सीमान्तीकरण की अवधारणा स्पष्ट कीजिए। सीमान्तीकरण के कारणों एवं परिणामों की विवेचना कीजिए। अथवा निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए, हाशिये समूह के लिए शिक्षा|
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सीमान्तीकरण का अर्थ (Meaning of Marginalization)
सीमान्तीकरण भी परिवर्तन की एक विशेष प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया नकारात्मक है, जिसके द्वारा विभिन्न आधारों पर कुछ विशेष समूह अथवा समुदाय अपने समाज की सामाजिक-आर्थिक धारा से दूर होने लगते हैं। परम्परागत भारतीय समाज में अनुसूचित और पिछड़ी जातियों को विभिन्न अधिकारों से वंचित रखना उनके सीमान्तीकरण की स्थिति को प्रकट करता है। यूरोप में भी प्रजातीय अथवा रंग-भेद के आधार पर दीर्घकाल तक सीमान्तीकरण की समस्या प्रभावपूर्ण बनी रही। वास्तव में, सीमान्तीकरण वह प्रक्रिया है, जो कुछ विशेष स्थितियों के प्रभाव से धीरे-धीरे विकसित होती है। यह विकास और परिवर्तन का अकार्यात्मक पक्ष है। इसका आशय है कि जब विकास के प्रयत्नों के बाद भी नीतियों के दोषपूर्ण होने या स्वयं कमजोर समूहों की अपनी असमर्थताओं के कारण विभिन्न समूह विकास का लाभ पाने की जगह एक अभावपूर्ण और तिरस्कृत जीवन व्यतीत करने लगते हैं, तब इसी दशा को हम सीमान्तीकरण कहते हैं। किसी समूह में जैसे-जैसे सीमान्तीकरण में वृद्धि होती है, व्यक्ति अपने व्यवहारों के बारे में उचित निर्णय लेने की स्थिति में नहीं रह जाते। समाज में इस प्रकार की दशाएँ पैदा हो जाती हैं, जिसमें कुछ समूह सत्ता और सुविधाओं का लाभ पाने लगते हैं, जबकि सीमान्त समूह विकास को देखता तो है, लेकिन स्वयं उसका भागीदार नहीं बन पाता।
सीमान्त व्यक्ति (Marginal Man) के अर्थ के सन्दर्भ में सीमान्तीकरण की अवधारणा को सरलता से समझा जा सकता है। रॉबर्ट ई. पार्क ने समाजशास्त्र में सर्वप्रथम सीमान्त व्यक्ति की अवधारणा को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, “जो व्यक्ति दुविधा में उलझे होने के कारण अपने बारे में स्वयं कोई निर्णय लेने में असमर्थ होता है, उसे हम सीमान्त व्यक्ति कहते हैं।” सौरेफ के अनुसार, “एक सीमान्त व्यक्ति वह है, जो अपने समूह के मूल्यों के अनुसार जीवन व्यतीत करते हुए भी अनेक प्रकार के अभावों के कारण किसी पराए समूह के मूल्यों के अनुसार जीवन व्यतीत करते हुए भी अनेक प्रकार स्वीकार करने लगता है, यद्यपि उन्हें पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पाता। द्वन्द्व की यही स्थिति सीमान्तीकरण को स्पष्ट करती है।”
सीमान्तीकरण के कारण एवं परिणाम (Causes and Consequences of Marginalization)
यदि हम सीमान्तीकरण के कारणों का उल्लेख करें, तो इनमें सबसे मुख्य दशा विकास भारत का लोकतांत्रिक ढाँचा उस संसदीय और संघीय प्रणाली पर आधारित है, जिसमें सभी निर्णय जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों से बनने वाली सरकार द्वारा लिए जाते हैं। हमारे देश में सिद्धान्तहीन राजनीति के कारण प्रत्याशियों के चयन तथा मंत्रिमण्डल में विभागों के बँटवारे का आधार जाति, धर्म, क्षेत्र क्षेत्र तथा व्यक्तिगत निष्ठाएँ हैं। इसके फलस्वरूप जिस समुदाय का प्रभाव जितना अधिक होता है, उसी की इच्छानुसार विभिन्न विकास कार्यक्रमों का निर्धारण होता है। स्वाभाविक है कि वोट बैंक के दृष्टिकोण से कमजोर समुदायों के प्रति अधिकांश जनप्रतिनिधि उदासीन रहते हैं। सब कुछ जानने के बाद भी सरकार और प्रशासन द्वारा ऐसे वर्गों की समस्याओं पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, जिनसे उनके वोट की राजनीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अनेक सर्वेक्षण यह स्पष्ट करते हैं कि विकास कार्यक्रमों पर होने वाले व्यय का अधिकांश हिस्सा बंदर बाँट के कारण समाज में कोई रचनात्मक परिवर्तन नहीं ला पाता। केन्द्र तथा राज्य स्तर पर अधिकांश सरकारों वही जानती और कहती हैं, जो सरकारी रिकॉर्ड से सम्बन्धित होता है। महात्मा गांधी ने अपने तीन बन्दरों को इस आधार पर आदर्श माना था कि बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो। इस आदर्श का रूपान्तरण आज कुछ इस तरह हो गया है कि कुछ मत देखो, कुछ मत सुनो और जो हो रहा है, उस पर कुछ मत बोलो। यह दशा राजनीति के क्षेत्र में जितनी सही है, उतनी ही सही अधिकारीतंत्र के बारे में भी है।
विकास के लचर व्यावहारिक प्रोग्राम सीमान्तीकरण का एक अन्य प्रमुख कारण है। कमजोर वर्गों की स्थिति में सुधार करने के लिए दीर्घकालीन कार्यक्रम इस तरह की नीतियों पर आधारित होना जरूरी है, जिनकी सहायता से उनके वास्तविक प्रभाव का सही आकलन किया जा सके। वर्तमान में एक ही विकास कार्यक्रम से सम्बन्धित विभिन्न योजनाएँ परस्पर विरोधी होने के साथ अनेक विभागों से सम्बन्धित हैं, जिसके फलस्वरूप उनके क्रियान्वयन के लिए किसी एक विभाग को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।’ इससे विकास का लाभ दुर्बल वर्गों तक नहीं पहुँच पाता। इसके साथ ही अनियोजित औद्योगीकरण के फलस्वरूप कुछ वर्गों में सीमान्तीकरण की वृद्धि होने लगती है, जबकि अनेक क्षेत्रों में एक विशेष उद्योग से सम्बन्धित कार्यकुशल व्यक्ति उपलब्ध नहीं हो पाते। अनियोजित औद्योगीकरण के फलस्वरूप ही विस्थापन की समस्या में भी वृद्धि होने लगती है।
भारतीय समाज में जो वर्ग जितना अधिक सीमान्त है, उसमें शिक्षा और साक्षरता की उतनी ही अधिक कमी है। सीमान्त वर्ग अपनी कमी के कारण न तो विकास योजनाओं का लाभ प्राप्त कर पाते हैं और न ही अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होते हैं। इस दशा में उन्हें विकास के लाभों से वंचित करना अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए बहुत सरल हो जाता है। हमारे समाज में आज भी कमजोर वर्ग पारलौकिकता सम्बन्धी विश्वासों के अधीन है। अधिकांश लोग अपनी समस्याओं का कारण स्वयं अपने भाग्य अथवा पूर्व जन्मों के कर्मों का परिणाम मानते रहे हैं। इसके फलस्वरूप उन्हें अपनी योग्यता और कुशलता को बढ़ाने का प्रोत्साहन नहीं मिल पाता। विभिन्न अध्ययनों से यह भी तथ्य स्पष्ट हुआ है कि जब किसी समुदाय में सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया बढ़ती है, तब यहाँ सीमान्तीकरण में भी वृद्धि होने लगती है। वास्तविकता यह है कि एक विशेष समुदाय के मूल्य, परम्पराएँ तथा विभिन्न संस्थाएँ आर्थिक अभावों के बाद भी लोगों के जीवन को सन्तुलित बनाए रखने में योगदान करती हैं। जब परम्परागत संस्थाओं और मूल्यों में विघटन की प्रवृत्ति आरम्भ होती है, तो बहुत बड़ी संख्या में लोग नई दशाओं से अनुकूलन न कर पाने के कारण आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में पिछड़ने लगते हैं। इससे भी सीमान्तीकरण में वृद्धि होने लगती है। वर्तमान युग में सीमान्तीकरण का सबसे मुख्य कारण विकसित देशों के आर्थिक और सांस्कृतिक स्वार्थ हैं। विकसित देशों का यह प्रयत्न रहता है कि अपने आर्थिक और राजनीतिक दबाव के द्वारा अल्पविकसित देशों में इस तरह की दशाएँ पैदा की जाएँ, जिससे वहाँ किसी-न-किसी रूप में राजनीतिक अस्थिरता तथा आर्थिक निर्भरता की दशा बनी रहे। इसका सबसे प्रतिकूल प्रभाव सामाजिक तथा आर्थिक असमानताओं में वृद्धि के रूप में देखने को मिलता है। इस तरह की असमानताओं में होने वाली प्रत्येक वृद्धि सीमान्तीकरण की प्रक्रिया में भी वृद्धि करने लगती है।
उपर्युक्त कारणों से उत्पन्न होने वाले सीमान्तीकरण के विभिन्न परिणाम भारत के राष्ट्रीय, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा मनोवैज्ञानिक सभी क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। सीमान्तीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली सबसे मुख्य समस्या राष्ट्रीय एकीकरण से सम्बन्धित है। सीमान्त समुदाय अपने आप को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग समझने के कारण अनेक प्रकार की विरोधपूर्ण और आन्दोलनकारी प्रवृत्तियाँ विकसित करने लगते हैं। विगत वर्षों में जनजातियों द्वारा किए जाने वाले विभिन्न आन्दोलन इस दशा का उदाहरण । आर्थिक क्षेत्र में सीमान्तीकरण के परिणाम आन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार के हैं। आन्तरिक स्तर पर इसकी सबसे विषम अभिव्यक्ति ऋणग्रस्तता तथा आर्थिक असमानताओं के रूप में देखने को मिलती है, जबकि बाह्य अथवा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकसित देशों पर बढ़ने वाली निर्भरता इस दशा का मुख्य परिणाम है। सामाजिक आधार पर सीमान्तीकरण की समस्या ने जहां अनेक प्रकार के सामाजिक विभेदों को प्रोत्साहन दिया, वहीं पारिवारिक स्तर पर इस दशा के फलस्वरूप घरेलू हिंसा तथा बच्चों के प्रति उदासीनता में वृद्धि होने लगी।
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