संस्कृति से आप क्या समझते हैं ? संस्कृति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए ।
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संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Culture)
मानव की सबसे अनमोल निधि उसकी संस्कृति है। संस्कृति एक ऐसा वातावरण है, जिसमें रहकर मानव एक सामाजिक प्राणी बनता है और प्राकृतिक वातावरण को अपने अनुकूल बनाने की क्षमता प्राप्त करता है। हांबेल का मत है कि, “संस्कृति ही वह वस्तु है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से, एक समूह को दूसरे समूहों से और एक समाज को दूसरे समाजों से अलग करती है।”
साधारण अर्थ में संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों की सम्पूर्णता है। लेकिन संस्कृति की अवधारणा इतनी विस्तृत है कि उसे एक वाक्य में परिभाषित करना असंभव है। वास्तव में मनुष्य द्वारा अप्रभावित प्राकृतिक शक्तियों को छोड़कर जितनी मानवीय परिस्थितियाँ चारों ओर से प्रभावित करती हैं, उन सभी की सम्पूर्णता को हम संस्कृति कहते हैं और इस प्रकार संस्कृति के इस घेरे का नाम ही सांस्कृतिक वातावरण है। दूसरे शब्दों में, ‘‘संस्कृति एक व्यवस्था है, जिसमें हम व्यवहार के तरीकों, अनेकानेक भौतिक एवं अभौतिक प्रतीकों, जीवन के प्रतिमानों, परम्पराओं, विचारों, मानवीय क्रियाओं, सामाजिक मूल्यों और आविष्कारों को शामिल करते हैं।”
प्रमुख विद्वानों ने संस्कृति को निम्नांकित शब्दों में परिभाषित किया है-
1. टायलर (E. B. Taylor) के अनुसार, “संस्कृति वह जटिल सम्पूर्णता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून तथा इसी प्रकार की ऐसी सभी क्षमताएँ और आदतों का समावेश रहता है, जिन्हें मानव समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है।”
2. मैलिनोवस्की (Malinowski) के अनुसार, “संस्कृति प्राप्त आवश्यकताओं की एक व्यवस्था और उद्देश्यात्मक क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है।”
3. मैकाइवर व पेज (MacIver and Page) के अनुसार, “हमारे रहने, विचार करने, प्रतिदिन के कार्यों, कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन और आनन्द में, संस्कृति हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”
4. ग्रीन (Green) के अनुसार, “संस्कृति, ज्ञान, व्यवहार एवं विश्वास के आदर्शकृत ढंगों की सामाजिक रूप से हस्तांतरित प्रणाली इसकी कलाकृतियों सहित है, जिन्हें ज्ञान एवं व्यवहार समय के परिवर्तन के अनुसार उत्पन्न एवं रक्षित रखते हैं।”
5. एच0 टी0 मजूमदार (H.T. Mazumdar) अनुसार, “संस्कृति मानव उपलब्धियों, भौतिक तथा अभौतिक का सम्पूर्ण योग है, जो समाजशास्त्रीय रूप से अर्थात् परम्परा एवं संचरण द्वारा क्षितिजीय एवं लम्ब रूप में हस्तांतरणीय है।”
6. लुण्डबर्ग (Lundberg) के अनुसार, “संस्कृति को उस व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें हम सामाजिक रूप से प्राप्त और आगामी पीढ़ियों को संचरित कर दिये जाने वाले निर्णयों, विश्वासों, आचरणों तथा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों से उत्पन्न होने वाले प्रतीकात्मक और भौतिक तत्वों को सम्मिलित करते हैं।”
7. टालकॉट पारसन्स (Talcott Parsons) के अनुसार, “संस्कृति वह पर्यावरण है, जो मानव क्रियाओं का निर्माण करने में आधारभूत है।”
8. फिचर (Fichter) के अनुसार, “संस्कृति एक पर्यावरण है, व्यक्ति संस्कृति में ही जन्म लेता है और इसी के अन्दर उसके व्यक्तित्व का विकास है।”
9. आर्नाल्ड ग्रीन (Arnold Green) के अनुसार, “एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती है, जब उसके पास लिखित भाषा, विज्ञान, दर्शन, अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रम विभाजन, एक जटिल प्रविधि और एक राजनीतिक पद्धति है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि, “संस्कृति, भौतिक और अभौतिक तत्त्वों की वह जटिल सम्पूर्णता है, जिसे व्यक्ति समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है तथा जिसमें वह अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है।”
संस्कृति के लक्षण या विशेषताएँ (Characteristics of Culture)
संस्कृति के प्रमुख लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार- मनुष्य समाज का सदस्य होता है और समाज सामाजिक संबंधों का जाल है। समाज में अनेक समूह और संस्थाएँ होती हैं, जिनमें निरंतर अन्तःक्रिया होती रहती है और इन्हीं अन्तःक्रियाओं में व्यक्ति का समाजीकरण होता रहता है। व्यक्ति समाज में रहकर जन्म से मृत्यु तक कुछ न कुछ सीखता रहता है और अनुभव प्राप्त करता रहता है, जो आगे चलकर संस्कृति का रूप धारण कर लेता है। संस्कृति किसी की न होकर समूह की हुआ करती है। अतः समूह के सीखे हुए व्यवहारों को ही संस्कृति कहा जाता है।
2. हस्तांतरणशीलता – संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है, जो अनेक पीढ़ियों तक हस्तांतरित होता रहता है। मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी है, अतः वह अपने ज्ञान के आधार पर अपने सीखे हुए व्यवहारों को आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित कर देता है और इसे हस्तांतरण का आधार उस समूह की भाषा और उस समूह के द्वारा स्वीकृति प्राप्त प्रतीक या चिन्ह होते हैं, जो अत्यंत पवित्र समझे जाते हैं और इन प्रतीकों के प्रति समूह की गहरी श्रद्धा होती है। हस्तांतरणशीलता के कारण ही संस्कृति हजारों-लाखों वर्षों के बाद भी नष्ट नहीं होती है।
3. सामाजिकता – व्यक्ति के द्वारा संस्कृति का निर्माण होता है और हर व्यक्ति में संस्कृति गुण पाये जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति संस्कृति के संबंध में प्रयत्नशील रहता है, किन्तु संस्कृति व्यक्तिगत के नहीं होती, यह सामाजिक होती है। किसी व्यक्ति विशेष के गुणों को संस्कृति नहीं कहा जा सकता है। संस्कृति सामाजिक गुणों का नाम है। संस्कृति में सभी सामाजिक गुणों का समावेश होता है, जैसे धर्म, प्रथा, परम्परा, रीति-रिवाज, रहन-सहन, कानून, साहित्य, भाषा आदि। संस्कृति समूह के सदस्यों में एकरूपता लाती है और सदस्यों के व्यवहारों को समूह की दशाओं के अनुकूल बनाती है।
4. आदर्शात्मक – संस्कृति समूह के सदस्यों के व्यवहारों का आदर्श रूप होती है और प्रत्येक सदस्य उसे आदर्श मानता है। संस्कृति में सामाजिक विचार, व्यवहार, प्रतिमान एवं आदर्श प्रारूप होते हैं और इन्हीं के अनुसार कार्य करना श्रेष्ठ समझा जाता है। प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति को दूसरे समाजों की संस्कृति से श्रेष्ठ मानता है। इस श्रेष्ठता का आधार उसकी संस्कृति के आदर्श प्रतिरूप ही हैं।
5. आवश्यकताओं की पूर्ति- आवश्यकता आविष्कार की जननी है और इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो साधन या उपकरण अपनाए जाते हैं, कालान्तर में संस्कृति का रूप धारण कर लेते हैं। अनेक आवश्यकताएँ ऐसी होती है जिनकी पूर्ति अन्य साधनों से न होकर संस्कृति के माध्यम से होती है। सामाजिक और प्राणिशास्त्रीय दोनों प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति संस्कृति द्वारा होती है। अधिकांशतः ऐसा देखा गया है कि संस्कृति जब आवश्यकताओं की पूर्ति कराने में अपने को असमर्थ पाती है, नष्ट हो जाती है।
6. अनुकूलन की क्षमता – समाज परिवर्तनशील है और इसके साथ-ही-साथ संस्कृति भी परिवर्तित होती रहती है। इन परिवर्तनों के बीच प्रत्येक संस्कृति को अपने पर्यावरण से अनुकूलन करना पड़ता है। इसके साथ ही समय की माँग के अनुसार भी संस्कृति को परिवर्तित होना पड़ता है। यह परिवर्तन सतत चलता रहता है। जैसे कबूतर से सन्देश भेजने के स्थान पर आज बेतार के तार या वायरलैस से संदेश भेजा जाता है, रथ और बैलगाड़ी का स्थान रेल, मोटर और वायुयान ने ले लिया है। संस्कृति में समय के अनुसार इसी परिवर्तनशीलता को ही अनुकूलन का गुण कहा जाता है।
7. एकीकरण की क्षमता – संस्कृति के विभिन्न अंग मिलकर एक समग्रता का निर्माण करते हैं। संस्कृति के ये प्रतिमान स्थिर और दृढ़ होते हैं। प्रत्येक संस्कृति अपने अवयवों को एक सूत्र में बाँधे रहती है और साथ ही दूसरी संस्कृति के तत्वों को भी आत्मसात करती रहती है। चूँकि संस्कृति के तत्व एकीकृत रहते हैं, अतः इनमें शीघ्र परिवर्तन नहीं हो पाते हैं।
8. पृथक्ता या भिन्नता – संस्कृति का निर्माण देश, काल और परिस्थिति के मध्य होता है इसलिए एक देश की संस्कृति दूसरे देश से भिन्न होती है। प्रत्येक देश के व्यक्तियों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं, अतः आविष्कारों का निर्माण भी भिन्न भिन्न होता है। चूँकि आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं, अतः आचार-विचार और व्यवहार भी अलग-अलग होते हैं। इसीलिए एक देश की संस्कृति दूसरे देश की संस्कृति से पृथक् या भिन्न होती है।
9. आधि-वैयक्तिक तथा आधिसावयवी- संस्कृति एक व्यक्ति के व्यवहार का परिणाम न होकर सामूहिक व्यवहार का परिणाम होती है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि संस्कृति व्यक्ति की शक्ति के ऊपर होती है। यह सामूहिक व्यवहार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होता है। संस्कृति द्वारा व्यक्ति के आचार-विचार, रहन-सहन, वेशभूषा प्रभावित होते हैं, जबकि अकेला व्यक्ति संस्कृति के प्रतिमानों को बदल नहीं सकता है। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि संस्कृति आधिवैयक्तिक होती है।
लिप्पर्ट (Lippert) का कहना है कि संस्कृति आधिसावयवी भी होती है। सावयवी का अर्थ उन प्राणिशास्त्रीय या जैवकीय विशेषताओं से है, जिनकी सहायता से व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी बन सका और संस्कृति का निर्माण कर सका है। उदाहरणार्थ मानव में सीधे खड़े होने की क्षमता, तीक्ष्ण बुद्धि, बोलने की क्षमता आदि वे सावयवी विशेषतायें हैं, जिनकी सहायता से व्यक्ति संस्कृति का निर्माण कर सका है। लेकिन व्यक्ति की ये सावयवी विशेषतायें संस्कृति से कम महत्वपूर्ण हैं क्योंकि संस्कृति के अभाव में व्यक्ति की सावयवी विशेषतायें भी उपयोगी नहीं हो सकतीं। इसीलिए संस्कृति को आधि-सावयवी भी कहा जाता है।
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