या की गई है, योजना की रूपरेखा दी गई है और बताया गया है कि हम किस रास्ते पर चलने वाले हैं।” यह प्रस्ताव एक प्रकार से प्रभुत्व सम्पन्न लोकतन्त्रात्मक भारतीय गणराज्य की जन्मपत्री था। प्रस्ताव में कहा गया था

(1) यह संविधान सभा अपने इस दृढ़ और गम्भीर संकल्प की घोषणा करती है कि वह भारत को एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता सम्पन्न गणराज्य घोषित करेगी और उसके भावी शासन के लिए एक ऐसे संविधान की रचना करेगी।

(2) जिसके अन्तर्गत वे राज्य-क्षेत्र जो ब्रिटिश भारत के अन्तर्गत आते हैं तथा वे राज्य-क्षेत्र जो अब देशी राज्यों के अन्तर्गत आते हैं और भारत के ऐसे अन्य भाग जो ब्रिटिश भारत के बाहर हैं और ऐसे राज्य तथा राज्य क्षेत्र जो स्वतंत्र प्रभुत्व-सम्पन्न भारत के भीतर सम्मिलित होने के लिए प्रस्तुत हैं, आपस में मिलकर एक संघ के रूप में गठित होंगे।

(3) जिसके अन्तर्गत उपर्युक्त राज्य क्षेत्र जिनमें चाहे तो उनकी वर्तमान सीमायें सम्मिलित हों या अन्य ऐसी सीमाएँ सम्मिलित हों जिनका संविधान सभा भविष्य में संविधान की विधि के अनुसार निर्णय करे, स्वायत्तशासी एककों की सत्ता से सम्पन्न होंगे और उसे बनाये रखेंगे। उनके पास अविशिष्ट शक्तियाँ होंगी और वे सरकार तथा प्रशासन की सारी शक्तियों का प्रयोग करेंगे तथा उनके सारे कार्य करेंगे। इसके अपवाद केवल वे शक्तियाँ और कार्य होंगे जो संघ में निहित हों या संघ को सौंपे गये हों।

(4) जिसके अन्तर्गत प्रभुत्व सम्पन्न और स्वतंत्र भारत की, उसके अंगभूत भागों और शासन के अंगों की समूची शक्ति और सत्ता जनता से प्राप्त हुई हो।

(5) जिसके अन्तर्गत विधि तथा सार्वजनिक नैतिकता के अधीन रहते हुए भारत के सभी लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की स्थिति और अवसर की तथा विधि के सम्मुख समानता की, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना, व्यवसाय और कार्य की गारण्टी दी जायेगी और उन्हें प्राप्त किया जायेगा।

(6) जिसके अन्तर्गत अल्पसंख्यकों, पिछड़े हुए और कबाइली क्षेत्रों तथा दलित और अन्य पिछड़े हुए वर्गों के लिए उपयुक्त परिणामों की व्याख्या की जायेगी।

(7) जिसके अन्तर्गत न्याय तथा सभ्य राष्ट्रों की विधि के अनुसार गणराज्य के राज्य-क्षेत्रों की अखण्डता की और जल, समुद्र तथा आकाश पर उसके प्रभुता अधिकारों की रक्षा की जायेगी।

(8) यह प्राचीन देश संसार में अपना न्यायपूर्ण और सामान्य स्थान प्राप्त करेगा और विश्व-शान्ति तथा मानव-जाति के कल्याण के उन्नयन के लिए अपना पूर्ण तथा सहर्ष योग देगा। यह उद्देश्य प्रस्ताव ही भारतीय संविधान का आधार बना।

उपर्युक्त उद्देश्य संकल्प ने उन मूलोद्देश्यों की घोषणा की, जिनके आधार पर भारतीय संविधान की रचना हुई।

उद्देश्य प्रस्ताव के सम्बन्ध में पं. नेहरू ने कहा था कि “इस प्रस्ताव में हमारी वे आकांक्षाएँ व्यक्त की गयी हैं, जिनके लिए हमने इतने कठोर संघर्ष किये हैं। संविधान सभा इन्हीं उद्देश्यों के आधार पर हमारे संविधान का निर्माण करेगी।”

श्री के. एम. मुंशी ने कहा था कि “नेहरू का उद्देश्य सम्बन्धी यह प्रस्ताव ही हमारे ने स्वतंत्र गणराज्य की जन्मकुण्डली है।” भारतीय संविधान में ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ का वही महत्व है जो अमेरिकी संविधान में स्वतंत्रता की घोषणा का है।

संविधान सभा में प्रक्रिया (Process in Constituent Assembly)

संविधान सभा ने जब 9 दिसम्बर, 1946 को अपनी कार्यवाही आरम्भ की तो कार्य संचालन और प्रक्रिया सम्बन्धी उसके अपने कोई नियम नहीं थे। 10 दिसम्बर को अस्थाई नियमों की स्वीकृति के लिये प्रस्ताव करते समय, पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने कहा – “यह संविधान सभा बाहर की किसी सत्ता के द्वारा बनाये गये किन्हीं नियमों-अधिनियमों के बिना आरम्भ हुई है, इसे अपने नियमों का निर्माण स्वयं ही करना होगा।” 10 दिसम्बर को ही सभा ने एक प्रस्ताव करके स्थायी अध्यक्ष के निर्वाचन के लिये प्रक्रिया तय की और अस्थाई तौर पर केंद्रीय विधानसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन सम्बन्धी नियमों को स्वीकार किया। इसी दिन एक ‘प्रक्रिया नियम समिति’ ( Committee on Rules of Procedure) बनाये जाने सम्बन्धी प्रस्ताव भी पास कर दिया। समिति को यह काम सौंपा गया कि वह प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों, अध्यक्ष की शक्तियों, संविधान सभा के कार्य-संगठन और अधिकारियों की नियुक्ति, सभा के रिक्त स्थानों को भरने की प्रक्रिया आदि के बारे में सिफारिशें करे। जब तक अन्तिम रूप से नियमों का निर्माण न हो जाये तब तक के लिये अध्यक्ष द्वारा ही सदस्यों और कर्मचारियों के वेतन, भत्ते आदि निश्चित करना उपयुक्त समझा गया। समिति की बैठक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में हुई। 21 दिसम्बर, 1946 को उन्होंने अपनी रिपोर्ट सभा में पेश कर में दी। 23 दिसम्बर को सभा के पूर्ण अधिवेशन में सम्पूर्ण सदन की संमिति द्वारा पारित नियमों को स्वीकार कर लिया गया ।

संविधान सभा द्वारा समितियों का गठन (Formation of Community by Constituent Assembly)

भारत जैसे विशाल और विविधताओं से परिपूर्ण देश के लिए संविधान का निर्माण निश्चित रूप से एक दुष्कर कार्य था, अतः इस संविधान निर्माण के कार्य को सुगम करने के लिए संविधान सभा ने अनेक महत्वपूर्ण समितियों का निर्माण किया। मुख्य रूप से इन समितियों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम वर्ग की समितियाँ, संविधान निर्माण की प्रक्रिया के प्रश्नों को हल करने के लिए गठित की गयी थीं। इनमें प्रक्रिया समिति, वार्ता समिति, संचालन समिति (Steering Committee) एवं कार्य समिति Committee) विशेष उल्लेखनीय हैं। दूसरे वर्ग में संविधान निर्माण करने वाली समितियाँ थीं, जिनमें उल्लेखनीय थी- संघ संविधान समिति, प्रान्तीय संविधान समिति, संघ शक्ति समिति, मूल अधिकारों और अल्पसंख्यकों आदि से सम्बन्धित समिति आदि। इन सबके अतिरिक्त ‘प्रारूप समिति’ (Drafting Commitee) थी, जिस पर संविधान को अन्तिम रूप देने का भार था। प्रारूप समिति 29 अगस्त, 1947 को गठित की गयी थी और डॉ. अम्बेडकर इसके सभापति चुने गये। इस समिति के अन्य सदस्य थे— श्री एन. गोपालास्वामी आयंगर, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर, मोहम्मद सादुल्ला, के. एम. मुंशी, बी. एल. मित्तर और डी. पी. खेतान। थोड़े समय बाद बी. एल. मित्तर का स्थान एन. माधवन राव द्वारा लिया गया और सन् 1948 में डी. पी. खेतान की मृत्यु हो जाने पर उनका स्थान टी. टी. कृष्णमाचारी द्वारा लिया गया।

संविधान सभा के सम्मुख समस्याएँ (Problems before the Constituent Assembly

संविधान सभा ने अपना कार्य बड़ी कठिनाइयों में सम्पन्न किया। एक ओर उसे संविधान बनाना था और दूसरी ओर भारत के शासन के लिए समय-समय पर कानून भी बनाने थे। संक्षेप में, संविधान सभा के सामने आयी कठिनाइयों का वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है

(1) संविधान सभा को संसार के सबसे बड़े प्रजातन्त्र के लिए संविधान बनाना था, जिसकी तत्कालीन जनसंख्या 36 करोड़ थी। फिर ये 36 करोड़ लोग एक समान भी नहीं थे।

देश में भिन्न-भिन्न धर्म, जाति, संस्कृति, भाषा विद्यमान थी जो आज भी हैं। इस ‘अनेकता में एकता’ (Unity in diversity) स्थापित करना सरल कार्य नहीं था।

(2) संविधान निर्माताओं के सामने एक बड़ी समस्या देशी रियासतों के सम्बन्ध में थी। कैबिनेट मिशन योजना और माउन्टबेटन योजना के अन्तर्गत देशी नरेशों को पूर्ण स्वतंत्रता दे दी गई थी कि वे चाहें तो भारत में सम्मिलित हो सकते हैं, चाहें तो पाकिस्तान में और चाहें तो स्वतंत्र भी रह सकते हैं। परिणामस्वरूप कई नरेश स्वतंत्र होने की प्रबल अभिलाषा रखते थे और उन्होंने इस सम्बन्ध में प्रयत्न भी किये। इसके अतिरिक्त बहुत से नरेश प्रजातन्त्रात्मक शासन पद्धति के भी विपरीत थे, क्योंकि उनके अधिकार सीमित होते थे। इस प्रकार संविधान निर्माताओं को देशी रियासतों को भारत में मिलाने तथा उनमें प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था स्थापित करने के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा।

(3) संविधान निर्माताओं के सामने एक गम्भीर साम्प्रदायिकता (Communalism) थी। सन् 1946 तक यह अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी। पाकिस्तान के निर्माण से भी साम्प्रदायिकता की समस्या हल नहीं हुई। संविधान निर्माताओं के सामने पृथक् चुनाव प्रणाली (Separate electorate) जैसी बातें थीं जिनको समाप्त करना था, वह भी सभी जातियों व वर्गों की सहमति से।

(4) अल्पसंख्यकों, पिछड़ी जातियों, कबायली जातियों के हितों की रक्षा व्यवस्था भी एक समस्या थी ।

(5) संघ व इकाइयों के लिए एक ही संविधान बनाना था।

(6) देश की राष्ट्रीय भाषा व प्रादेशिक भाषाओं का भी जटिल प्रश्न था ।

आलोचना (Criticism)

संविधान सभा के संगठन तथा कार्य-करण के सम्बन्ध में कुछ मुख्य आलोचनाएँ इस प्रकार हैं-

(1) संविधान सभा का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था। अतः इसे सच्ची प्रतिनिधिक सभा नहीं कहा गया है।

(2) सभा में काँग्रेस दल का एकाधिकार था।

(3) संविधान निर्माण के कार्य को शुरू से ही कानूनी सुझाव दिया गया। अतः कानून वेत्ताओं का इसके निर्माण में प्रमुख हाथ रहा था। प्रत्येक संशोधन पर पूर्णतया विचार न हो सका।

(4) केवल नेहरू, पटेल, अम्बेडकर आदि कुछ प्रमुख व्यक्तियों का इसके निर्माण में मुख्य हाथ रहा।

(5) संविधान को लोकप्रिय अनुज्ञप्ति (Popular Sanction) प्राप्त नहीं था। न तो सभा के सदस्यों का चुनाव जनता ने प्रत्यक्ष रूप से किया और न लोकमत संग्रह (Reterendum) द्वारा ही संविधान को जनता ने स्वीकृति दी।

निष्कर्ष (Conclusion)

भारतीय संविधान भारत का विशालतम संविधान है। इसमें भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े आदर्शों तथा गाँधीवादी सिद्धान्तों का पर्याप्त मात्रा में समावेश किया गया है। यह एक .लोकप्रिय संविधान है जिसे भारतीय जनता की ओर से संविधान सभा के सदस्यों ने निर्मित किया है। भारतीय संविधान में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय तथा स्वतंत्रता सम्बन्धी प्रावधानों का समावेश किया गया है। संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किये गये उद्देश्य प्रस्ताव संविधानों हेतु मार्ग-निर्देशक सिद्धान्त के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। निःसन्देह भारतीय संविधान विश्व का एक अनूठा संविधान है तथा आवश्यकतानुसार परिवर्तनों की पर्याप्त संभावनाएँ हैं।

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Anjali Yadav

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