सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी। इस कथन की विवेचना कीजिए।
सूर की सरल भावुकता और सहृदयता के अनूठे उदाहरण उनके विनय के पदों में, बाल-लीला वर्णन में, गोपियों के प्रेम-प्रसंगों में और वियोग की उक्तियों में भरे पड़े हैं। विनय के पदों में भगवान् का महत्व और अपनी दीनता का उल्लेख कर अपने भावुक हृदय से अनेक भाव-धाराओं का सृजन किया है। वे कृष्ण की पद-नौका की आस लगाये हुए कभी अपने को ‘सब पतितन को राजा कहते हैं और कभी कहते हैं ‘सब पतितों का नायक’, कभी ‘एक एक करि टरिहौं’ तथा ‘विरद बिनु’ करने की धमकी देने लगते हैं और कभी ‘जो हम भले बुरे तो तेरे’ कहकर उद्धार की प्रार्थना करते हैं। इस प्रकार विनय के पदों में भक्ति का सागर उमड़ पड़ा है। वात्सल्य तथा प्रेम के संयोग और वियोग पक्ष में सूर की सहृदयता और भावुकता पर पर्याप्त विचार किया जा चुका है।
भाव- प्रवीण कलाकार अपनी-अपनी अभिव्यक्ति अनूठे ढंग से करता है, उसके कथन में चमत्कार और वैचित्र्य स्वभावतः बिना प्रयास के ही आ जाता है। सूर में जितनी ही सहृदयता और भावुकता है उतनी ही अधिक चतुरता और वाग्विदग्धता भी है। बाल लीलाओं, प्रेम प्रसंगों एवं क्रीड़ाओं के लिए सूर के पास पर्याप्त घटनाएँ थीं, जिन्हें सरलता और स्वाभाविकता से वे अभिव्यक्त करते हैं, किन्तु विप्रलम्भ में प्रायः घटनाओं का अभाव है। इसलिए अनेक विदग्धतापूर्ण अभिव्यक्ति प्रकारों का सहारा सूर को लेना पड़ा है। सूर का ‘भ्रमरगीत’ वाग्विदग्धता का भण्डार है।
प्रेम-लीलाओं के वर्णन में सूर ने अनौचित्य को बचाने के लिए विदग्धता का आश्रय लिया है। कृष्ण राधा के कुछ का मर्दन करते हुए नीबी की गाँठ खोलने लगते हैं। इतने में यशोदा आ जाती हैं। अब क्या हो, बात खुल गयी, किन्तु सूर के कृष्ण अपनी काक चतुराई से पर्दा डाल ही देते हैं-
नीबी ललित गही जदुराई।
कर सरोज सौं श्रीफल परसत तब जसुमति गड़ आई ॥
तत्छन रुदन करत मनमोहन मन में सुधि उपजाई।
देखौ ढीठ देति नहिं मैया राखी गेंद चुराई ॥
रसिक शिरोमणि की इस विदग्धता पर कौन मुग्ध न हो जायगा। सम्पूर्ण भ्रमरगीत वचन-चातुरी और भावपूर्ण कला-विदग्धता से भरा हुआ है। कृष्ण गोपियों का हृदय चुराकर चले गये। इस अन्याय की गोपियों के हृदय में कुढ़न है। वे कृष्ण के अंग-अंग की कुटिलता और रंग में भरी कृतघ्नता को कितनी विदग्धतापूर्ण रीति से व्यक्त कर रही हैं—
ऊधौ अब यह समुझ भई ।
नँद-नन्दन के अंग-अंग प्रति उपमा न्याय दई।
कुन्तल कुटिल भँवर भरि मालति भुरइ लई ।
तजत न गहरु कियो कपटी जब जानी निरस भई।
निरमोही नहीं नेह कुमुदिनी अन्तहुँ हेम हई।।
सूर ने कहात्मक पद्धति से भी अपनी वाग्विदग्धता का परिचय दिया है। वियोग के समय चन्द्रमा दुःखदायी दिखायी पड़ता है। इस रुचि का प्रदर्शन सूर ने निम्न प्रकार किया है-
दूर करहु बीना को धरिबो।
मोहे मृग नाहिन रथ हाँक्यौ नाहिन होत चन्द को ढरिबो।
इसी प्रकार ‘कर कंकन भुज टाँड भई’ की अभिव्यक्ति में भी वाणी का विलास ही झाँकता है। सूर ने ऊहात्मक चमत्कार से मिलती हुई कहीं-कहीं पर शब्द-क्रीड़ा भी की है—
नखत वेद ग्रह जोरि अरघ करि की बरजै मोहि खात।
गोपियों ने कुब्जा के प्रति जो उक्तियाँ कहीं हैं, वे कटु व्यंग्य से भरी हुई हैं। उद्धव के निर्गुण का खण्डन तो व्यंग्योक्तियों के द्वारा ही किया गया है-
जोग हमको भोग कुबजहिं कौने सीख सिखाई।
सारांश यह है कि सूर मन के सूक्ष्म भावों की वक्रता और विदग्धतापूर्ण अभिव्यञ्जना में अपनी समता नहीं रखते। भाव- मर्मज्ञ इस कलाकार की कला-कुशलता और वाग्विदग्धता अनूठी है। उनमें जितनी ही सहृदयता और भावुकता है उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी। यह पक्षी-संसार चित्रित हो उठा है। इन उपमानों में सौन्दर्य के साथ है, चिर यथार्थता।
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