हिन्दी साहित्य

राष्ट्र-कवि की प्रगतिशील विचारधारा

राष्ट्र-कवि की प्रगतिशील विचारधारा
राष्ट्र-कवि की प्रगतिशील विचारधारा
राष्ट्र-कवि की प्रगतिशील विचारधारा स्पष्ट कीजिए।

डॉ. शिवनन्दनप्रसाद के शब्दों में “साहित्य में प्रगतिशील एक उगते हुए राष्ट्र की जीवनी शक्ति है। प्रगतिशील साहित्यकार की लौह-लेखनी द्वारा उसके राष्ट्र की आशा-आकांक्षाओं, आदर्शों, प्रेरणाओं को वाणी मिलती है। इसी वाणी में युग-धर्म मुखरित होता है।”

प्रगति का साधारण अर्थ आगे बढ़ना या उन्नति करना है, परन्तु साहित्य में प्रगतिशीलता एक ऐसी विचारधारा है, जिसका मूल उस मार्क्सवाद में माना जाता है। वस्तुतः प्रगतिशीलता अथवा प्रगतिवाद की निश्चित रूपरेखा निर्धारित करना दुष्कर है। यह तो एक ऐसी विचारधारा या दृष्टिकोण है, जो युगीन परिस्थितियों के आधार पर निर्मित और परिवर्तित होता रहता है। साहित्य एक सामूहिक चेतना है, जिसका आधार जन-मानस है। अतः साहित्य में प्रगतिशीलता का तात्पर्य जनमानस की वह सामूहिक चेतना ही है, जो किसी युग विशेष में राष्ट्र की उन्नति अथवा विश्वबन्धुत्व जैसे उदात्त भावों के लिए प्रयत्नशील दिखलायी देती है।

हिन्दी साहित्य में ‘प्रगतिवाद’ नामक विचारधारा का आरम्भ 1936 ई. से माना गया है, परन्तु प्रगतिशील विचारों को किसी काल की सीमा में नहीं बांधा जा सकता है। प्रगतिवादी कवियों की सूची में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का नाम भले ही नहीं अंकित किया गया, परन्तु प्रगतिशील विचारधा कवि वे अवश्य थे। युग-प्रतिनिधि राष्ट्रकवि के काव्य में प्रगतिशील विचारधारा अनेक रूपों में प्रवाहित हुई है।

युगानुरूप प्रगतिशीलता की भावना का विकास गुप्त जी की कृतियों में दिखलायी देता है। किसान, शक्ति, स्वदेशगीत, जयद्रथ वध, हिन्दू गुरुकुल आदि में वे अपनी सामयिक अपेक्षाओं को पूरा करते से दिखलायी देते हैं। इसयुग में प्रगतिशीलता का चरम विकास गाँधीवाद के रूप में प्रकाशित हो रहा था। गुप्त जी की कविता में युग की प्रवृत्ति के अनुसार गाँधीवाद की स्पष्ट छाप है। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस जिस मार्ग से गयी उन समस्त आन्दोलनों की ध्वनि गुप्त जी के काव्य में पायी जाती है। गुप्त जी के प्रगतिशील विचार पंचवटी, भारत-भारती, साकेत, अनध और स्वदेश गीत इत्यादि में भरे पड़े हैं। उनके ‘अनघ’ में ‘मघ’ तो महात्मा गाँधी की साक्षात् प्रतिकृति ही है। इस ग्रन्थ में धरना देना, अछूतोद्वार, मद्यनिषेध, गाँव की ओर लौटना, क्षमाशीलता आदि समस्त गाँधीवादी विचारों की प्रस्तुति है। अनघ एक स्थान पर गाँधी के समान ही कहता है-

“न तन सेना न मन सेवा, न जीवन और न धन सेवा ॥
मुझे है इष्ट जनसेवा, सदा सच्ची भवन सेवा!”

अछूतों के प्रति उदार भावना गुप्त जी प्रगतिशील विचारधारा को व्यक्त करती है-

“इन्हें समाज नीच कहता है, पर हैं ये भी तो प्राणी।
इनके भी मन और भाव हैं, किन्तु नहीं वैसी वाणी ॥”

हिन्दू-मुस्लिम एकता आधुनिक युग की भीषण समस्या है। गुप्त जी ने इस पर भी अपने विचार प्रकट किये हैं और दोनों सम्प्रदायों के पारस्परिक वैमनस्य को दूर करने का प्रयास किया है-

‘हिन्दू-मुसलमान दोनों अब, छोड़ें वह विग्रह की नीति॥”

ग्राम-सुधार और श्रमदान जैसे प्रगतिशील विचारों की अभिव्यक्ति भी गुप्त जी के काव्य में प्राप्त होती है। ‘अनघ’ में मंघ को उन्होंने एक आदर्श ग्रामसुधारक के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अपना अधिकांश समय ग्राम सुधार ही व्यतीत करता है-

“मरम्मत कभी कुओं-घाटी की सफाई कभी हाट-बाटों की,
आप अपने हाथों करता है।”

‘हमारे वर्तमान जीवन की प्रधान समस्याएँ राजनीतिक हैं, क्योंकि आज हमारी राजनीति पर ही अर्थनीति और समाजनीति आधारित है। अतः यह आवश्यक है कि हमारे युग के प्रतिनिधि कवि के राजनीतिक विचार यथेष्ट रूप से प्रगतिशील हों। साकेतकार इस विषय में पीछे नहीं। गुप्तजी ने आधुनिक युग के अनुकूल राजा की सीमा निर्धारित की है। राजा प्रजा का प्रतिनिधि मात्र है। यदि प्रजा उससे असन्तुष्ट है, तो राजा के हाथ से राजसत्ता छीन लेने का उसे अधिकार है-

‘राजा प्रजा का पात्र है, वह एक प्रतिनिधि मात्र है।
यदि वह प्रजा पालक नहीं, तो त्याज्य है।
हम दूसरा राजा चुनें जो सब तरह सबकी सुने।
कारण प्रजा का ही असल में राज्य है।”

यदि राज्य को प्रजा का थाती न मानकर शासक अपने भोग की वस्तु मान लें, तो प्रजा को द्रोह करने का अधिकार है।

आधुनिक युग में वीरता के प्रतिमान बदल गये हैं। युद्ध केवल युद्ध के लिए नहीं, अपितु शान्ति स्थापना के लिए आवश्यक होना चाहिए। ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण प्रजाजन को उत्साहपूर्वक सहभागिता का दायित्व निर्वाह करना चाहिए। आधुनिक युग में स्त्रियों को भी पदे पदे पुरुष के साथ चलना है। इसलिए गुप्त जी के साकेत में लक्ष्मण के शक्ति लगने का समाचार जानकर जब शत्रुघ्न शंखनाद करते हैं, तो सारी अयोध्या नगरी मानो सोते से जाग उठती है। और रण-प्रयाण को तत्पर हो जाती है। स्त्रियाँ अपने पति और पुत्रों को उत्साहपूर्वक युद्ध के लिए विदा देती हैं। कैकेयी और उर्मिला तो साथ चलने को उद्यत हो जाती हैं। युगानुरूप प्रगतिशीलता का यह प्रकर्ष गुप्तजी की विचारधारा को स्पष्ट करता है।

शत्रु को नष्ट करके उसके नगर को लूटना युद्ध प्रक्रिया का अंग है। शत्रुघ्न कहते हैं-

“अब क्या है? बस वीर, बाण से छूटो-छूटो।
सोने की उस शत्रुपूरी लंका को लूटो ॥”

परन्तु गुप्त जी उर्मिला के सुख से युद्ध की इस लूट की भर्त्सना कराते हैं—

गरज उठी वह नहीं, पापी का सोना।
यहाँ न लाना, भले सिन्धु में वहीं डुबोना।
सावधान! वह अधम धान्य-सा धन मत छूना।
तुम्हें, तुम्हारी मातृभूमि ही देगी दूना ॥

राष्ट्र-कवि गैथिलीशरण गुप्त की प्रगतिशीलता के अनेक उदाहरण उनके काव्यों में उपलब्ध होते हैं। युगीन विचारधारा गांधीवाद के आदर्शों से अनुस्यूत थी, अतः गुप्त जी ने भी गाँधी के समस्त आदर्शों को स्वीकार किया है। उनके राम इस धरती के स्वर्ग बनाने आये हैं, उनकी सीता वन की आदिम जातियों की मालाओं के साथ मिलजुलकर काम करती हैं, कातना-बुनना सीखती और सिखाती हैं। उनकी उर्मिला युद्ध में वीरों के घाव धोने, पानी पिलाने और प्रोत्साहन और प्रोत्साहन देने के लिए उद्यत है। इस प्रकार साहित्य में जिन प्रगतिशील भावों की प्रतिष्ठा की अपेक्षा हो सकती है, वे सब गुप्त जी के काव्य में सम्पृक्त हैं। डॉ. शिवनन्दन प्रसाद के शब्दों में कह सकते हैं- “गुप्तजी की प्रगतिशीलता को यदि हम भावात्मक प्रगतिवाद कहें तो अनुचित न होगा, क्योंकि यह मार्क्स के इतिहास और वर्ग संघर्ष सम्बन्धी भौतिकवादी विचारों पर न होकर हृदय की वीर भावना पर अवलम्बित है।”

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Anjali Yadav

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