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सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त (Marginal Productivity)
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त इस बात की सामान्य व्याख्या करता है कि उत्पत्ति के साधनों का पुरस्कार किस प्रकार निर्धारित होता है। इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाले अर्थशास्त्री क्लार्क, विकस्टेड, वालरस जॉन रोबिन्सन तथा हिक्स आदि हैं।
दूसरे शब्दों में, सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त यह बताता है, “एक साधन की कीमत उसकी उत्पादकता पर निर्भर होती है तथा वह सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है।”
उपरोक्त कथन के दो भाग हैं-
(1) साधन की कीमत उसकी उत्पादकता पर निर्भर करती है- जिन साधनों की उत्पादकता अधिक होती है उनकी कीमत भी अधिक होगी। इसके विपरीत, जिन साधनों की उत्पादकता कम होती है उनकी कीमत भी कम होगी।
(2) साधनों की कीमत सीमान्त उत्पादकता द्वारा निर्धारित होती है— अन्य साधनों को स्थिर रखकर परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई के प्रयोग से कुल उत्पादन (T.P.) में जो वृद्धि होती है उसे उस साधन की सीमान्त उत्पादकता कहते हैं।
सिंद्धान्त के अनुसार, उत्पादन के प्रत्येक साधन को उपज में से जो पारितोषिक प्राप्त होता है, वह दीर्घकाल में उस साधन की सीमान्त उत्पादकता के बराबर होता है। अल्पकाल में यह सीमान्त उत्पादकता से कम या अधिक हो सकता है।
सिद्धान्त की मान्यताएँ
वितरण का सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त निम्न मान्यताओं पर आधारित है-
- साधन सेवा की सभी इकाइयाँ समरूप हैं।
- साधन सेवा की सभी इकाइयाँ पूर्णरूप से स्थानापन्न हैं।
- साधन बाज़ार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
- साधन द्वारा उत्पादित वस्तु के बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है।
- अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखकर एक साधन की मात्रा को घटाया-बढ़ाया जा सकता है।
- प्रत्येक फर्म का उद्देश्य ‘लाभ को अधिकतम करना’ होता है।
- समाज में पूर्ण रोजगार की स्थिति पायी जाती है।
- यह नियम ‘परिवर्तनशील अनुपातों के नियम’ पर आधारित है।
- यह नियम दीर्घकाल में लागू होता है।
- विभिन्न साधन इकाइयाँ विभाज्य (Divisible) हैं।
साधन का मूल्य निर्धारण अथवा फर्म का साम्य
एक फर्म किसी साधन को उस सीमा तक प्रयोग करेगी जहाँ पर कि उस साधन की एक अतिरिक्त इकाई “के प्रयोग करने से कुल आगम में वृद्धि (अर्थात् सीमान्त आगम उत्पादकता – MRP) उस अतिरिक्त इकाई की लागत (अर्थात् सीमान्त साधन लागत – MFC) के बराबर हो जाये। दूसरे शब्दों में, फर्म के साम्य के लिए निम्न दशा का पूरा होना आवश्यक है-
MRP = MFC
यदि MRP, MFC से अधिक है (MRP > MFC) तो इसका अर्थ है कि फर्म साधन की अतिरिक्त इकाइयों का प्रयोग करके अपने लाभ को बढ़ा सकेगी। यदि MRP, MFC से कम है (MRP < MFC) तो फर्म अतिरिक्त इकाइयों का उत्पाद नहीं करेगी क्योंकि ऐसा करने से उसे हानि होगी। अतः एक फर्म किसी साधन की इकाइयों का प्रयोग उस सीमा तक करेगी जहाँ पर कि MRP = MFC है।
सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की आलोचनायें
वितरण के सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनायें निम्नलिखित हैं-
(1) किसी एक साधन की सीमान्त उत्पादकता को ज्ञात करना कठिन है क्योंकि-
- किसी वस्तु की सीमान्त उत्पादकता विभिन्न साधनों के संयुक्त प्रयत्नों का परिणाम होती है।
- कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार तकनीकी बचतों के कारण साधनों के मिलने का अनुपात स्थिर होता है। और उसे बदला नहीं जा सकता।
- सभी साधन विभाज्य नहीं होते ।
(2) एक साधन की सभी इकाइयाँ एकरूप नहीं होतीं ।
(3) उत्पत्ति के साधन पूर्णतया गतिशील नहीं होते।
(4) पूर्ण प्रतियोगिता नहीं पायी जाती।
(5) पूर्ण रोजगार की मान्यता अवास्तविक है।
(6) सभी साधन विभाज्य नहीं होते ।
(7) प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लाभ ही नहीं है।
(8) यह एक दीर्घकालीन विश्लेषण है, जबकि व्यवहार में हमारा सम्बन्ध दीर्घकाल से न होकर अल्पकालीन समस्याओं से होता है।
(9) यह सीमान्त उत्पादकता का सिद्धान्त तकनीकी परिवर्तन के प्रभाव की उपेक्षा करके सापेक्ष भागों के निर्धारण पर प्रकाश डालने में असफल रहता है।
(10) यह सिद्धान्त अपूर्ण तथा एकपक्षीय है।
(11) यह सिद्धान्त धन के असमान वितरण का समर्थन करता है।
(12) साधनों के कुल भुगतानों का योग कुल उत्पादन के बराबर नहीं होता। संक्षेप में सीमान्त उत्पादकता सिद्धान्त एक स्थैतिक सिद्धान्त है और प्रावैगिक अर्थव्यवस्था में सिद्धान्त कीमत निर्धारण करने की व्याख्या में असफल रहता है।
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