समन्वयकारी युग-प्रतिनिधि के रूप में मैथिलीशरण गुप्त का मूल्यांकन कीजिए। अथवा आधुनिक हिन्दी-काव्य में गुप्तजी का योगदान, महत्त्व और स्थान निर्धारित कीजिए।
श्री मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की कतिपय विशेषताएँ उन्हें समन्वयकारी युग-प्रतिनिधि और राष्ट्रीय कवि सिद्ध करती हैं। गुप्तजी राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत, आर्य संस्कृति के प्रति निष्ठावान, गाँधीवाद के समर्थक और युग-धर्म के संयोजक थे। उनकी प्रत्येक विचारधारा पुष्ट और व्यापक है। काव्यत्व के अतिरिक्त उनके विचारों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत देखा जा सकता है-
राष्ट्रीयता- गुप्त जी राष्ट्रीय कवि हैं। उनका सम्पूर्ण काव्य राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत है। भारत-भारती, स्वदेश प्रेम आदि की कविताओं में उनके राष्ट्र प्रेम की भावनाओं की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। वे मातृभूमि को केवल भूखण्ड मात्र नहीं, अपितु ‘सर्वेश की सगुण मूर्ति’ मानते हैं-
नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है,
सूर्य चन्द्र युग मुकुट मेखला रत्नाकर है।
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल-तारे मण्डल हैं,
बन्दीजन खगवृन्द, शेष फन सिंहासन है।
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेश की।
है मातृभूमि! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।
गाँधीवाद के समर्थक – गुप्तजी को गाँधी की शिक्षाओं पर गहन आस्था थी। वे स्वयं श्री सम्प्रदाय में दीक्षित थे, परन्तु गाँधी जी के प्रभाव से राम, कृष्ण, बुद्ध और मुहम्मद को एक दृष्टि से देखते थे। यह सर्व-धर्म-समन्वय की प्रेरणा उन्हें गाँधी जी से ही मिली थी। सहिष्णुता, विश्व कल्याण की कामना, अछूतोद्धार, विधवा-विवाह, स्त्री-शिक्षा, ग्राम-सुधार योजना, जातिवाद का बहिष्कार, हिन्दू-मुस्लिम एकता आदि के वर्णन उनकी गाँधीवादी विचारधारा को स्पष्ट करते हैं। गाँधीवाद का प्रभाव देखिए-
पापी का उपकार करो, हाँ पापों का प्रतिकार करो।
गाँधी के प्रभाव के कारण ही उनके ‘साकेत’ की सीता चरखा चलाती हैं, कृषि-कर्म करती हैं।
आर्य-संस्कृति के अगर संगायक – गुप्त जी आर्य संस्कृति के प्रति निष्ठावान् थे। उन्होंने संस्कृति के मूल तत्त्वों का समर्थन कर उनका गौरव-गान किया है। आचरण की शुद्धता तथा वर्ण और आश्रम धर्म का महत्त्व गुप्त जी अपने काव्य में सर्वत्र प्रतिपादित करते रहते हैं-
सब तीर्थों का तीर्थ यह हृदय पवित्र बना लें हम।
आओ यहाँ अजातशत्रु बन, सबको मित्र बना लें हम।
रेखाएँ प्रस्तुत हैं, अपने मन के चित्र बना लें हम।
सौ-सौ आदर्शों को लेकर एक चरित्र बना लें हम।
नारी का महत्त्व — युग-युग से प्रताड़ित नारी के प्रति गुप्त जी को अगाध श्रद्धा और सहानुभूति थी। नारी की करुणा दशा पर कवि के हृदय का भावुक उद्गार देखिए-
अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ॥
गुप्त जी ने अपने काव्यों-साकेत, यशोधरा, द्वापर आदि में नारी के गरिमामय महिमा-मण्डित रूप को प्रस्तुत किया। साकेत और यशोधरा में अब तक की उपेक्षित नारियों-उर्मिला और यशोधरा के चरित्र के सतरंगी चित्र प्रस्तुत किये गये हैं।
परम्परा और युग-धर्म का समन्वय- डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त का कथन है- “जिस प्रकार एक वृक्ष के आविर्भाव एवं विकास के लिए परम्परा-रूपी बीज एवं युग-धर्म की जलवायु अपेक्षित है, वैसे ही समाज और राष्ट्र के विकास के लिए इन दोनों का समन्वय अपेक्षित है। जब हमारी परम्पराएँ सगुण मूर्ति मानते हैं
युग-धर्म के अनुकूल होती हैं तो वह सहज गति से विकासोन्मुख रहती हैं तथा उनके साथ-साथ समाज का भी विकास होता रहता है, किन्तु जब इन दोनों में समय के प्रभाव से प्रतिकूलता आ जाती है, तो समाज के विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है। ऐसे समय में कोई महान् पुरुष अवतरित होता है जो परम्परा को नया रूप प्रदान करके उन्हें युग-धर्म के अनुकूल बनाता है। महापुरुष, महान् चिन्तक और महाकवि परम्परा और युग-धर्म के बीच की खाई को पाटते हुए अपने युग समाज और राष्ट्र की नयी गति प्रदान करते हैं। इसीलिए उन्हें युगावतार कहा जाता है।” गुप्त जी ऐसे ही युगावतार थे।
गुप्त जी ने प्राचीन परम्पराओं की थाती को सहेजकर उसे युग-धर्म के अनुरूप नया रूप प्रदान किया। अपने काव्य के द्वारा उन्होंने रामायण, महाभारत, पुराण आदि की प्राचीन कथाओं को युग धर्म के अनुरूप परिवर्तित कर प्रस्तुत किया। घटनाओं और पात्रों को आधुनिक समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में चित्रित किया है। आज के बुद्धिवादी युग में प्राचीन आख्यानों को ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। एक ओर तो अलौकिक और अतिमानवीय चरित्र पर अनेक प्रश्नचिह्न लगे हैं। दूसरी ओर हमारी आस्था की जड़ें अत्यन्त गहराई से उन प्राचीन कथाओं को पकड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में प्राचीन प्रसंगों की तर्कपरक व्याख्या करके परम्परा और युग धर्म में समन्वय करना गुप्तजी जैसे युगावतार कवि ही कर सकते हैं। ‘साकेत’ में पात्रों के परम्परागत स्वरूप को बनाये रखकर ही उन्होंने आधुनिकत आन्दोलनों को चित्रित किया है। राज्य व्यवस्था में प्रजा का अधिकार, विश्वबन्धुत्व की भावना, मानवतावाद का प्रसार, श्रमजीवियों के प्रति सहानुभूति युद्ध प्रथा की आलेचना आदि आधुनिक विचारधाराएँ हैं, जिन्हें रामकथा के परम्परागत पात्रों के द्वारा ही अभिव्यक्त किया गया है।
उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर गुप्त जी को हिन्दी साहित्य का प्रतिनिधि कवि कहा जा सकता है।
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