सुमित्रानन्दन पंत के काव्य के क्रमिक विकास पर प्रकाश डालिए।
पन्त का काव्य अन्तर्मुखता का काव्य नहीं है उनकी प्रेरणा सदैव अपने बाहर के जीवन से आती हैं वे आत्म केन्द्रित अपने जीवन में कुछ रहे हों, साहित्य में कभी नहीं रहे। 1936 के आस पास वे यथार्थवादी भूमि से जुड़े और ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ से लेकर, ‘तुम हँसते-हँसते कृष्ण बन गये मन में मंगल हित” तक पन्त की सहानुभूति का विस्तार ही प्रकट करता है।
पन्त के काव्य का क्रमिक विकास भी इसी ओर संकेत करता है कि वे अपने पर पड़ने वाले बाह्य प्रभावों से प्रभावित रहे हैं। फिर वे प्रभाव के द्वारा पड़े हों, चेतना के विकास से उद्भूत हो रहे किसी विशिष्ट दर्शन के प्रभाव से उभरे हों। इसी प्रकार पन्त के काव्य के क्रमिक विकास का अध्ययन इस प्रकार विद्वानों ने प्रस्तुत किया है-
Contents
1. प्राकृतिक सौन्दर्यवादी युग (1919 से 1934 तक)–
पन्त जी ‘वीण’, ‘ग्रन्थ’, ‘पल्लव’ तथा ‘गुंजन’ की कविताओं में प्रकृति से अधिक प्रभावित रहे हैं। यद्यपि इन पर छायावादी शैली का प्रभाव भी हैं, पर प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति कवि की तन्मयता, मोहकता एवं संवेदनशीलता उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होती गयी है। यह प्रभाव इतना व्यापक है कि नारी-सौन्दर्य नारी-सौन्दर्य भी उन्हें प्रभावित करने में असमर्थ सा दिखाई देता है-
छोड़ द्रुमों की मृदु छया, तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले, तेरे बाल-जाल में, कैसे उलझा हूँ लोचन।
पन्त जी ने इसे स्वयं स्वीकार किया है- ‘मेरा विचार है कि ‘वीण’ से ग्राम्या तक मेरी सभी रचनाओं में प्राकृतिक सौन्दर्य का प्रेम किसी न किसी रूप से विद्यमान है।” कवि की इन रचनाओं में प्रेम, सौन्दर्य एवं दर्शन की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है। जिसमें भावों की तीव्रता के साथ-साथ कल्पना की सुकुमारता भी मिली हुई हैं कवि ने यहाँ चित्रओपम भाषा के अन्तर्गत चित्र रागों की सृष्टि की है और मानवीकरण विशेषण विवर्यय तथा ध्वन्यर्थ व्यंजना जैसे नूतन अलंकारों से अलंकृत खड़ी बोली में नादात्मक सौन्दर्य के साथ-साथ ध्वन्यात्मकता, लावाणिकता एवं प्रतीकात्मकता का समावेश करके अपनी प्रखर भाषा शक्ति का परिचय दिया है।
2. यथार्थवादी युग (1935 से 1945 तक)-
इस युग की रचनाओं पर मार्क्स और गाँधी की चेतना का प्रभाव दिखाई देता है इस कालखण्ड की प्रमुख कृतियाँ हैं- ‘युगान्त’, ‘युगवाणी’, ‘ग्राम्या’, ‘युगपथ’ एवं ‘पल्लविनी’।
इनकी भावभूमि यद्यपि भिन्न है, फिर भी इस युग की कवि चेतन को मोटे रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है। इन कृतियों में कवि-
(1) रूढ़िवादिता के प्रति आक्रोश व्यक्त करता है—
‘द्रुत करो जगत के जीर्ण पत्र इसका प्रतीक है, जिनको वह ‘जड़ पूरा जोन’ (निष्प्राण विगत युग) कहता है।
(2) मार्क्सवादी चिन्तन से प्रभावित कवि चेतन शोषण के विरुद्ध उभरी है-
वे नृशंस हैं, वे जन के श्रम बल से पोषित,
दुधरे धनी, जाँक जग के, भू जिनसे शोषित।
(3) इस काल की रचनाओं पर गाँधीवाद का भी प्रभाव है और मार्क्स तथा गाँधी के समन्वित प्रभाव के कारण कवि विशेष रूप से यथार्थवादी हो गया। यहाँ उसकी भावात्मकता काल्पनिकता पर अंकुश सा लगता प्रतीत होता है ऐसा लगता है कि कवि यहाँ जीवन और जगत के प्रति युगान्तकारी विचारों के चिन्तन मनन में लीन होकर एक नयुवग का निर्माण करना चाहता है। जागरण का मंत्र फूंककर यथार्थवाद की ठोस धारा पर खड़ा होकर वह नवीन सामाजिक क्रान्ति का आह्वान करता है।
3. अन्तश्वेतनावादी युग (1946 से 1948 तक) —
वस्तुतः कवि नवजागरण का पक्षचर हो उठा था। उसके विचार से यही नवजागरण वर्तमान विषम स्थितियों से मानव का उद्धार करता है, पर जिन विचारधाराओं से कवि प्रभावित हुआ था— मार्क्स और गाँधी, उनसे यह नवजागरण आता हुआ नहीं दिखायी दिया, जिसे कवि स्वयं स्वीकार करता है-
किये प्रयोग नीति सत्यों के तुमने जन जीवन पर,
भावदर्शन सिद्ध कर सके सामूहिक जीवन हित
इस समय कवि का परिचय अरविन्द दर्शन से हो उठता है, यह दर्शन ‘समन्वयवादी था (अध्यात्मक और भौतिकवाद का)। पन्त जी ने यह स्वयं स्वीकार किया है।
4. नव मानवतावादी युग (1948 से अब तक) –
अरविन्द दर्शन के साथ मार्क्स, गाँधी की चेतना के मिलन से कवि पर जो प्रभाव पड़ा उसने नव मानवतावादी विचार चेतना को उभारा, ‘उतारा’ में कवि का विहग गा उठता है-
मैं नव मानवता का सन्देश सुनाता।
‘प्रेम’ को सर्वोपरि मानकर वह मानव हृदय में प्रेम को भर देना चाहता है ताकि मानव विश्वबन्धुत्व की उदात्त भावना से भर जाए। कवि मानव को ‘नव’ जीवन शोभा के ईश्वर मानकर उसे अमर प्रीति की श्रेष्ठ प्रतिमा मानता है, जिसके हृदय में चेतना का स्वर्णिम मुकुल सदैव विकसित रहता है-
नव जीवन शोभा के ईश्वर अमर प्रीति के तुम वर,
स्वर्ण शुभ्र चेतना मुकुल से खिलते उर में सुन्दर।
कविवर बच्चन ने कवि के महत्त्व को इस प्रकार स्वीकार किया है “जब सदियाँ बीत जायेगी और हिन्दी हिन्दू की एकता की भाषा होगी, तब यह सहज स्पष्ट होगा कि राष्ट्रभाषा का यह कवि सचमुच उस युग-राष्ट्र का ‘जन-चारण’ था, जिसने कर्म, भावना और प्रजा के प्रतीक गाँधी, टैगोर और अरविन्द जैसी प्रतिमाओं को जन्म दिया था।
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