‘परशुराम की प्रतीक्षा’ कविता में व्यक्त ‘दिनकर’ जी के विचारों पर प्रकाश डालिए।
‘परशुराम की प्रतीक्षा’ कविता में दिनकर जी ने हिंसा को मुक्त उत्तेजना दी है, हिंसा का समर्थन किया है। उनकी रचनाओं का अधिकांश भाग राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत है। क्रान्तिदर्शी दिनकर की इन रचनाओं में हृदय की ज्वाला और दासता के प्रति तीव्र असन्तोष एवं विद्रोह है। उनकी ये रचनाएँ हृदय को झकझोर देती हैं और इनसे पाठक को अपार शक्ति मिलती है। वास्तव में ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में दिनकर जीकी राष्ट्रीयता ‘आपद्धर्म’ के रूप में व्यक्त हुई है। इसमें युद्धकाल की राष्ट्रीयता है। शान्ति और निर्माण-काल में जिस राष्ट्रीयता की आवश्यकता होती है, युद्धकाल में उससे काम नहीं चल सकता। युद्धकाल में राष्ट्रीयता के अन्तर्गत शक्ति सामर्थ्य, शस्त्र-तलवार एवं क्रान्ति-ध्वंस का महत्त्व सहज ही मान्य हो जाता है। अतः ‘आपद्धर्म’ में ‘उर्वशी’ का रचनाकार कवि ‘उर्वशी-लोक’ की भावुकता एवं कल्पना से प्रेम और सौन्दर्य से विरत होकर ‘गयी जवानी’ में आग की भट्टी सुलगानेवाले युद्धगीत गाता है। और ऐसा वह पूरे होशोहवास में जानबूझकर करता है :
‘और सत्य ही, मैं भी युग के ज्वरावेग से चूर,
दूर उर्वशी- लोक से,
गयी जवानी की बुझती भट्ठी फिर सुलगाता हूँ।
जितनी ही फैलती देश में भीति युद्ध की,
मैं उतना ही कण्ठ फाड़, कुछ और जोर से,
चिल्लाता, चीखता, युद्ध के अन्धगीत गाता हूँ।’
परशुराम की प्रतीक्षा- कविता की प्रेरणा के मूल में राष्ट्रीय समस्या है। सन् 1962 में भारत पर मित्रघाती चीन का आक्रमण हुआ। सारा देश आक्रोश में भरा था। ऐसी परिस्थिति में दिनकर जी ने अन्तस् में प्रबल राष्ट्रवाद की बेगवती धारा उमड़ पड़ी। उसका प्रतिफल है ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ यह कविता उग्र राष्ट्रवाद का शंखनाद करती है और सामूहिक शक्ति से चीनी आक्रमण के माध्यम से किसी भी आक्रमण को विफल करने की प्रेरणा एवं हिम्मत देती है। नेफा की पराजय का कलंक धोने के लिए दिनकर जी ने परशुराम का आह्वान् उनसे सम्बन्धित पौराणिक कथा को प्रतीक रूप में प्रस्तुत करके किया है। इस कविता के ‘परशुराम’ भारतीय जनता के सामूहिक आक्रोश एवं शक्ति के प्रतीक हैं। पूरी कविता पाँच खण्डों में विभाजित है और प्रत्येक खण्ड की समस्या पर अलग अलग ढंग और पहलू से विचार किया गया है। इनमें ओजगीतों की एकतानता है। इस कविता को पढ़ते हुए युवकों के हृदय में राष्ट्रीय हित के लिए बलिदान होने का जोश जाग्रत हो जाता है। इसकी सभी कविताएँ सफल ओजगीत हैं। प्रत्येक रचना मुक्तक-रूप में निर्बन्ध है।
इस कविता में दिनकर जी का आक्रोश केवल चीन के आक्रमण के प्रति ही नहीं है, अपितु वे चीनी-आक्रमण के लिए भारतीय शासन-प्रशासन एवं विचारदर्शन को भी जिम्मेदार मानते हैं। उनका मानना है कि हमारी निर्दीर्य शान्ति नीति के कारण ही भारत के शक्तिबल का सम्यक् विकास नहीं हो सका, इसीलिए चीन को आक्रमण करने का दुस्साहस हुआ। ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ की पृष्ठभूमि में चीन के आक्रमण की घटना जितनी उत्तरदायी है, उतनी ही उत्तरदायी भारतीय परिस्थितियाँ भी हैं। इसलिए, इस कविता में जहाँ गांधीवाद के नाम पर चलने वाली भारत की शान्ति एवं तपस्यानीति का खण्डन एवं विरोध मुखरित है, वहीं राजनीतिज्ञों, सत्ताधारियों एवं अधिकारियों के भ्रष्टाचारों अत्याचारों की खुलकर भर्त्सना भी की गयी है।
इस कविता में कवि का यह भी मन्तव्य है कि जब तक देश-समाज में अमीर-गरीब, ऊंच नीच, आर्थिक असमानता आदि की खाई रहेगी, देश सबल नहीं हो सकता, मानवता का कल्याण नहीं हो सकता। जब तक समाज में ‘सुख’ और ‘वित्त’ का समान वितरण नहीं होगा, तब तक समाज में शान्ति की स्थापना असम्भव है। तब तक हल्ला मचता रहेगा, संघर्ष होता रहेगा। इसलिए कवि देश की समृद्धि और शान्ति के लिए समता की कामना करता है।
‘जब तलक मनुज का यह सुख-भाग नहीं सम होगा,
शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।’
‘शान्ति कहाँ तब तक जब तक सुख-भाग न नर का सम हो?
नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो ।’
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